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दो अक्टूबर 1994 का वह दिन आज भी मेरी स्मृतियों में ताजा है। जब अहिंसा के रास्ते पर चलकर देश को आजादी दिलाने वाले बापू के देश में पुलिस निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसा रही थी। लाठी-डंडों की बरसात से चीख-पुकार मची हुई थी। मुजफ्फरनगर का रामपुर तिराहा जैसे जलियांवाला बाग में तब्दील हो गया था। अमृतसर में जनरल डायर के कहने पर पुलिस ने आजादी के दीवानों पर गोलियां बरसाई थी और आजाद भारत में संवेदनहीन समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की शह पर पुलिस ने कई आंदोलनकारियों को गोलियों से भून दिया। इतना ही नहीं दिल्ली में प्रोटेस्ट करने जा रही पहाड़ की कई महिलाओं से बदसलूकी की गई। खाकी वर्दीधारियों ने मासूम बच्चों तक को नहीं बख्शा।
दरअसल, कौशिक समिति की सिफारिश पर उत्तराखंड को पृथक राज्य का दर्जा देने की मांग तो उत्तर प्रदेश सरकार ने मान ली थी और इसे स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार को भी भेज दिया गया था। लेकिन, इस बीच मुलायम सिंह सरकार ने 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी थी, जिससे छात्रों और पहाड़ की आम जनता में आक्रोश फैल गया था। इसके विरोध में पहाड़ में आंदोलन शुरू हो गया। खटीमा में आरक्षण का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां बरसाई, जिसमें छह-सात युवक मारे गए। इस घटना ने आंदोलन को और व्यापक कर दिया। इसी के अगले दिन मसूरी में भी पुलिस की फायरिंग में छह आंदोलनकारी शहीद हो गए। इससे जनता में आक्रोश गहराना स्वाभाविक था। पूरा पहाड़ सुलगने लगा और जगह-जगह धरना-प्रदर्शन शुरू हो गए।
इन्हीं घटनाओं के विरोध में राजधानी दिल्ली में दो अक्टूबर 1994 को राजघाट में धरना और रामलीला मैदान में रैली होनी थी। इन कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए रुद्रप्रयाग, पौड़ी, श्रीनगर, ऋषिकेश, देहरादून और कुमाऊं मंडल से लोग बस और अन्य वाहनों से दिल्ली जा रहे थे। मध्य रात्रि जैसे ही तमाम लोग मुजफ्फरनगर के पास रामपुर तिराहा पर पहुंचे, पुलिस ने बसों से निकालकर आंदोलनकारियों को पीटना शुरू कर दिया। इस दौरान कई महिलाओं की अस्मत पर भी हाथ डाला गया। महिलाओं समेत तमाम आंदोलनकारी गन्ने के खेतों की तरफ भागे, लेकिन पुलिस ने वहां भी उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। पुलिस फायरिंग और लाठीचार्ज में सात आंदोलनकारी शहीद हुए। इनमें देहरादून नेहरू कॉलोनी निवासी रविंद्र रावत उर्फ गोलू, बालावाला निवासी सतेंद्र चौहान, बदरीपुर निवासी गिरीश भद्री, अजबपुर निवासी राजेश लखेड़ा, ऋषिकेश निवासी सूर्यप्रकाश थपलियाल, ऊखीमठ निवासी अशोक कुमार और भानियावाला निवासी राजेश नेगी की मौत की पुष्टि हुई थी। इसके बाद 1995 में पूरे घटनाक्रम की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी।

