उत्तराखंड

इंसान की शक्ल देखने को तरस जाएगा पहाड़

वन्यजीवों से बढ़ रही समस्या

इंसान की शक्ल देखने को तरस जाएगा पहाड़

उत्‍तराखंड के पर्वतीय जिलों में एक के बाद एक गांव जिस तरह मानवविहीन होते जा रहे हैं, उससे तय मानिए कि एक दिन पहाड़ इंसान की शक्‍ल देखने को भी तरस जाएगा। इस त्रासदी के लिए शासन व्‍यवस्‍था तो जिम्‍मेदार है ही, जंगली जानवर भी इसकी बड़ी वजह बनते जा रहे हैं। खासकर बाघ-गुलदार व भालुओं ने तो पहाड़वासियों का जीना ही दूभर कर दिया है। बाघ-गुलदार के किसी न किसी व्‍यक्ति पर झपट्टा मारने की खबरें तो आए दिन आती रहती हैं। हफ्ते में एक या दो व्‍यक्तियों का बाघ-गुलदार का निवाला बन जाना भी अब सामान्‍य बात हो गई है। इस अक्‍टूबर में ही बाघ एक और गुलदार तीन व्‍यक्तियों को निवाला बना चुका है। पौड़ी जिले में कार्बेट टाइगर रिजर्व से लगे नैनीडांडा ब्‍लाक के दो दर्जन गांवों में तो अघोषित कर्फ्यू की-सी स्थिति है। शाम चार बजे के बाद लोग घरों में कैद होकर रह जाते हैं। इन गांवों के बच्‍चे स्‍कूल जाने तक का साहस नहीं जुटा पा रहे।

बाघ-गुलदार के अलावा बंदर, सुअर आदि जानवर भी पहाड़ की तबाही के लिए कम जिम्‍मेदार नहीं हैं। लेकिन, पहाड़वासियों की सुनने वाला कोई नहीं। सरकार, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और पर्यावरणवादियों को पहाड़ में जंगली जानवरों का जमघट चाहिए। आप इन जानवरों पर खरोंच तक नहीं लगा सकते। ऐसा किया तो धर लिए जाओगे। वन विभाग जुर्माना ठोेक देगा, पुलिस गिरफ्तार कर देगी और अदालत जेल भेज देगी। लेकिन, बाघ-गुलदार किसी व्‍यक्ति को निवाला बना दे तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। पांच लाख का मुआवजा देकर पीड़ित परिवार का मुंह बंद करा दिया जाएगा। इसके अलावा और कुछ नहीं होने वाला।

पहाड़ के स्‍कूलों में शिक्षक न होना कोई बड़ी बात नहीं है। जिन स्‍कूलों में शिक्षक हैं भी, वो पहाड़ में रहना पसंद नहीं करते। बल्कि, मैदानी क्षेत्र से सुबह ट्रैकर के जरिये स्‍कूल पहुंचते हैं और शाम को वापस लौट आते हैं। स्‍कूल भवनों का तो कहना ही क्‍या। कई जगह दो-दो कमरों के भवन में इंटर कालेज तक चल रहे हैं। इन स्‍कूलों में तैनात शि‍क्षक भी जोड़-जंक से अपना तबादला मैदानी क्षेत्र के स्‍कूलों में करा लेते हैं। समझा जा सकता है कि इन स्‍कूलों में कैसा भविष्‍य तैयार हो रहा है।

स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था का तो और भी बुरा हाल है। शहर वालों के लिए मेडिकल कालेज, जिला चिकित्‍सालय, बेस चिकित्‍सालय व संयुक्‍त चिकित्‍सालय हैं और ग्रामीणों के लिए प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र। बुखार व पेट दर्द होने पर भी ग्रामीणों को दवा के लिए 50 से सौ किमी तक की दौड़ लगानी पड़ती है। गांवों के आसपास जो अस्‍पताल हैं भी, उनमें न तो डाक्‍टर हैं, न फार्मेसिस्‍ट व अन्‍य स्‍टाफ ही। दवाइयों का भी घोर अभाव है। आपरेशन आदि के बारे में तो सोचना भी गुनाह है। अफसरों से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री व मुख्‍यमंत्री तक का इससे कोई लेना-देना नहीं। देहरादून में बैठकर उनके तो स्‍वार्थ सिद्ध हो ही रहे हैं।

मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, बामण-ठाकुर, सेना, पाकिस्‍तान, गो, गंगा, श्मशान-कब्रिस्तान, मज़ार आदि मुद्दों पर जब चुनाव जीता जा सकता है तो रोजी-कपड़ा-मकान की बात कौन मूर्ख उठाएगा और क्यों उठाएगा। फिर वोट तो कंबल, साड़ी, हजार-पांच सौ रुपये और दारु के पव्‍वे में भी आसानी से मिल जाते हैं, इसके लिए शिक्षा-स्‍वास्‍थ्‍य की बात करने की क्‍या जरूरत। इसके अलावा बिजली, पानी, सिंचाई, सड़क व संचार के मामले में भी पहाड़ की हमेशा उपेक्षा ही हुई है। फिर भी लोग पहाड़ में रह रहे थे, लेकिन जंगली जानवरों के आतंक ने तो पहाड़ की तस्‍वीर ही बदल डाली है।

ऐसा कौन होगा, जो बाघ-गुलदार-भालू को अपनों की बलि देना चाहेगा। इसलिए वह पहाड़ छोड़ने में ही भलाई समझ रहा है। पहाड़ में रहने को वही विवश है, जिसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं। मुफ़लिसी के चलते वह कहीं बाहर भी नहीं जा सकता। …और अब तो पहाड़ में जीवन गुजारना भी उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है। ख़ौफ़ के साये में उसके दिन गुजर रहे हैं। मौत कब, किस पेड़ के पीछे या किस झाड़ी में से झपट्टा मार दे, कहा नहीं जा सकता। लोग खेती-किसानी और पशुपालन से भी इसीलिए विमुख हो रहे हैं। लेकिन, सरकार व पर्यावरणवादियों को इसका कोई मलाल नहीं। उनकी बला से। टाइगर प्रोजेक्ट के बजट में कोई कमी नहीं आनी चाहिए।


अमीरों की सैर-सपाटे की जगह बनकर रह गया है। उन्हें यहां जंगल चाहिएं, जानवर चाहिएं और इस सबसे बढ़कर प्राकृतिक वातावरण चाहिए। इसके लिए पार्कों का क्षेत्रफल बढ़ाया जा रहा है। फॉरेस्ट एरिया में पक्की सड़कें नही बनने दी जा रहीं। बिजली, पानी और संचार सुविधा से भी फॉरेस्ट एरिया के आसपास रहने वाली आबादी को महरूम रखा गया है। कहने का मतलब यहां रहने वाले लोगों की नियति सिर्फ बाघ-गुलदार का आहार बनना है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लोगों की लड़ने की ताकत भी अब खत्म हो चुकी है। ऐसा ही होना भी है, क्योंकि उनके हक में खड़ा होने वाला कोई जो नहीं है।

-दिनेश कुकरेती

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