कंक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं तमाम शहर
जितेंद्र भाटिया की पुस्तक कंक्रीट के जंगल में गुम होते शहर की समीक्षा

ब्लैक आइबिस’ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित जितेंद्र भाटिया की किताब ‘कंक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ वास्तव में हमारे चारों ओर बढ़ते जा रहे कंक्रीट के जंगलों में धीरे-धीरे गुम होते पुराने शहरों से जुड़ी उनकी जिंदगी और उनके खत्म होते देखने की कहानी बयान करती है। खत्म हो रहे शहरों को देख कर अगर आपका दिल भी रोता है, तो यह किताब यकीनन आपके लिए भी है।
राष्ट्र या समाज की स्मृति इतिहास है और मनुष्य की स्मृति उसके संबंध, उसका परिवेश, अतीत हो चुका जीवन है, जो यकीनी तौर पर किसी शहर की आबो-हवा, दाना-पानी, गली-कूचों, लैलो-निहार से जुड़ा होता है।
1946 में जन्मे प्रतिनिधि कथाकार, अनुवादक और विचारक ‘जितेंद्र भाटिया’ की नसों में कलकत्ता आज भी बहता है. जिस शिद्दत और लगाव से जितेंद्र ने अपनी इस किताब में कलकत्ता के बारे में लिखा है, वह इस सच्चाई का बयान खुद है। भावनात्मक स्तर पर जितेंद्र इस किताब में खुद को बेपर्दा करते हैं और शहरों के साथ उनकी भावनाएं देखते बनती हैं।
जितेंद्र भाटिया की इस पुस्तक में पांच शहरों- चेन्नई, लाहौर, मुंबई, कोलकाता और जयपुर का ज़िक्र है, जिनमें लेखक अपनी 76 साल लंबी जिंदगी के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में रहे हैं और अब इन शहरों को धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगलों में गुम होते देख रहे हैं। वह चाहते हैं, कि इस किताब के बहाने इन शहरों से वाबस्ता अपनी ज़िंदगी को, इनकी स्मृतियों को खंगालने के बहाने बचा लिया जाए. साथ ही इन शहरों के इतिहास और उसकी पुरानी पहचान को भी, जो आने वाले समय में यकीनन या तो बदली शक्ल वाली हो जाएगी या फिर नेस्तनाबूद हो जाएगी. इसीलिए इन शहरों पर बात करते हुए उन्होंने इसमें बिताए अपने जिंदगी के बरस, अनुभव और यादों को तो लिखा ही है, साथ ही इन शहरों का इतिहास भी टटोला है।
जितेंद्र ने मेहनत और प्रामाणिकता के साथ इस किताब को लिखा है। उन्होंने किताब में शहर की तमाम कला, संस्कृति, और साहित्यिक गतिविधियों का ज़िक्र किया है जो उनसे पहले और फिर उनके सामने होती रहीं। इन पांच शहरों में उन्होंने कलकत्ता पर विस्तार से लिखा है और उसके हर पहलू को समेटा है। उनके बचपन और जवानी का ठीक-ठाक हिस्सा कलकत्ता में बीता है. ऐसे लोग कम ही होंगे जिन्होंने कलकत्ता में ज़िंदगी का कोई लम्हा जिया हो और उसे भूल गया हो। कलकत्ता के जादू से शायद ही दिल बचा है। कानपुर में भी उसका काला जादू मेलों, ठेलों पर हमेशा लिखा दिखता था. बेशक यह काला जादू वहां की स्त्रियों के सांवलेपन या नमक और काले केशों से ताल्लुक रखता है, पर जादू तो जादू ही है।
किताब का शीर्षक ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ ही किताब को पढ़ने के लिए अपनी ओर खींचता है. तेज़ी से बदलते दौर में कई ऐसे शहर हैं, जो धीरे-धीरे अपनी पहचान, अपना इतिहास और अपना पुराना वजूद खो रहे हैं। कंक्रीट के जंगल इन्हीं शहरों की पुरानी इमारतों, खंडहरों, गलियों, बाज़ारों, थियेटर, सिनेमाहाल को तेजी से निगल कर, प्लास्टिक के खिलौनों के घरों की तरह बेजान, करंग और बेहिस बना रहे हैं. दिल में घर बनाकर रहने वाले पुराने शहरों का आसमान तेज़ी से छोटा होता जा रहा है। इनकी नदियां सूख चुकी हैं और चांद तारे तो वहां अब दिखते ही नहीं।
एक ख़ास उद्देश्य और नया इतिहास गढ़ने के लिए शहरों का बदलना तकलीफदेह तो है, ही साथ ही आने वाली पीढ़ी को उस सच से दूर रखना भी है, जिसे पढ़ कर, समझ कर, महसूस कर और जी कर पिछली कई पीढ़ियां जवान हुई हैं। शहरों का वजूद मिटा कर किसको क्या मिलेगा, नहीं पता… लेकिन जो शहर अपना नाम खो देगा, वह फिर दोबारा नहीं लौटेगा… ठीक उसी तरह, जिस तरह मरा हुआ आदमी कभी वापिस नहीं लौटता और कुछ समय बाद उसकी स्मृति भी दम तोड़ देती है। एक दिन आता है, जब वह ज़िक्र से भी बाहर हो जाता है। मीर ने दिल्ली को बरबाद होते और उजड़ते हुए कई बार देखा था. हर बरबादी मीर के दिल पर चोट करती थी। नतीजे में मीर ने ‘दिल्ली की बरबादी’ को ‘दिल की बरबादी’ कह कर दम निकाल लेने वाले कई शेर कहे। सिवाय इस तरह कहने के, मीर दिल्ली की बरबादी के बारे में किससे कहते और क्यों कहते? यह भी एक ज़रूरी सवाल है।
गौरतलब है कि जितेंद्र भाटिया आईआईटी से केमिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी होने के साथ-साथ अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं. अब तक उनके छह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, दो नाटक, दो यात्रावृत्त और दो वैचारिक पुस्तकें ‘सदी के प्रश्न’ और ‘इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां’ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके द्वारा लिखित विश्व साहित्य की चर्चित शृंखला ‘सोचो साथ क्या जाएगा’ को चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है।
साभार रंजन त्रिपाठी