भगवान राम के अंतर्द्वंद्व पर अनूठा खंडकाव्य
डॉ. विनय कुमार सिंघल 'निश्छल' के खंडकाव्य 'राम का अंतर्द्वंद्व की समीक्षा'

‘राम का अंतर्द्वंद’ डॉ. विनय कुमार सिंघल ‘निश्छल’ द्वारा रचित एक लघु खंडकाव्य है। सबसे पहले प्रश्न उठता है कि इस काव्य -संग्रह को खंडकाव्य क्यों कहा गया है। इसके उत्तर में पहले यह स्पष्ट होना जरूरी है कि जहाँ महाकाव्य जीवन के अनेक पहलुओं को लेकर रचा गया विराट काव्य है, वहीं व्यक्ति के जीवन के विशेष पहलू को लेकर लिखा गया काव्य ‘खंडकाव्य’ कहलाता है। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि ‘राम का अंतर्द्वंद्व’ में राम की पूरी जीवनी नहीं अपितु उनके किसी विशेष भाग को लेकर लिखा गया है। यहाँ लेखक श्री राम के वनवास में बिताए गए काल में स्वयं के मन में उठे अनेक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए विवश हैं। लेखक ने अपने जीवन में श्री राम से संबंधित अनेक साहित्यिक रचनाएँ पढ़ी हैं व उनका रूपांतरण नाट्य शैली में भी देखा है। इन सभी अभिव्यक्तियों में श्री राम को प्रभु -रूप में स्थापित किया गया है। एक वर्ग श्री राम को प्रभु या ईश्वर न मानकर पुरूषोत्तम की श्रेणी में रखते हैं और उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ की पदवी से विभूषित करते हैं। अब हमें श्री राम के मन में उठे अंतर्द्वंद को एक मनुष्य के मन में उठे अंतर्द्वंद के समानान्तर समझने में आसानी होगी। अपने वनवास काल में भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण को दीन अवस्था में देख उन्हें समय-समय पर दुःख होता है और अंतर्द्वंद उत्पन्न होता है
” संग सिया का वन -वन पाया
अनुज रहा तब वाणी बनकर
राज महल तुम्हें मिल जाता
सीता रहती रानी बनकर”
“द्वंद का घन कभी न छाता
यदि मैं यूँ, वनवास में पता”
इस छन्द में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि सीता और लक्ष्मण को सुविधाविहीन अवस्था में देख श्री राम का हृदय किसी सामान्य पुरुष की ही भाँति विदीर्ण हो रहा है। दूसरी ओर उनका हृदय विकल हो रहा है कि यदि ये दोनों राजमहल में होते तो राजस्वी वैभव और सम्पन्नता का सुख उठा रहे होते।
इसी तरह के अनेक प्रश्न उनके सम्मुख आ खड़े होते हैं और वह उनका उत्तर भी निम्न शब्दों में स्वयं ही दे देते हैं ,
” घन का द्वंद्व , कभी न छाता
यदि मैं यूँ, वनवास न पाता”
अर्थात वनवास न मिलने पर उनका जीवन सरल एवं सुखी होता। अगर सीता, लक्ष्मण वहीं रहकर राज्य सम्भाल लेते तो वे राजा होने के नाते प्रजा के सभी सुखों का निवारण कर सकते थे और उनके सामने कोई द्वंद उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं था। लेकिन जब पिता के द्वारा दिए गए कैकई माता को दो वचन पूर्ण करने में उन्हें वनवास मिला तो पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए वह वनवास चले आए । वनवास और राजमहल दोनों की जीवन -शैली में जमीन -आसमान का अंतर है l इसके साथ ही उनके साथ लक्ष्मण और सीता भी चले आए हैं जिसके कारण उनके मन में अंतर्द्वंद उत्पन्न हो गया है । जैसे ही समय मिलता है विभिन्न बिंदुओं/ विषयों और कमियों पर उनका अंतर्द्वंद अपना शीश उठाकर खड़ा हो जाता है ।तब श्री राम अपने मन की दशा को अभिव्यक्त करते हैं ।उसी का वर्णन विनय कुमार सिंघल जी ने इस खंड काव्य में किया है ।
सीता और लक्ष्मण वन में साथ चले आए हैं और उनके सुविधा विहीन जीवन से तो श्री राम त्रस्त हैं ही लेकिन जिन्हें पीछे राजपाट दे आए हैं, एक सामान्य पुरुष की भाँति उनकी चिंता भी भय बनकर मस्तिष्क में छा रही है। एक दृष्टांत देखिए…
“मन के झंझावात हृदय को
विचलित तो करते ही होंगे
भरत लाड़ में पला बढ़ा है
क्या उसकी सब सुनते होंगे ”
इसका उत्तर भी वही उन्हीं शब्दों में दे रहे हैं..
” द्वंद का घन ,कभी न छाता
यदि मैं यूँ, वनवास न पाता
उनके इस लघु खंड -काव्य में इक्यावन छन्द हैं जो श्री राम के विभिन्न भावों/उद्गारों को अभिव्यक्त करते हैं। किसी भी सामान्य व्यक्ति की भाँति जीवन के प्रत्येक परिप्रेक्ष्य में लेखक ने अपनी कलम सुघड़तापूर्वक चलाई है और श्री राम के कर्त्तव्यनिष्ठ होने का पूरा प्रमाण दे उन्हें ‘मर्यादापुरुषोत्तम राम’ के पद से विभूषित करना हर दृष्टिकोण से उचित ठहराया है।
लेखक ने श्री राम के जीवन को एक नया आयाम देने का साहस किया है, जिसके लिए उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
डॉ. अलका शर्मा
पूर्व प्राचार्या, (शायरा, साहित्यकार, समीक्षक )
आदर्श महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
भिवानी , हरियाणा
मोबाइल. 92554 40980