
दिनेश कुकरेती
देहरादून: उत्तराखंड हिमालय में स्थित शैव संप्रदाय के शिव को समर्पित पांच मंदिरों के समूह को पंच केदार कहा गया है। हालांकि, यहां बाबा केदार के पांच नहीं, चौदह मंदिर हैं। इसके अलावा नेपाल में स्थित पशुपतिनाथ मंदिर को भी बाबा केदार के ही मंदिर की मान्यता है। पंच केदार के बारे में कहा जाता है कि इन सभी मंदिरों को पांडवों के वंशजों ने बनवाया था, जो गढ़वाल में काफी ऊंचाई पर स्थित हैं। इनमें से चार तीर्थ केदारनाथ, द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, तृतीय केदार तुंगनाथ व चतुर्थ केदार रुद्रनाथ तो सिर्फ ग्रीष्मकाल में ही दर्शन के लिए खुलते है। शीतकाल में केदारनाथ व मध्यमेश्वर की पूजा ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ, तुंगनाथ की पूजा मार्कंडेय मंदिर मक्कूमठ और रुद्रनाथ की पूजा गोपीनाथ मंदिर गोपेश्वर में होती है। पंचम केदार कल्पेश्वर ही एकमात्र धाम है, जो बारहों महीने श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है। इन पांचों धाम में केदारनाथ मुख्य मंदिर है, जो हिमालय के प्रसिद्ध छोटे चार धामों बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री में से एक है। केदारनाथ, द्वितीय केदार मध्यमेश्वर व तृतीय केदार तुंगनाथ रुद्रप्रयाग जिले और चतुर्थ केदार रुद्रनाथ व पंचम केदार कल्पेश्वर चमोली जिले में हैं। केदारनाथ देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में भी शामिल है। कथा आती है कि महाभारत युद्ध के बाद पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। सो, भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भगवान शिव का आशीर्वाद लेने की सलाह दी। इसके लिए पांडव भगवान शिव की नगरी काशी पहुंचे। लेकिन, भगवान पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए हिमालय में गुप्तकाशी आकर छिप गए। पांडव यह जान चुके थे, इसलिए भगवान उनके गुप्तकाशी पहुंचने से पहले ही केदारनाथ पहुंच गए और बृषभ (बैल) का रूप धारण कर अन्य पशुओं के बीच चले गए। पांडवों को संदेह हुआ तो भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ियों पर पैर फैला दिए। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, लेकिन बैल रूपी शिव पैरों के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बैल पर झपटे तो बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। शिव पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प से प्रसन्न हुए और दर्शन देकर उन्हें पाप मुक्त कर दिया। तभी से भगवान बैल की पीठ की आकृति यानी पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि अंतर्ध्यान होते समय भगवान के धड़ से ऊपर का हिस्सा काठमांडू (नेपाल) में प्रकट हुआ और वह पशुपतिनाथ कहलाए। शिव की भुजाएं तृतीय केदार तुंगनाथ, मुख चतुर्थ केदार रुद्रनाथ, नाभि द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, पृष्ठ भाग यानी पीठ प्रथम केदार केदारनाथ और जटा पंचम केदार कल्पेश्वर में प्रकट हुई। …तो आइए! आपको पंच केदार के साथ पशुपतिनाथ और अन्य आठ केदार के भी दर्शन कराएं। इन आठ में से एकाध को छोड़कर बाकी के बारे में आपको जानकारी तक नहीं होगी।

समुद्रतल से 11657 फीट की ऊंचाई पर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में भी स्थान रखता है। केदारनाथ धाम में भगवान शिव के बैल रूप में पृष्ठ भाग के दर्शन होते हैं। यहां गर्भगृह में भगवान का विग्रह त्रिकोणात्मक स्वरूप में विराजमान है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली के केदारनाथ मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसका निर्माण पांडवों के वंशज जन्मेजय ने करवाया था, जबकि आदि शंकराचार्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। मंदिर की विशेषता यह है कि वर्ष 2013 की भीषण आपदा में भी उसे आंच तक नहीं पहुंची।

