‘दुनिया किसी गूंगे की कहानी नहीं लिखती’
उत्तराखंड भाषा संस्थान में सक्रिय 'गैंग' की जी-हजूरी करने वालों पर सवाल

लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: ‘मैं इसलिए जिंदा हूं कि मैं बोल रहा हूं।
दुनिया किसी गूंगे की कहानी नहीं लिखती।।’
सूरत के बुजुर्ग शायर वसीम मलिक का यह शेर उन लोगों को आइना दिखाता है, जो ग़लत बातों को भी नज़रंदाज़ कर रहे हैं। सही बात तो यह है कि यह चाटुकार भले ही जुगाड़बाजी करके पुरस्कार झटक लें, लेकिन इन्हें कोई याद नहीं करने वाला। याद तो कोई उन्हें भी नहीं रखेगा, जो उत्तराखंड भाषा संस्थान में सक्रिय ‘गैंग’ की जी-हजूरी में लगा है और पुरस्कार की आस में चुपचाप तमाशा देख रहा है।
उत्तराखंड भाषा संस्थान की ओर से हाल ही में वितरित साहित्य गौरव पुरस्कार में हुए कथित गड़बड़झाले को लेकर कुछ लोग खुलकर सामने आए हैं और अपनी बात रख रहे हैं, वहीं संस्थान में सक्रिय ‘गैंग’ से जुड़े कुछ लोग यह भी नोटिस कर रहे हैं कि सोशल मीडिया में चल रही पोस्ट का असर क्या हो रहा है। रेवड़ियों की तरह बंटे कुछ पुरस्कारों को लेकर चर्चा भी हो रही है। उनके काम पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। दो-दो बार पुरस्कृत हो चुके एक स्वनामधन्य साहित्यकार की तो सार्वजनिक गतिविधियां भी कम हो चुकी हैं। गैंग में सक्रिय सदस्य भी हो-हल्ला कम होने का इंतजार कर रहे हैं। बहरहाल, सोशल मीडिया में आई पोस्ट का इतना असर तो हुआ है कि कुछ लोग अपनी ‘भूमिका’ को लेकर सफाई देने लगे हैं।
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अब भाषा-बोली का विवाद
उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कारों में पारदर्शिता की चर्चा के बीच भाषा-बोली को लेकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं। उत्तराखंड में आमतौर पर गढ़वाली और कुमाऊंनी दो भाषाओं को ही मुख्य माना जाता है और बाकी सह भाषाएं मानी गई हैं। लेकिन, कुछ लोग 13 भाषाओं की भी बात करने लगे हैं। ऐसे में उत्तराखंड की दो मुख्य भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के प्रयासों को झटका लग रहा है। वैसे ही उत्तराखंड की युवा पीढ़ी अपनी बोली-भाषा को लेकर निष्क्रिय है और यदि ऐसा ही विवाद खड़ा किया गया तो दोनों भाषाओं का भी अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। ऐसे में ज़रूरी है कि एक मंच पर आकर दो मुख्य भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के प्रयास किए जाएं।