
उर्दू शायरी यूं ही सामईन के दिल को नहीं छू लेती। उसका जादू ही ऐसा है कि हर कोई उर्दू के शायरों के शेर गुनगुनाने को मजबूर हो जाता है। इस लेख में पांच बेहतरीन शायरों का जिक्र है, जिनकी पढ़कर आप उनके मुरीद हो जाओगे। तो पेश है इन शायरों के कलाम।
मोहब्बत के शायर हैं जिगर मुरादाबादी
निदा फ़ाज़ली ने जिगर मुरादाबादी को मोहब्बत का शायर क़रार दिया है। बक़ौल निदा वह मिज़ाज से आशिक़ और तबियत से हुस्नपरस्त थे। ऐसे में उनकी नज़्मों में मोहब्बत का मचलना स्वाभाविक है। उनकी आशिक़ाना ज़िंदगी की शुरुआत छह साल की उम्र में होती है। उनकी मोहब्बत का आलम यह था कि वह एक कश्मीरी भिखारिन की आंखों से उसके सौंदर्य को देखकर ऐसे मुग्ध होते थे कि घर में जितना पैसा और अनाज होता है, सब उसके हवाले कर देते।
ज़िगर के बारे में निदा कहते हैं कि उन्होंने मोहब्बत के ज़रिए आग के दरिया में अपने वजूद को इस तरह जलाया कि वह अपने जीवन काल में ही इश्क की तहज़ीब का मिसाली प्रतीक बन गए। जिगर ने मोहब्बत को आसान काम नहीं माना है। उसकी तुलना आग के दरिये से की है। जिगर की मोहब्बत को इस ग़ज़ल में देखिए…
इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फ़ैले तो ज़माना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हंसने को ज़माना है
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उन का, ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है, मरने का ज़माना है
अश्क़ों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की, ठोकर में ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था, आज अपना ज़माना है
मोहब्बत में दर्द होता है ये बशीर साहब बताते हैं…
बशीर बद्र की नज़्मों में मोहब्बत का दर्द समाया हुआ है। उनकी शायरी का एक-एक लफ़्ज़ इसका गवाह है। बद्र साहब अपनी ग़ज़लों में मोहब्बत के इज़हार में परंपरागत प्रतीकों का इस्तेमाल कम और ज़िंदगी के अनुभवों, रूपकों और प्रतीकों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं।
रौशनी के लिए जलते रहने की अनिवार्यता भी उनकी मोहब्बत की पहचान का एक रंग है। इश्क़ और वफ़ा के ऐसे ही अशआर के बीच वे ज़िंदगी की सही तस्वीर भी दिखाते जाते हैं। मोहब्बत उनकी नज़्मों में लिपटी हुई है। उन्होंने लिखा है, एक दिन तुझसे मिलने ज़रूर आऊंगा, जिंदगी मुझको तेरा पता चाहिए। उन्हीं के एक शेर मोहब्बत की मजबूरियों और धुन को समझिए…
होठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते
पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आंखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते
दिल उजड़ी हुई इक सराये की तरह है
अब लोग यहाँ रात जगाने नहीं आते
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
इस शहर के बादल तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते
अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गये हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते
एक और ग़ज़ल देखिए…
कभी तो आसमा से चांद उतरे जाम हो जाए
तुम्हारे नाम की एक खूबसूरत शाम हो जाए
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आंखें जलें, जब शाम हो जाए
मैं ख़ुद भी अहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूं
कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए
अजब हालात थे, यूं दिल का सौदा हो गया आख़िर
मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए
समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए
मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहां होगा
परिंदा आस्मां छूने में जब नाकाम हो जाए
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़- मोहब्बत को बदलते दौर में परखने की नज़र