द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का धाम रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से 11470 फीट की ऊंचाई पर चौखंभा शिखर की तलहटी में स्थित है। यहां बैल रूप में भगवान शिव के मध्य भाग के दर्शन होते हैं। दक्षिण भारत के शैव (लिंगायत) पुजारी केदारनाथ की तरह यहां भी पूजा करते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता है कि यहां के जल की कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए पर्याप्त हैं। शीतकाल में छह माह यहां भी कपाट बंद रहते हैं।

तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ का धाम भारत का सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर है। समुद्रतल से 12073 फीट की ऊंचाई पर रुद्रप्रयाग जिले में स्थित इस धाम में बैल रूपी शिव का धड़ प्रतिष्ठित है। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से उत्तराखंड शैली में निर्मित यह मंदिर बेहद रमणीक स्थल पर स्थित है। कथा है कि भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए पांडवों ने यहां उनकी आराधना की थी। वर्तमान मंदिर को एक हजार वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है। मक्कूमठ के मैठाणी ब्राह्मण यहां के पुजारी होते हैं। शीतकाल में यहां भी छह माह के लिए कपाट बंद रहते हैं। तब मक्कूमठ में भगवान तुंगनाथ की पूजा होती है।

चतुर्थ केदार के रूप में भगवान रुद्रनाथ जगप्रसिद्ध हैं। चमोली जिले में समुद्रतल से 11808 फीट की ऊंचाई पर यह मंदिर बुग्यालों के बीच एक गुफा में स्थित है। यहां भगवान शिव के मुख दर्शन होते हैं। भारत में यह अकेला स्थान है, जहां भगवान शिव के मुख की पूजा होती है। एकानन के रूप में रुद्रनाथ, चतुरानन के रूप में पशुपतिनाथ नेपाल और पंचानन विग्रह के रूप में इंडोनेशिया में भगवान शिव के मुख दर्शन होते हैं। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दुमुक गांव से गुजरता है, लेकिन बेहद दुर्गम होने के कारण श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं। सो, ज्यादातर श्रद्धालु गोपेश्वर के निकट सगर गांव से रुद्रनाथ जाते हैं। शीतकाल में कपाट बंद होने पर भगवान रुद्रनाथ की पूजा गोपेश्वर में होती है।

पंचम केदार के रूप में कल्पेश्वर धाम विख्यात है। समुद्रतल से 2134 मीटर की ऊंचाई पर चमोली जिले में स्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए दस किमी का सफर पैदल तय करना पड़ता है। कल्पेश्वर धाम को कल्पनाथ नाम से भी जाना जाता है। यहां सालभर भगवान शिव के जटा रूप में दर्शन होते हैं। कहते हैं कि इस स्थल पर दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे घोर तप किया था। तभी से यह स्थान कल्पेश्वर या ‘कल्पनाथ’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। अन्य कथा के अनुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में नारायण स्तुति की और भगवान शिव के दर्शन कर अभय का वरदान प्राप्त किया था। मंदिर के गर्भगृह का रास्ता एक गुफा से होकर जाता है।

टिहरी जिले में समुद्रतल से 4400 फीट की ऊंचाई पर स्थित बूढ़ा केदार (वृद्ध केदारेश्वर) धाम हालांकि पंचकेदार समूह का हिस्सा नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक-पौराणिक दृष्टि से इसका महत्व भी पंचकेदार सरीखा ही है। वृद्ध केदारेश्वर की चर्चा स्कंद पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में हुई है। मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने को पांडव इसी मार्ग से स्वर्गारोहिणी की यात्रा पर गए थे। यहीं बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर भगवान शिव ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में पांडवों को दर्शन दिए और बूढ़ा केदारनाथ कहलाए। बूढ़ा केदार मंदिर के गर्भगृह में विशाल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शिव की मूर्ति और लिंग विराजमान है। इतना बड़ा शिवलिंग शायद ही देश के किसी मंदिर में हो। इस पर उभरी पांडवों की मूर्ति आज भी रहस्य बनी हुई है। बगल में ही भू-शक्ति, आकाश शक्ति और पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। बूढ़ा केदार मंदिर के पुजारी नाथ जाति के राजपूत होते हैं। वह भी, जिनके कान छिदे हों।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से तीन किमी उत्तर-पश्चिम में बागमती नदी के किनारे देवपाटन गांव में स्थित है। पशुपतिनाथ दरअसल चार मुखों वाला लिंग हैं। पूर्व दिशा की ओर वाले मुख को तत्पुरुष, पश्चिम दिशा वाले मुख को सद्ज्योत, उत्तर दिशा वाले को वामवेद और दक्षिण दिशा वाले मुख को अघोरा कहते हैं। इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में करवाया था। लेकिन, उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेज 13वीं सदी के ही हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ और इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया। यह मंदिर यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में भी शामिल है। 15वीं सदी के राजा प्रताप मल्ल से शुरू हुई परंपरा है कि मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत से आते हैं। मान्यता है कि जब बैल रूप में भगवान शिव केदारेश्वर में अंतर्ध्यान हुए तो उनका मुख नेपाल में प्रकट हुआ। यहां वे पशुपतिनाथ कहलाए।

