
क़िताबों की दुनिया में आपको आज मैं एक ऐसे शायर से मिलवा रहा हूँ जो मुझे अज़ीज़ ही नहीं, मेरे मित्र भी हैं। ये मित्रता ऐसी है जो लगभग चार साल पहले फोन पर अचानक हुई पहली ही वार्तालाप में हो गयी। मित्रता की ये ही खूबी है कि जिससे होनी होती है, तुरंत होती है और अगर नहीं होनी होती तो सालों के परिचय के बाद भी नहीं हो पाती। आप इसे एक रासायनिक क्रिया समझ लें जिसमें या तो क्रिया तुरंत होती है या होती ही नहीं। मैंने अंतरजाल की प्रसिद्ध ई-पत्रिका ‘अनुभूति’ पर उनकी ग़ज़लें पहली बार पढ़ीं और मुबारकबाद देने को फोन किया। बस फिर क्या था, उनकी अपनत्व से भरी आवाज़ ने मुझे उस दिन से जो बांधा तो आज तक बांधे हुए है।
ऐसे बंधन का क्या सुख होता है ये हमसे पूछिए। आप भी अगर श्री आर. पी. ‘घायल’, जिनकी किताब ‘लपटों के दरमियाँ’ का हम ज़िक्र करेंगे- से बात करेंगे तो इस बंधन के सुख का अनुभव ले सकेंगे। आइए ज़िन्दगी की लपटों के बीच सुकून के ठन्डे पानी की बौछार-सी इस किताब का आनंद लें-
आदमी की भीड़ में अब खो रहा है आदमी
आँख अपनी खोलकर भी सो रहा है आदमी
ज्ञान कहते थे जिसे विज्ञान जब से हो गया
सैंकड़ों मन बोझ ग़म का ढो रहा है आदमी
एक लम्हे की ख़़ुशी ‘घायल’ ख़रीदी किसलिए
ज़िन्दगी भर की ख़़ुशी को रो रहा है आदमी
17 जुलाई, 1949 को नालंदा, बिहार में जन्मे ‘घायल’ साहब मनमौजी क़िस्म के शायर हैं। वर्षों तक भारतीय रिजर्व बैंक के राजभाषा-कक्ष में प्रबंधक की हैसियत से नौकरी करने के बाद रिटायर हो कर अब पटना में बस गए है। शायरी उनके लिए इबादत की तरह है जिसमें वो किसी क़िस्म का ख़लल नहीं चाहते। यही वजह है कि उन्हें सार्वजनिक मंचों पर बहुत कम देखा गया है, अलबत्ता अपने किसी मित्र के घर पर हुई नशिस्त में उन्हें कभी-कभार ज़रूर देखा-सुना जा सकता है-
रेत का इक महल बन गयी ज़िन्दगी
रोज ढहने की आदत हमें पड़ गयी
दर्द देने का चस्का जो उनको लगा
दर्द सहने की आदत हमें पड़ गयी
आह को भी नज़र लग न जाए कहीं
छुपके रहने की आदत हमें पड़ गयी
‘घायल’ साहब लाख छुप के रहें लेकिन उनके चाहने वाले उन्हें ढूंढ़ ही लेते हैं। कारण स्पष्ट है। उनकी शायरी थके-मांदे लोगों की रूह को आराम पहुंचाती है। ज़माने के दर्द को समेटे उनकी सीधी-सादी बातें पढने-सुनने वालों के दिल में आसानी से उतर जाती हैं। ‘घायल’ साहब ने शायरी के माध्यम से अपने घाव छुपाने का हुनर सीख लिया है-
किसी की आँख में आंसू दिखाई क्यूँ भला देते
जो उसका पासबाँ उसके लिए पत्थर नहीं होता
किसी भी हाल में जन्नत से कम होती नहीं दुनिया
उदासी में अगर डूबा किसी का घर नहीं होता
कभी नफ़रत अगर ‘घायल’ मुहब्बत में बदल जाती
यकीनन आज दहशत का कहीं मंज़र नहीं होता
‘घायल’ साहब ने इस क़िताब में कहा है- “ग़ज़ल मेरे लिए मेरा ईमान और ख़ुदा की इबादत है। मेरा मानना है कि ग़ज़ल का गुलाब तो जज़्बे की ज़मीन पर ही खिलता है। ग़ज़ल की पहचान उसकी ग़ज़लियत होती है। महसूस कर कही गयी और सोच कर लिखी गयी ग़ज़ल में फर्क होता है। एहसास की ख़़ुशबू में नहाई हुई ग़ज़ल गाई और पढ़ी जाती है, जबकि सोचकर लिखी गयी ग़ज़ल सिर्फ पढ़ी जाती है।”
