पुस्तक समीक्षासाहित्य

घर के अंदर सन्नाटों का शोर सताता रहता है

वसीम नादिर के ग़ज़ल संग्रह रंगों की मनमानी की समीक्षा

लफ़्ज़ों में मफ़हूम को लपेटे शेर वसीम नादिर साहब को बेहद पसंद हैं। आसान लफ़्ज़ों में गहरी बात कह देने का  फ़न बहुत मुश्किल से हासिल होता है. इसके लिए बड़ी मश्क़ करनी पड़ती है। अपने लिखे के प्रति कड़ा रुख अपनाना पड़ता है। ज़बान पसंद न आने पर दस में से अपनी आठ ग़ज़लें खारिज़ कर देने से वसीम साहब को जरा भी गुरेज़ नहीं होता। उनका मानना है कि अगर आप अपने कहे हर शेर से मोहब्बत करेंगे तो बेहतर शायर नहीं बन सकते। यही बात वो हर उस नौजवान को समझाते हैं जो उनसे ग़ज़ल कहने का फ़न सीखता है। शायरी में मफ़हूम तो है ही लेकिन सारा हुस्न ज़बान का है। वसीम साहब के देश विदेश में फैले 35-40 शागिर्द एक दिन अपने साथ साथ अपने उस्ताद का नाम तो रौशन करेंगे ही, उर्दू अदब को अपनी शायरी से मालामाल भी करेंगे। यहाँ उनके सभी शागिर्दों के नाम देना तो मुमकिन नहीं लेकिन बानगी के तौर पर आप जनाब यासिर ईमान , बालमोहन पांडेय, सलमान सईद और सरमत खान जैसे युवा शायरों को यू-ट्यूब  पर अपना कलाम पढ़ते हुए सुनिए।
बहुत तेजाब फैला है गली कूचों में नफ़रत का
मोहब्बत फिर भी अपने काम से बाहर निकलती है
*
लाख तरक्की कर लें बच्चे फिर भी फ़िक्रें रहती हैं
बुनियादों पर दीवारों का बोझ हमेशा रहता है
बाहर निकलूँ तो अन्जानी भीड़ डराती है दिल को
घर के अंदर सन्नाटों का शोर सताता रहता है
*
वो अगर ख्वाब है आंँखों में रहे बेहतर है
और हक़ीक़त है तो आंँखों से निकल कर आए
हमको हालात ने शर्मिंदा किया किस हद तक
बारहा अपने ही घर भेस बदल कर आए
*
दुनिया तेरी लिखाई समझ में न आ सकी
अनपढ़ रहे हम इतनी पढ़ाई के बाद भी
*
गिरवी रखे हैं कान ज़रूरत की सेफ़ में
अब हम बहल न पाएंगे लफ़्ज़ों की बीन से
*
तुम्हारे बा’द अब जिसका भी जी चाहे मुझे रख ले
ज़नाज़ा अपनी मर्जी से कहां कांँधा बदलता है
*
उस सम्त जा रहे हैं जिधर ज़िंदगी नहीं
आंखें खुली हुई है मगर सो रहे हैं लोग
*
किसी ने देखा नहीं आस पास थी जन्नत
थे आस्माँ की तरफ़ हाथ सब पसारे हुए
*
आख़िर मैंने ख़ून से अपने वो तस्वीर मुकम्मल की
कब तक बेबस बैठा रहता रंगों की मनमानी पर
आज के इस दौर में जब हर कोई ज्यादा से ज्यादा लाइक्स या व्यूज बटोरने के फेर में लगा है वसीम साहब सोशल मिडिया पर उतने एक्टिव नहीं हैं जितने उनके हमउम्र दूसरे शायर हैं। ये बात उनसे पूछने पर उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि ‘कुछ शायर बहुत प्रेक्टिकल होते हैं , अपने आप को बड़ा मार्केटिंग का आदमी बना लेते हैं हालाँकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है ,लेकिन कुछ फ़नकारों में बड़ी बेज़ारी होती है अपने आप में ग़ुम रहने की, जैसा हो रहा है चलने दो वाली ,शायद मैं भी उसी खाने का आदमी हूँ।’ उनकी ये बात सही भी है सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव रहने से या मुशायरों के मंच से भीड़ की वाह वाह पाने से आप बड़े शायर नहीं बनते अलबत्ता लोकप्रिय जरूर हो जाते हैं लेकिन ये लोकप्रियता बहुत थोड़े वक़्त तक साथ देती है। शायर बड़ा अपनी शायरी की वजह से कहलाता है लोकप्रियता की वजह से नहीं। लम्बे समय तक आप नहीं आपकी शायरी ज़िन्दा रहती है। वसीम साहब कहते हैं कि ‘शायरी वो बड़ी शायरी है जो कागज़ पर पढ़ने वाले से दाद लेले।’ वसीम साहब का मानना है कि ‘ये कहना कि अब पहले जैसी शायरी नहीं होती ग़लत है।’ ये जरूर है कि अब शायर पहले जैसी मेहनत नहीं करते और रातों रातों रात मशहूर होना चाहते हैं। ये सूरते हालात सिर्फ शायरी में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में हर कहीं है। एक अजीब सी बेचैनी और घुटन में लोग जी रहे हैं किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है धीरे धीरे इंसान छोटे छोटे जज़ीरों में तब्दील होता जा रहा है अपने आप में सिमटा हुआ। उन्हें ज़माने और इंसान में होने वाले इस बदलाव से गिला नहीं है वो जनाब शौकत साहब के इस शेर से दिल को तसल्ली दे लेते हैं : ‘शौकत हमारे साथ अजब हादसा हुआ , हम रह गए हमारा ज़माना चला गया।’
वसीम साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह ‘शाम से पहले’ सं 2015 में उर्दू रस्मुलख़त में मंज़र-ऐ-आम पर आया। इस किताब को बेहद मक़बूलियत मिली और ये अदबी हलक़ों में चर्चित भी रही। इसे उर्दू अकादमी देहली ने सम्मानित भी किया।
हिंदी में ‘रंगो की मनमानी‘ 2021 में पाठकों के हाथों में पहुंची। आप सभी पाठकों से गुज़ारिश है कि खूबसूरत शायरी और किताब के इज़रे की अग्रिम बधाई वसीम साहब को उनके मोबाइल न. 8851953082 पर जरूर दें।
आखिर में पेश हैं इसी किताब से कुछ और शेर :-
सब अपने नाम की तख़्ती लगाए बैठे हैं
पता सभी को है ये सल्तनत ख़ुदा की है
*
जिसे चिराग़ मिले हों जले जलाए हुए
वो रोशनी का ज़रा भी अदब करेगा क्यों
*
कितने दरवाजों पे झुकता है तुम्हें क्या मालूम
वो जो इक शख़्स किसी घर का बड़ा होता है
उसने ता’रीफ़ के पत्थर से किया है जख़्मी
ये निशाना बड़ी मुश्किल से ख़ता होता है
ख़ता: चूकना
*
बस एक गुज़रा तअ’ल्लुक़ निभाने बैठे हैं
वरना दोनों के कप में ज़रा भी चाय नहीं
*
क़ैद- ख़ाने में यही सोच के वापस आया
मुझको मालूम है तन्हा पड़ी ज़ंजीर का दुख
*
थकन से चूर होकर गिर गया बिस्तर पे मैं अपने
मगर अब तक तेरी तस्वीर से बाज़ू नहीं निकले
*
धुएँ से शक्ल बनाना उदास लम्हों की
नए ज़माने तेरी सिगरेटों ने छोड़ दिया
साभारः नीरज गोस्वामी

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