कोटद्वार-श्रीनगर मोटर मार्ग पर खंडाह के पास मंजुमती नदी के किनारे खांडव मुनि ने तप किया था। तब से इसका नाम खांडव नदी पड़ा। महाभारत आदिपर्व के अध्याय-95 व वनपर्व के अध्याय-90 में उल्लेख है कि राजर्षि ययाति और महर्षि भृगु ने खांडव व अलकनंदा नदी के संगम शिवप्रयाग पर पूर्व काल में तप किया था। इसी के ठीक विपरीत अलकनंदा नदी के दायें किनारे, जहां ढुंढि ऋषि ने तप किया, उसे ढुंढि प्रयाग कहा जाता है। इसके उत्तर की ओर का पर्वत इंद्रकील पर्वत है। शिवप्रयाग में शिव माया से निर्मित मृग के वध के लिए अर्जुन और किरात रूपी शिव के बीच घनघोर युद्ध हुआ और अर्जुन को परास्त होना पड़ा। तब अर्जुन ने यहां शिवलिंग की स्थापना कर बिल्व पत्र व कमल माल्य से शिव की आराधना की। इसलिए यहां स्थापित शिवलिंग बिल्व केदार नाम से प्रसिद्ध हुआ। बिल्व केदार महादेव का यहां प्राचीन मंदिर है।

केदारघाटी के अगस्त्यमुनि विकासखंड में एक मंदिर ऐसा भी है, जहां भूमिगत शिवलिंग की पूजा होती है। मान्यता है कि भगवान शिव ने यहां पर एक रात बासा (विश्राम ) किया था, सो कालांतर में इस स्थान को बसु केदार नाम से जाना गया। कथा है कि इस मंदिर का निर्माण 1600 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने कराया था। यह कत्यूरी शैली मे निर्मित आठ छोटे-बड़े मंदिरों का समूह है। मुख्य मंदिर शिव के केदार स्वरूप को समर्पित है। यह भी मान्यता है कि बसु केदार मंदिर के नीचे पानी भरा हुआ है और इस पानी के नीचे एक गुप्त शिवलिंग है। इसका उल्लेख ‘स्कंद पुराण’ के केदारखंड में भी मिलता है। बसु केदार पहुंचने के तीन मार्ग हैं। पहला रुद्रप्रयाग से विजयनगर-डडोली होते हुए बसुकेदार पहुंचता है। इससे 40 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। दूसरा मार्ग रुद्रप्रयाग से बांसवाड़ा-बष्टी होते हुए बसु केदार पहुंचता है, जो कुल 42 किमी है, जबकि तीसरा रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी-मयाली होते हुए है। इस मार्ग से 67 किमी का सफ़र करना पड़ता है। बसु केदार क्षेत्र में उतरने के बाद सड़क से 200 मीटर पैदल चलकर मंदिर पहुंचा जाता है।

