पुस्तक समीक्षासाहित्य

व्याकरण बंधन नहीं अनुशासन है

प्रसिद्ध शायर डा. कृष्ण कुमार नाज़ की पुस्तक 'काफिया' की समीक्षा

साहित्य की हर विधा की भाँति ग़ज़ल लेखन के भी अपने तौर-तरीके हैं। ग़ज़ल की बनावट और बुनावट के लिए दो अनिवार्य पक्ष हैं – पहला भाव पक्ष और दूसरा कला पक्ष। साहित्य सृजन के वक़्त इनमें से किसी भी एक पक्ष का गौण होना, या कमज़ोर होना हमारी रचना को कुछ भी बना सकता है लेकिन ग़ज़ल नहीं।

ग़ज़ल की गेयता और रवानी को बरकरार रखने के लिए सिर्फ़ बह्र की जानकारी काफ़ी नहीं है। इसके साथ-साथ और भी कई कारक हैं जिनसे परिचित होना बेहद आवश्यक है। रदीफ़ और क़ाफ़िया भी इन्हीं कारकों में से है। और ये कारक ग़ज़ल लेखन प्रक्रिया के बाधक या बंधन नहीं, बल्कि अनुशासन हैं। मुझ जैसे नये ग़ज़लकार अक्सर क़ाफ़िया की दुरूहता में फँस जाते हैं। मैं मानता हूँ कि गलतियों को स्वीकार कर उसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।

विदित हो कि डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ हिन्दी-उर्दू ग़ज़ल के उस्ताद शायरों में से हैं। समकालीन ग़ज़ल के विकास और विस्तार के लिए सदैव तत्पर रहने वाले डॉ. नाज़ की सद्य प्रकाशित पुस्तक “क़ाफ़िया” (नये दृष्टिकोण के साथ तुकांत का प्रयोग) इन दिनों ख़ूब चर्चा में है। पुस्तक में क़ाफ़िया संबंधी सूक्ष्म एवं सामान्य दोषों की सोदाहरण चर्चाएं हुई हैं।
पुस्तक में क़ाफ़िया की महत्ता पर स्वयं लेखक का यह कथन अति महत्वपूर्ण है -“क़ाफ़िया यानी तुकांत, ग़ज़ल का महत्वपूर्ण अंग है। यह केवल शब्दों की भरपाई नहीं, बल्कि ध्वनि और लय की गति को साधने वाले अक्षर या अक्षर-समूह का नाम है।”
बेशक वर्तमान साहित्य में निरंतर ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। जिसका पूरा श्रेय समकालीन ग़ज़लकारों को जाता है। लेकिन गंभीरता से विचार करें तो यह विकट सवाल हमारे सामने खड़ा मिलेगा कि क्या ये लोकप्रियता आने वाले समय में भी कायम रहेगी, क्या ग़ज़ल को अपना वांछित मुकाम हासिल हो सकेगा?
निःसंदेह ज़वाब दे पाना मुश्किल होगा। और मुश्किल इसलिए होगा कि ज़्यादातर स्थापित ग़ज़लकारों का ध्यान केवल अपनी ग़ज़लों पर है तथा अपने ग़ज़ल संग्रहों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना ही उनका एक मात्र ध्येय है। लेकिन डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ उन चुनिंदा आचार्य ग़ज़लकारों में से हैं जिन्हें वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की भी चिंता है। अर्थात डॉ. नाज़ अपनी नई पौध को सिंचने का काम करते हुए नज़र आते हैं। नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करना, उन्हें स्वस्थ ग़ज़ल लेखन-परंपरा से जोड़ना तथा ग़ज़ल की बारीकीयों से अवगत कराना ही इन्हें आचार्य ग़ज़लकारों की श्रेणी में स्थान दिलाता है।
डॉ. नाज़ की गुरु-शिष्य परम्परा में कई नामचीन ग़ज़लकारों का नाम जुड़ता है। इनके शिष्य देश- विदेश तक अपनी ग़ज़लों की अमिट छाप छोड़ने में सफल हो रहे हैं।
विदित हो कि इससे पहले भी डॉ. नाज़ “व्याकरण ग़ज़ल का” नामक पुस्तक की रचना कर चुके हैं। जो नये ग़ज़लकारों के लिए संजीवनी समान है।
कुल मिलाकर कहें तो डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ का संपूर्ण जीवन ग़ज़ल को समर्पित है। ग़ज़ल की दशा और दिशा को लेकर इनके प्रयास दूरगामी हैं। यह पुस्तक निःसंदेह नये ग़ज़लकारों का मार्गदर्शन करेगी। इस पुस्तक की भाषा अन्य व्याकरण-ग्रंथों की तरह दुरूह न होकर बेहद सरल व सहज है जो इसे और भी ज़्यादा बोधगम्य और पठनीय बनाता है।
बतौर नये ग़ज़लकार मैं इस विशेष सृजन हेतु डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’ जी के प्रति आभार प्रटक करता हूँ तथा अशेष बधाई प्रेषित करता हूँ।

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पुस्तक : क़ाफ़िया (नये दृष्टिकोण के साथ तुकांत का प्रयोग)
लेखक : डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’
विधा : व्याकरण
समीक्षक : अविनाश भारती
प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद
पृष्ठ सं. : 72
मूल्य : ₹ 125/-

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