इस किताब में उनकी ग़ज़लें एहसास की ख़ुशबू में लिपटी हुई ग़ज़लें हैं इसीलिए उन्हें ना सिर्फ पढ़ा गया है, बल्कि उन्हें गाया भी गया है। मेरी बात पर यक़ीन करने के लिए आप बस पटना की प्रसिद्ध गायिका रंजना जी की आवाज़ में गाई उनकी ग़ज़लें सुनें और आनंद लें।
‘‘उसके लिए तो कुछ नहीं मेरे लिए मगर
देखे बिना भी देखना कितना अजीब था
छू कर गया उसका बदन तो यूँ लगा मुझे
जैसे हवा का झोंका भी मेरा रकीब था
जिसके लिए तरसा किये दुनिया के लोग बाग़
हैरत उन्हीं को थी के मैं उसके करीब था
इस किताब को ‘सरोज प्रकाशन’, पटना द्वारा प्रकाशित किया गया है। किताब की प्राप्ति के लिए आपको घायल साहब से उनके मोबाइल न. 9199810038 पर संपर्क कर बधाई देनी होगी और फिर किताब-प्राप्ति के लिए पूछना होगा, बस। मेरे मित्र और छोटे भाई श्री नवीन चतुर्वेदी जी, जो मुंबई निवासी हैं और छंदशास्त्र के प्रकांड पंडित हैं, जिनका अपना बहुत प्रचलित ब्लॉग ‘समस्या-पूर्ति’ भी है- मैंने
ये नियम बनाया है के मेरी इस शृंखला में दिए गए शायरों से वो मोबाइल पर ज़रूर संपर्क करेंगे। उन्हें इस से जो लाभ मिला उसके बारे में आप स्वयं उनसे उनके मोबाइल न. 9967024593 पर संपर्क कर के पूछ सकते हैं।
मेरा बस आप सब से इतना-सा अनुरोध है के अगर आप किताब ख़रीदने में रुचि नहीं रखते तो कम से कम उन शायरों से बात करके उनकी हौसला-अफजाई तो कर ही सकते हैं-
जुता रहता है बैलों की तरह जो खेत में दिन भर
उसी का अपना बच्चा भूख से आंसू बहाता है
बनाये जिसके धागों से बने हैं आज ये कपड़े
उसी का तन नहीं ढकता कोई गुड़िया सजाता है
जलाता है बदन कोई हमेशा धूप में ‘घायल’
ज़रा सी गर्मी लगने पर कोई पंखा चलाता है
उम्मीद है, मेरी तरह आपको भी घायल साहब की शायरी पसंद आई होगी। ये एक सच्चे, सीधे, सरल इंसान की सच्ची, सीधी, सरल शायरी है। इस क़िताब में, जो सन 2004 में प्रकशित हुई थी, उनकी 72 ग़ज़लें संगृहीत हैं। उनका ग़ज़ल-लेखन अभी भी अबाध गति से चल रहा है। जल्द ही उनकी दूसरी क़िताब भी बाज़ार में आ जाएगी। आप उन्हें कभी भी फोन करें, एक-आध नया शेर उनके पास हमेशा सुनाने को तैयार होता है। उनकी शायरी के प्रति ऐसी दीवानगी देख कर हैरत होती है। वो पूरी तरह से शायरी को समर्पित इंसान हैं। मेरा सौभाग्य है के मैं उनसे मुंबई में श्री हस्तीमल जी हस्ती जी के घर पर हुई नशिस्त में रूबरू मिल चुका हूँ।
इससे पहले के मैं आपको नमस्कार कहूँ और एक और शायरी की क़िताब की खोज में जाऊं, आपको उनके तीन नाज़़ुक-से शेर पढ़वाता चलता हूँ-
कसक तो थी मेरे मन की मगर बैचैन थे बादल
तुझे उस हाल में मैंने फुहारों की तरह देखा
खिले फूलों की पंखुडियां जरा भी थरथराईं तो
तेरे होंठों के खुलने के नज़ारों की तरह देखा
मेरी तनहाइयाँ ‘घायल’ सताने जब लगीं मुझको
तुझे यादों के दरिया में किनारों की तरह देखा
(ब्लॉग ‘नीरज’ से साभार)
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