उत्तरकाशी नगर से 75 किमी दूर गंगोत्री राजमार्ग पर धराली गांव में सड़क से करीब 50 मीटर की दूरी पर स्थित है कल्प केदार मंदिर। वर्ष 1945 में स्थानीय लोगों को भागीरथी नदी के तट पर मंदिर का एक शिखर नजर आया। इसके बाद वहां करीब 12 फ़ीट खुदाई कर मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाने का रास्ता बनाया गया। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के पुनरुत्थान को यहां भी मंदिर समूह स्थापित किए थे। इस समूह में 240 मंदिर थे, जो 19वीं सदी की शुरुआत में श्रीकंठ पर्वत से निकलने वाली खीर गंगा नदी में आई बाढ़ के मलबे में दब गए। वर्ष 1816 में भागीरथी के उद्गम की खोज में निकले अंग्रेज यात्री जेम्स विलियम फ्रेजर ने अपने वृत्तांत में धराली में मंदिरों में विश्राम करने का उल्लेख किया है। फिर वर्ष 1869 में गोमुख तक पहुंचे अंग्रेज फोटोग्राफर एवं खोजकर्ता सैमुअल ब्राउन ने धराली में तीन प्राचीन मंदिरों की फोटो भी खींची, जो पुरातत्व विभाग के पास सुरक्षित हैं। कल्प केदार मंदिर कत्यूर शिखर शैली का मंदिर है। इसका गर्भगृह प्रवेश द्वार से करीब सात मीटर नीचे है। इसमें भगवान शिव की सफेद रंग की स्फटिक की मूर्ति रखी है। मंदिर के बाहर शेर, नंदी, शिवलिंग और घड़े की आकृति समेत पत्थरों पर उकेरी गई नक्काशी की गई है। यह बताना भी समीचीन होगा कि भागीरथी और खीरगंगा नदी के संगम पर स्थित धराली क़स्बे का प्राचीन नाम श्यामप्रयाग भी है। इसका उल्लेख स्कंद पुराण के केदारखंड में भी हुआ है।

रामनगर से 101 किमी और रानीखेत से 67 किमी दूर रामनगर-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर रामगंगा नदी के किनारे उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के केदार गांव में स्थित है पौराणिक वृद्ध केदार मंदिर। चंद वंशीय राजा रुद्र चंद ने राष्ट्रीय शाके 1490 (1568 ईस्वी) में इस मंदिर को भव्य स्वरूप प्रदान किया था। माना जाता है कि युद्ध के दौरान राजा रुद्र चंद जब एक रात इस स्थान पर ठहरे तो भगवान शिव ने उन्हें सपने में इस स्थान पर मंदिर बनाने का आदेश दिया। मंदिर निर्माण के बाद राजा की हारती हुई सेना ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। वृद्ध केदार मंदिर को भगवान केदारनाथ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। कुमाऊं में यह मंदिर बूढ़ा केदार के नाम से प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख स्कंद पुराण के मानस खंड में भी हुआ है। मंदिर में मौजूद ताम्रपत्र के अनुसार मंदिर स्थापना के बाद राजा रुद्र चंद ने पुजारी के लिए पौड़ी जिले के डुंगरी गांव से ब्राह्मण जाति के कुछ लोगों को यहां लाकर बसाया। मूलरूप से डुंगरी गांव के होने के कारण ये पुजारी डुंगरियाल कहलाए। मंदिर सरपंच के लिए मनराल जाति के लोगों को नियुक्त किया गया। यहां विशाल शिलाखंड की भगवान शिव के धड़ के रूप में पूजा होती है। इस क्षेत्र के श्रद्धालु उत्तराखंड के चारधाम की यात्रा पर जाने से पहले वृद्ध केदार मंदिर में दर्शन अवश्य करते हैं। वृद्ध केदार मंदिर को महातीर्थ माना जाता है, क्योंकि यहां रामगंगा व विनोद नदी ( बिनो नदी) का संगम है, जो त्रिवेणी संगम नाम से प्रसिद्ध है।