फ़ैज ने शुरुआत में शायरी के जरिए एक बेफ़िक्र ख़ुशहाल और हुस्न-ओ-इश्क़ की मधुर कल्पनाओं मे डूबे हुए कॉलेजिएट के मन को टटोला लेकिन बदलते दौर में मोहब्बत के बदलते स्वरूप पर भी बहुत कुछ लिखा है।
उनकी नज़्म है मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग, जिसमें वह मोहब्बत के बदलने का इक़रार करते हैं। वह यह भी लिखते हैं कि और भी ग़म है जमाने में मुहब्बत के सिवा। उनकी नज़र में पहले प्रेम ही सब कुछ था लेकिन आज के मशीनी युग में प्रेम व प्रेमिका भी कुछ है, सब कुछ नहीं।
इस ग़ज़ल में यह बानगी देखिए…
दोनों जहान तेरी मोहब्बत मे हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीरां है मयकदः ख़ुमो-सागर उदास हैं
तुम क्या गये कि रूठ गए दिन बहार के
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज ’फ़ैज़’
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दःकार के
एक और गजल पर गौर फरमाइए…
राज़े-उल्फ़त छुपा के देख लिया
राज़े-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया
वो मिरे हो के भी मेरे न हुए
उनको अपना बना के देख लिया
आज उनकी नज़र में कुछ हमने
सबकी नज़रें बचा के देख लिया
‘फ़ैज़’ तक़्मील-ए-ग़म भी हो न सकी
इश्क़ को आज़मा के देख लिया
आस उस दर से टूटती ही नहीं
जा के देखा, न जा के देख लिया
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है…
अगर निदा की आंखों से दुनिया को देखा जाए तो वह एक शीशों का घर है जिसकी दीवारों में भी सूरतें नजर आती हैं। निदा का दुनिया से इतना गहरा लगाव उनकी मोहब्बत के प्रति सोच की एक बानगी कही जा सकती है। वह मोहब्बत को वक्त का तकाजा मानते हैं और मोहब्बत को शिद्दत से जीने का अपने जिगर में माद्दा भी रखते हैं। उनकी नजर में मोहब्बत जिंदगी को समझने और जानने का सबसे नायाब तरीका है।
मोहब्बत को निदा ज़िंदगी की पाठशाला के रूप में देखते हैं, इस ग़ज़ल में उन्होंने महबूब और मोहब्बत दोनों पर बहुत खुलकर बात की।
होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है
उनसे नज़रें क्या मिलीं रोशन फ़िज़ाएं हो गईं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है
खुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी
झुकती आंखों ने बताया मैकशी क्या चीज़ है
हम लबों से कह न पाए उनसे हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है
शहरयार- मोहब्बत का एक नायाब दोस्त
शहरयार की ग़ज़लों में मोहब्बत एक ज़िम्मेदारी है। उनका नाम दोस्ती और शाइस्तगी दोनों ही शोबों में मिसाल के तौर पर लिया जाता है। शहरयार ने मोहब्बत को यथार्थ की नज़र से देखा और काल्पनिक सृजन संसार की बजाए दुनिया की असलियत को ग़ज़ल के लिए चुना। मोहब्बत उनके लिए एक हिम्मत है। इबादत है। उम्मीद है। महज़ कल्पना नहीं। ज़िंदगी में अकेलापन उनको सालता रहा, लेकिन अपनी बेक़रारी और ज़िम्मेदारी के बीच वह मोहब्बत को एक सहारा समझ हमेशा आगे बढ़ते रहे।
बेताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हमको
बेताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हमको
आवारा हैं और दश्त का सौदा नहीं हमको
ग़ैरों की मोहब्बत पे यक़ीं आने लगा है
यारों से अगरचे कोई शिकवा नहीं हमको
नैरंगिए-दिल है कि तग़ाफुल का करिश्मा
क्या बात है जो मेरी तमन्ना नहीं हमको
या तेरे अलावा भी किसी शै की तलब है
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हमको
या तुम भी मदावाए-अलम कर नहीं सकते
या चारागरो फ़िक्रे-मुदावा नहीं हमको
यूं बरहमिए-काकुले-इमरोज से खुश हैं
जैसे कि ख़्याले-रुख़े-फ़र्दा नहीं हमको
उन्हीं की एक और ग़ज़ल देखिए….
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चांद से बेहतर नज़र आती है हमें
सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूं तेरी आवाज़ बुलाती है हमें
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूं है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें
(साभार अमर उजाला काव्य डेस्क)