इधर, दो अक्टूबर 1994 की सुबह हम लोग रामलीला मैदान की तरफ जा रहे तो रामपुर तिराहा की घटना के बारे में पता चला। इससे दिल्ली में रह रहे पहाड़ के लोग भी उग्र हो उठे। सरकार के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी गई , तो कुछ लोग मुजफ्फरनगर की तरफ जाने लगे, लेकिन पुलिस ने रास्ते सील कर दिए। इससे हम लोग मुजफ्फरनगर नहीं जा पाए। रामपुर तिराहा, खटीमा और मसूरी गोलीकांड के विरोध में दिल्ली में भी प्रदर्शन शुरू कर दिया गया। वर्ष 1994 में मैं दिल्ली के एक सांध्य दैनिक ‘महालक्ष्मी’ के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था, लेकिन इन घटनाओं की रिपोर्टिंग के बजाय में सक्रिय रूप से आंदोलन में कूद पड़ा। वोट क्लब, रामलीला मैदान, जंतर-मंतर जहां भी मौका मिलता, मैं पृथक उत्तराखंड राज्य को लेकर हो रहे आंदोलन में शामिल होता। इस दौरान मेरी बात वरिष्ठ पत्रकार उमाशंकर थपलियाल जी से भी होती रहती थी। उमा शंकर थपलियाल जी से हमारी बहुत पुरानी पहचान थी, जो 1996 में रिश्तेदारी में भी तब्दील हो गई थी। मैं उनसे अक्सर उत्तराखंड आंदोलन को लेकर श्रीनगर में हो रही गतिविधियों को लेकर चर्चा करता था और मैं भी दिल्ली की गतिविधियों से उन्हें अवगत कराता था। वह बताते थे कि भक्तियाणा की कई महिलाएं, जिनमें मेरी माता जी भी सक्रिय रूप से भागीदारी करती थी, रात में मशाल जुलूस निकालकर जनजागरण करते थे। इस बात पर भी चर्चा होती थी कि उत्तराखंड का पृथक राज्य बनना क्यों जरूरी है। दरअसल पहाड़ विकास से वंचित था, क्योंकि लखनऊ में बैठकर विकास की योजनाएं बनाई जाती थी, जो धरातल पर खरी नहीं उतरती थी। विभागीय काम कराने के लिए लखनऊ जाना पड़ता था, जहां पहुंचने में देश की राजधानी दिल्ली से भी ज्यादा समय लगता था। विशेष भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी उत्तराखंड की मांग जोरशोर से उठती थी।
बहरहाल, वर्ष 1996 में मेरी नियुक्ति बरेली में ‘दैनिक जागरण’ में हो गई और मैं दिल्ली से बरेली चला गया, लेकिन पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन को लेकर उत्साह कम नहीं हुआ। श्रीनगर में मेरी माता जी खुद क्षेत्रीय महिलाओं के साथ आंदोलन में भागीदारी करती रहीं। इससे भी मैं और उत्साहित था। आंदोलन के दौरान जब अखबार के दफ्तर से छुट्टी लेकर श्रीनगर जाता, तो आंदोलन में जरूर शामिल होता था। कोशिश रहती थी कि लाइम लाइट में न आया जाए, ताकि आंदोलन को मजबूती मिल सके। दस नवंबर 1995 को श्रीनगर के श्रीयंत्र टापू कांड में दो लोगों यशोधर बेंजवाल और राजेश रावत के मारे जाने के बाद तो आंदोलन की ज्वाला दिल में और भड़क उठी। श्रीनगर में कई प्रदर्शनों में भागीदारी की।
वर्ष 1996 में बरेली जाने के बाद आंदोलन में मेरी सशरीर भागीदारी जरूर कम हो गई थी, लेकिन लेखनी के माध्यम से लड़ाई जारी रही। हालांकि, आज उत्तराखंड की दुर्दशा देखकर क्षोभ होता है। पृथक राज्य की लड़ाई में कई युवाओं ने बलिदा.न दिया, लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ हो गया। आंदोलन से उपजे नेता सक्रिय राजनीति से दूर रहे और अवसरवादियों ने सत्ता पर कब्जा कर निहित स्वार्थों के लिए राज्य की अस्मिता को ही दांव पर लगा दिया। महिलाओं के साथ राज्य में जो जुल्म हो रहा है, क्या ऐसे ही राज्य का सपना मां-बहनों ने देखा था। अफसोस! अब भी राज्य को बचाना है, बेटियों की इज्जत सुरक्षित रखनी है, राज्य को विकास के पथ पर ले जाना है, तो गलत जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आवाज उठानी होगी। उन्हें सत्ता में आने से रोकना होगा और नए सिरे से राज्य की संरचना करनी होगी। ताकि बिना सिफारिश के युवाओं का भविष्य परवान चढ़ सके।
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लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
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