भू-वैकुंठ बदरीनाथ धाम में भी आदि केदारेश्वर के रूप में बाबा केदार निवास करते हैं। ‘स्कंद पुराण’ के ‘केदारखंड’ में प्रसंग आता है कि बदरीनाथ पहले भगवान शिव का ही धाम था, लेकिन भगवान नारायण के यहां विराजमान होने से भगवान शिव केदारपुरी चले गए। हालांकि, आदि केदारेश्वर के रूप में आज भी वह बदरीनाथ धाम में दर्शन देते हैं। बदरीनाथ धाम में भगवान नारायण के दर्शन से पूर्व भगवान आदि केदारेश्वर के दर्शन का विधान है। ‘केदारखंड’ में उल्लेख है कि जो यात्री केदारनाथ नहीं जा सकते, वे बदरीनाथ में ही बाबा केदार के दर्शन कर सकते हैं। बदरीनाथ और आदि केदारेश्वर मंदिर के कपाट एक ही दिन खुलते हैं और बदरीनाथ के कपाट बंद होने से तीन दिन पूर्व आदि केदारेश्वर के कपाट बंद हो जाते हैं। कथा है कि भगवान शिव माता पार्वती के साथ हमेशा नीलकंठ क्षेत्र व बामणी गांव के आसपास विचरण करते रहते थे। एक दिन उन्हें वहां किसी बालक के रोने की आवाज सुनाई दी, जो एक चट्टान पर बैठा हुआ था। बालक को देख माता पार्वती का हृदय पसीज गया और वह भगवान से उसे अपने साथ ले जाने की जिद करने लगीं। भगवान शिव ने लाख मना किया, लेकिन माता नहीं मानीं। त्रिकालदर्शी शिव जानते थे की यह कोई साधारण बालक नहीं है, लेकिन माता पार्वती की जिद के आगे उन्हें विवश होना पड़ा। माता ने बदरीनाथ धाम स्थित तप्तकुंड में बालक को नहलाया और फिर स्वयं भी स्नान करने लगीं। इसी बीच बालक ने मौका देख बदरीनाथ मंदिर में प्रवेश कर अंदर से दरवाजा बंद कर दिया। मान्यता है कि भगवान विष्णु तिब्बत के थोलिंग मठ से बदरीनाथ पहुंचे थे और वहां शिव-पार्वती को देखकर बालक का रूप धारण कर लिया। बामणी गांव में जहां श्रीहरि ने बालक का रूप धरा, उस स्थान को आज ‘लीलाढुंगी’ कहते हैं। इस घटना के बाद भगवान शिव ने बदरीनाथ धाम को छोड़ दिया और ज्योतिर्लिंग के रूप में केदारनाथ धाम में विराजमान हो गए।

देहरादून जिले में जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर के लाखामंडल से सटे भटाड़ गांव में भी बाबा केदार का पांडवकालीन मंदिर है। अब ग्रमीणों ने यहां पौराणिक मंदिर के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ किए बिना नए भव्य मंदिर का निर्माण कर लिया है। मंदिर में हर साल छह अगस्त को नुणाई मेला लगता है। इसमें बाबा के दर्शनों को बोंदूर खत से जुड़े 24 गांवों के लोग जुटते हैं। यहां नौटियाल, थपलियाल व उनियाल जाति के करीब 20 परिवारों के सदस्य वंशानुगत परंपरा के अनुसार बारी-बारी पूजा-अर्चना करते हैं। मान्यता है कि पांडवकाल में भीमसेन ने बाबा केदार के मंदिर में भगवान शिव की आराधना कर शिवलिंग स्थापित किया था।

अल्मोड़ा जिले में भी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर स्थापित है। यह मंदिर अल्मोड़ा शहर से तकरीबन 35 किमी की दूरी पर विश्व विख्यात जागेश्वर धाम में है। केदारनाथ धाम में जिस तरह भगवान शिव रूपी वृषभ का पृष्ठ भाग यानी पीठ वाला हिस्सा देखने को मिलता है, ठीक ऐसे ही स्वरूप में वह जागेश्वर धाम में भी विराजमान हैं। यह स्वयंभू शिवलिंग है। कहते हैं कि केदारनाथ और जागेश्वर धाम एक ही हैं। आदि शंकराचार्य ने भी अपनी जागेश्वर धाम की यात्रा के दौरान माना था कि यहां पर साक्षात भोलेनाथ विराजमान हैं।