‘हर शह्र में दिखता है अपाहिज कानून’
रामअवध विश्वकर्मा की रुबाइयों की किताब' जदीद रुबाईयात' की समीक्षा

राम अवध विश्वकर्मा की हिन्दी और उर्दू दो भाषाओं में रचित किताब ‘जदीद रुबाईयात’ जैसे जदीद और बड़़े काम के लिए वह बधाई के हकदार हैं। ग़ज़ल की अपेक्षा रुबाई पर बहुत कम काम हुआ है, परन्तु विश्वकर्मा जी ने जिस तरह रुबाई पर काम किया है, वह उन्हें एक सिद्ध रचनाकार बनाता है। पुस्तक में संग्रहित रुबाइयों का जदीद होना ही इसकी प्रमुख विशेषता है। जदीद मतलब बिल्कुल नया होना है।
नए से मेरा आशय है, कि इनकी सोच नई है, इनके विचार नए हैं, इसकी दृष्टि नई है, इसका प्रस्तुतीकरण नया है। यह कहना ज्यादा सार्थक होगा कि इन रुबाइयों में समकालीनता है। पुस्तक को पढ़ते हुये महसूस करेंगे कि हमारे ही आस पास की बात है। हमारे अपने समाज को, हमारी आसपास की घटनाओं को, हमारी मानवीयता को, सामाजिक राजनैतिक चालाकियों को, भीतर बाहर के चेहरे के अन्तर को, यहाँ तक कि अनेक स्तर के दोहरेपन को राष्ट्र में उनकी धूर्तताओं को, हमारे सूक्ष्मव्यवहारों को इस पुस्तक की रुबाईयों में बहुत खूबसूरती से समाहित किया गया है।
सभी जानते हैं, कि विश्वकर्मा जी का स्वयं का भी और उनके भीतर के रचनाकार का भी स्वभाव हास्य व्यंग्य का ही है। आपने अपने इस स्वभाव को रुबाईयात में भी जीवित रखा है। इनमें भी प्रत्येक स्तर पर भाव भाषा छंद के स्तरीय होने के साथ साथ व्यंग्य की भी प्रमुखता है।
पुस्तक ‘जदीद रुबाईयात’ में रुबाई के व्याकरण पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है। पुस्तक में बताया गया है कि जिस प्रकार ग़ज़ल के मीटर को बहर कहा जाता है, उसी तरह रुबाई के मीटर को बहर नहीं औजान कहा जाता है जो कि वज्न का बहुबचन है। इसी तरह मुक्तक और रुबाई भी अलग-अलग होते हैं, जबकि दोनों में ही चार पक्तियां होती हैं।
पुस्तक का विशेष आकर्षण तो मुस्तजाद रुबाई है। यहाँ अरूज़ के साथ ही विश्वकर्मा जी मुस्तजाद रुबाई पर अपनी बात करते हुए इसे पूरी तरह स्पष्ट कर देते हैं। पुस्तक में रुबाई ग़ज़ल और रुबाई नज़्म के भी उदाहरण हैं।
इसी पुस्तक की एक रुबाई देखें –
कीचड़ में हमेशा रहे खिलकर भी कमल
वो जिन्दगी क्या जिसमें न हो रद्दोबदल
बदलाव के इस युग में कमल तू भी बदल
तक़दीर बदल अपनी तू कीचड़़ से निकल
एक रुबाई संस्कार , सुभाव पर देखें-
सूखे में सफीने भी चला करते हैं क्या
दरिया में भी तूफान उठा करते हैं क्या
अंगार उगलती हुई मिलती जो ज़ुबां
उससे भी कहीं फूल झरा करते हैं क्या
बेटियों पर होने वाले अत्याचार पर एक रुबाई देखें-
दिल्ली हो कि बीजिंग हो या हो रंगून
हर शह्र में दिखता है अपाहिज कानून
हैं आज भी बेकार यहाँ के हालात
सहती हैं सितम आज भी बेबस खातून
रुबाई के आखीर में यदि पहला और अंतिम रुक्न और जोड़़ दिया जाये तो मुस्तज़ाद रुबाई हो जाती है।
उदाहरण देखें –
क्या खूब सियासत का दिखे रंग यहां ,चुभते हैं सभी
तकरीर का रहबर का अजब ढंग यहां ,हम सबने सुनी
मछली तो बहुत खुश है, घड़ियाल के साथ रहने को चली
ऐलान ये सुनकर हैं सभी दंग यहां, है बात बड़ी
विश्वकर्मा जी ने प्रदूषण के दुष्प्रभाव को एक अन्य मुस्तजाद रुबाई के द्वारा बखूबी व्यक्त किया है-
बेकार है इस शह्र की जहरीली हवा, ये है क़ातिल
अब साँस भी लेना यहां दुश्वार हुआ, जीना मुश्किल
जब गाँव में रहते थे भले चंगे थे, खुश हम सब थे
अब शह्र में खाँसी है किसी को है दमा,मरते तिल तिल
किताब पठनीय है। रुबाइयां पाठक को अंत तक पढ़ने पर मजबूर करती हैं। उनकी व्यंग्य ग़ज़लों पर हाल ही में शोधार्थी को पी एच डी भी अवार्ड हो चुका है।
पुस्तक का नाम – जदीद रुबाईयात
प्रकाशक – मासूमा एण्ड कम्पनी 1590 ,रोदग्रान
लालकुंआ दिल्ली – 6
मूल्य – 199/- पृष्ठ 140
ग़ज़लकार – राम अवध विश्कर्मा
मो. 9479328400
समीक्षक – सुधीर कुशवाह ग्वालियर