पुस्तक समीक्षासाहित्य

दर्द गढ़वाली की शायरी में जिंदगी के कई रंग

दर्द गढ़वाली के ग़ज़ल संग्रह 'धूप को सायबां समझते हैं' की समीक्षा

ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ के नाज़ उठाना आसान काम नहीं है। मगर इस नाज़नी की कलाई पकड़ लेने वाले दर्द गढ़वाली की हिम्मत दाद की मुस्तहक है।
“धूप को सायबां समझते हैं” आपका दूसरा ग़ज़ल संग्रह समय साक्ष्य 15, फालतू लाइन, देहरादून ने प्रकाशित किया है। इस से पहले “तेरे सितम तेरे करम” नाम से ग़ज़ल संग्रह 2014 में छप चुका है।

तकनीक के लिहाज़ से तो ग़ज़ल शाइरी की मुख़्तलिफ़ सिन्फ़ है ही, लहजे के नुक़्ता-निगाह से भी यह औरों से जुदा कही जाती है।

दर्द गढ़वाली छोटी या कह लीजिए कि दरम्यानी बह्र के शाइर हैं। उनकी ग़ज़लों में समाज, सियासत और प्यार-मुहब्बत का ही नहीं जीवन की और भी अनेक चीज़ों का ज़िक्र मिल जाता है।

मज़दूरों और किसानों के हवाले से कहा गया शे’र देखिए :

धूप से डर हमें नहीं लगता
धूप को सायबां समझते हैं

मेहनतकश जमात का ओढ़ना-बिछौना दुख ही तो हैं : सुख का निर्माण और रचना भले ही वे करते हैं, मगर उस पर अधिकार किसी और का हो जाता है। उनके हिस्से में सिवाय रोने के कुछ भी तो नहीं बचता :

चार सू ग़म टहलते रहते हैं
और रोने को एक कोना है

उन लोगों के घर के दरवाज़े भी रंग-रोगन के अभाव में बेलिबास से नज़र आते हैं जिनको देख कर खिड़कियों को भी शर्म आती है :

खिड़कियां शर्म से हुईं पानी
जब हुए बेलिबास दरवाज़े

काम-धंधे की तलाश में गाँव छोड़ कर शहर में आ बसे ऐसे लोगों की लाचारी को भला कौन समझेगा :

गाँव से हम क्यों नगर में आ बसे हैं
कौन समझेगा ये लाचारी हमारी

उनके तो पाँव का सफ़र भी एक सीमित से दायरे में सिमट कर रह जाता है :

‘दर्द’ कैसे मिले हमें मँज़िल
पाँव से हो गया सफ़र ग़ायब

नफ़रत और बेएतबारी के इस दौर में प्यार और वफ़ा का प्रयास करने वाले से दुनिया वाले कैसे पेश आते है, देखिए :

जब भी करता प्यार वफ़ा की बातें मैं
मुझको ही सब आँख दिखाने लगते हैं

शाइर को अपना दिल बसावट के लिहाज़ से कभी तो एक नगर लगता है, कभी अन्य कारण से मुर्दाघर लगता है :

क्या-क्या बसता है इस दिल में
दिल भी एक नगर लगता है

ढेरों ख़्वाहिश दफ़्न पड़ी हैं
दिल भी मुर्दाघर लगता है

शाइर का कहना है कि जो सड़कें देहात की सुहूलत के लिए अस्तित्व में आईं, वे ही गाँव से लोगों के पलायन का भी कारण बन गई हैं:

‘दर्द’ जब से गांव में सड़कें बनीं
किस क़दर गाँवों से हिजरत बढ़ गई

समाज में अँधेरा फ़ैलाने वाली ताक़तों से शाइर कितनी शाइस्तगी से पूछता है :

क्या उजाले तुम्हें नहीं भाते
फिर दीया क्यों बुझा दिया तुमने

शाइर की तो मंशा है :

लगें ठोकरें फिर न यारो किसी को
दीया राह में हम चलो इक जला दें

इंसानी नकारात्मक ताक़तों के अलावा कभी-कभी कुदरत भी अपने बंदों पर ऐसा क़हर ढाती है कि शाइर को कहना पड़ता है :

इस क़दर नाज़िल बला-ए-आसमानी हो गई
ज़िंदगी अपनी दुखों की……राजधानी हो गई

शाइर जहां लोगों पर भरोसा करने में सादा-दिल है, वहीं लोगों के इरादों को भाँप लेने की सलाहीयत भी रखता है :

आप से कीं चार बातें इस लिए भी
आपको हमने ज़रा देखा अलग है

क्यों दुहाई दे रहे हो दोस्ती की
साफ़ कह दो आपको रहना अलग है

शाइर का लहजा तीखा है, मगर नुक़सानदेह कत्ई नहीं है। इस लिए उसके लहजे के तीखेपन से घबराने वालों से उसका कहना है :

क्यों इतना घबराते हो
लहजा है, तलवार नहीं

शाइर का मानना है कि समाज में लोगों को एक-दूसरे की परवाह होनी चाहिए। जहां वैसा नहीं है, वहाँ की तस्वीर कुछ यूँ बयान की गई है :

किसी को फ़िक्र कब है अब किसी की
बुरे दिन आ गए लो ज़िंदगी के

शाइर पर जो बात फ़र्ज़ है, वह यह है कि वह रात को दिन नहीं बताएगा – – झूठ की पैरवी न करने का अंजाम चाहे कुछ भी क्यों न हो :

झूठ की हम पैरवी करते नहीं हैं
इस लिए उनके लिए अच्छे नहीं हैं

उक्त सभी तरह की बातें शाइर इस लिए कर पाया है क्योंकि उसका दिल धड़कता है। प्यार के जज़्बे से धड़कने वाला दिल बहुत हस्सास हुआ करता है। उस से किसी का भी दुख-दर्द सहन नहीं होता है, वह तड़प उठता है। प्यार के जज़्बे और दर्द के एहसास से ही तो शाइरी फ़रोग़ पाती है :

नींद में आए वो क्या कल रात को
ख़्वाब में पाक़ीज़गी महसूस की

ज़िंदगी कर दी हवाले दर्द के
दर्द में ही शाइरी महसूस की

प्रेम साहिल
06 अक्तूबर, 2023

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