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उत्तराखंड भाषा संस्थान को क्यों है हिंदी ग़ज़लों से परहेज़

- काव्य विधा में कविता संग्रह को ही मिलती है तरजीह

– लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: उत्तराखंड भाषा संस्थान को लगता है ग़ज़ल से परहेज़ है। ग़ज़ल को उर्दू की विधा मानकर वह इसे खारिज़ कर दे रहे हैं। हिंदी ग़ज़लों को घर-घर तक पहुंचाने वाले दुष्यंत कुमार ने देवनागरी लिपि में ग़ज़लें कही और लिखी थी, जिसे अदम गोंडवी समेत कई शायरों ने अपनाया। लेकिन यह विधा उत्तराखंड भाषा संस्थान के कर्ताधर्ताओं के गले नहीं उतर रही। यही कारण है कि काव्य विधा में आज तक हिंदी ग़ज़लकारों को पुरस्कृत नहीं किया गया। हाल ही में वितरित साहित्य गौरव पुरस्कार में भी यही सिलसिला कायम रहा। देश-विदेश में अपनी ग़ज़लों से पहचान बनाने वाले युवा शायर बादल बाजपुरी भी भाषा संस्थान की इस अनदेखी से ख़फ़ा हैं। उनका कहना है कि भाषा संस्थान ने काव्य विधा में दो पुरस्कार रखें हैं, लेकिन इनमें से एक भी पुरस्कार ग़ज़ल संग्रह को नहीं मिला। कहा कि संस्थान हिंदी ग़ज़लकारों को नकार रहा है।
ग़ज़ल काव्य की ऐसी विधा है, जिसके प्रति युवाओं का रुझान दिनोंदिन बढ़ रहा है। देवनागरी लिपि में कई ग़ज़ल संग्रह आ रहे हैं। लेकिन उत्तराखंड भाषा संस्थान इससे अनजान है। क्या कारण है कि संस्थान की ओर से दिए जाने वाले पुरस्कारों में हिंदी काव्य विधा श्रेणी में देवनागरी लिपि में ग़ज़ल कहने वाले कुछ लोगों ने आवेदन किया, लेकिन उन्हें नकार दिया गया। सिर्फ़ प्रो. उन्वान चिश्ती पुरस्कार में ही ग़ज़लकारों को शामिल किया जा रहा है, जो उर्दू काव्य विधा में दीर्घकालीन सृजन के लिए है।
एक तरफ तो भाषा संस्थान के अधिकारी युवाओं को बढ़ावा देने की बात करते हैं, लेकिन ग़ज़ल जैसी विधा से परहेज़ करते हैं, जबकि उत्तराखंड में कई युवक देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं। सवाल यह है कि ग़ज़ल से परहेज़ क्यों किया जा रहा है, जबकि बड़े-बड़े कवि और गीतकार भी ग़ज़ल की ओर आकर्षित हो रहे हैं। बहरहाल, भाषा संस्थान को चाहिए कि वह पुरस्कारों के लिए बनाई जाने वाली चयन समिति में ग़ज़ल के जानकारों को भी शामिल करे, ताकि युवा शायर भी इस विधा में आगे बढ़ सकें और साहित्य में अपना योगदान दे सकें।

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