
♥उर्दू-शायरी मुख्यत: चार घरानों में बँटी हुई है। दिल्ली घराना, लखनऊ घराना, कलकत्ता घराना और रामपुर घराना। इनमें दिल्ली घराने और लखनऊ घराने में बहुत समय तक श्रेष्ठता की होड़ चलती रही। दिल्ली से मिसरा जाता तो लखनऊ वाले उस मिसरे पर गिरह लगा कर वापस भेजते, और लखनऊ से मिसरा आता तो दिल्ली वाले उस मिसरे पर गिरह लगा कर भेजते। दोनों घरानों के बीच अक्सर तरही मुशायरों के भी आयोजन हुआ करते। कई बार मुशायरा ‘मिसरा-तरह’ पर न होकर किसी ख़ास मौज़ूअ (विषय) पर मौक़ूफ़ ( निर्भर ) होता था। यानि दोनों ओर के शुअरा को अपना हर शे’र सिर्फ़ उस निर्धारित विषय पर ही कहना लाज़िमी होता था।
एक बार—
ऐसा ही एक मुशायरा ‘नज़ाकत’ विषय पर रखा गया। दोनों घरानों के शुअरा हज़रात आमने-सामने तशरीफ़ फ़र्मा थे। दिल्ली इधर और लखनऊ उधर। मुशायरे का आग़ाज़ इधर से हुआ। नज़ाकत पर चन्द चुनींदा अश्आर आप हज़रात भी मुलाहिज़ा फ़र्माएँ–
- “नज़ाकत ख़त्म है उन पर,जो ये फ़र्माते हैं
फ़र्शे-मख़मल पे मेरे पाँव छिले जाते हैं “♥
जवाब आया–
“शायद किसी के ख़्वाब में पहुँचा था रात को
दुखते हैं आज सुब्ह से उस नाज़नीं के पाँव”
इधर से शे’र कहा गया—
“उस हसीं ने कल जो तोड़ा शाख़े-गुल से कोई फूल
अब तलक छाले पड़े हैं नाज़नीं के हाथ में”
उधर से जवाब दिया गया–
“क्या नज़ाकत है कि आरिज़ उनके नीले पड़ गये
हमने तो बोसा लिया था ख़्वाब में तस्वीर का”
इधर वाले–
“कुछ ग़ुरूरे-हुस्न से वो बुत नहीं करता सलाम
कुछ हिना का बार है सो हाथ उठ पाता नहीं”
उधर वाले–
“नोंके-मिज़्गान न चुभ जाए तने-नाज़ुक में
उनसे कह दो जो मिरी आँखों में फिरा करते हैं”
पूरा मुशायरा यहाँ दर्ज करना मुमकिन नहीं, सो मुशायरे का आख़िरी शे’र दिल्ली के उस्ताद-उल असातिज़ा (उस्तादों के उस्ताद) हज़रते मीर तक़ी ‘मीर’ का नज़ाकत पर निहायत ही आसानतरीन ज़ुबान का लासानी शे’र मुलाहिज़ा फ़र्मा लिया जाए—
“नाज़ुक कमर लचकती है ज़ुल्फ़ों के बार से
गर्दन में दर्द होता है फूलों के हार से”
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अब ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी ‘मीर’ साहब की इस सादाज़बानी, इस ख़ूबसूरत कहन का भला कोई क्या जवाब देता !
–मंगल नसीम