उत्तराखंड में मृतप्राय रंगमंच को जीवित करने की जरूरत: निवेदिता
उत्तराखंड में खासकर देहरादून की बात करें तो एक समय यहां रंगमंच का बोलबाला था। बहुत अच्छे रंगकर्मी यहां होते थे। लेकिन वक्त के साथ इन रंगकर्मियों को राज्य सरकार की तरफ से कोई प्रोत्साहन नहीं मिला, तो वह रंगमंच से अलग होते गए और रोजी-रोटी की तलाश में लग गए। ऐसे में नाटकों का सिलसिला खत्म होना ही था। संस्कृति विभाग को चाहिए कि वह रंगमंच को खत्म होने से रोकने के लिए पहल करे। रंगकर्मियों को आर्थिक सहायता दे, ताकि वह रंगमंच को जिंदा रख सकें

मेरी प्यारी बोई… कुछ याद आया.. नहीं… दरअसल यह वर्ष 2004 में बनी गढ़वाली फिल्म है। इस फिल्म में मुख्य किरदार निभाया था निवेदिता बौंठियाल ने। लेकिन निवेदिता का परिचय इतना भर नहीं है। निवेदिता मुंबई में रंगमंच की जानी-मानी हस्तियों में से एक हैं और वहां इप्टा (इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन) की उपाध्यक्ष हैं। वह पिछले 32 साल से रंगमंच, रेडियो और टेलीविजन से जुड़ी हैं। मुंबई में वह कई हिंदी धारावाहिक में काम कर चुकी हैं, हालांकि उनकी पहली पसंद थियेटर है, जिसके लिए वह समर्पित हैं। वह बरसों से मुंबई में रह रही हैं और रंगमंच के सिलसिले में उत्तराखंड आती-जाती रहती हैं। पिछले दिनों पौड़ी निवासी फिल्म निर्देशक मुकेश धस्माना की 20 साल पहले बनी गढ़वाली फिल्म ‘मेरी प्यारी बोई’ को डिजिटल फार्म में रिलांच करने की बात चली, तो निवेदिता भी देहरादून आईं। समय मिलने पर शब्दक्रांतिलाइव.काम के संवाददाता लक्ष्मी प्रसाद बडोनी ने गढ़वाली फिल्मों और रंगमंच के तमाम पहलुओं पर निवेदिता बौंठियाल के साथ विस्तार से चर्चा की। इस बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।
सवाल : आपका बचपन कैसा बीता और शिक्षा कहां तक हुई और पारिवारिक पृष्ठभूमि?
जवाब: मेरा बचपन देहरादून में बीता। पिताजी की नौकरी ओएनजीसी में थी, जबकि माता जी गृहिणी थी। और अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बाद बड़ोदरा से एमफिल किया। नौकरी करनी नहीं थी, तो रंगमंच पर करियर की तलाश शुरू की।
सवाल : रंगमंच और फिल्म से जुड़ाव कैसे हुआ?
जवाब: स्कूल के समय से ही नाटकों में अभिनय करने लगी थी। गीत गाने का भी शौक था। मेरी बहन प्रिया उनियाल भी गाती थी और माता जी की भी संगीत में रुचि थी। देहरादून में घर बन रहा था। मां घर का गेट बनवाने के लिए एक दुकान में गई, तो वहां प्रख्यात गायक (अब मरहूम) जीत सिंह नेगी जी से मुलाकात हो गई। मां ने हम दोनों बहनों को नेगी जी के पास संगीत सीखने के लिए भेज दिया। प्रिया तो गाने लगी, लेकिन मेरी रुचि नाटकों में थी और इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने की सोची। हालांकि परिवारवाले चाहते थे कि प्रतियोगी परीक्षा पास कर अधिकारी बनूं, लेकिन मेरी रुचि तो नाटकों में थी, इसलिए बात नहीं बनी।
सवाल: आपने अब तक कितने नाटकों और सीरियल में काम किया और मुंबई का अनुभव कैसा रहा?
जवाब: देहरादून में नाटकों में हिस्सा लेने के दौरान जाने-माने रंगकर्मी चंद्रमोहन बौंठियाल से मुलाकात हुई, तो उन्होंने नाटकों को लेकर और प्रोत्साहित किया। वर्ष 1990 में मुंबई गई, तो वहां इप्टा से जुड़ गई। इसी दौरान, चंद्रमोहन बौंठियाल से विवाह हो गया, तो मुंबई में अभिनय को लेकर गतिविधियां और बढ़ गई। मुंबई में एके हंगल जैसे बड़े-बड़े रंगकर्मियों को करीब से देखा और अभिनय की बारीकियां सीखीं। अंजन श्रीवास्तव, राकेश बेदी जैसे दिग्गजों के साथ टीवी धारावाहिक किए, जिसमें उनके काम को खासा पसन्द किया गया, लेकिन अपने राज्य उत्तराखंड के लिए कुछ काम करने की इच्छा थी, जिसका मौका नहीं मिल पा रहा था।
सवाल: गढ़वाली फिल्म ‘मेरी प्यारी बोई’ में काम करने का मौका कैसे मिला और अनुभव कैसा रहा?
जवाब: पौड़ी निवासी मुकेश धस्माना काफी पहले से मुंबई में थे और बड़े-बड़े फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों के साथ काम कर रहे थे। इसी दौरान उन्होंने गढ़वाली फिल्म ‘मेरी प्यारी बोई’ बनाने की सोची। बोई के मुख्य किरदार के रूप में मुझे चुना, लेकिन मैं इसके लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। मुकेश जी ने भरोसा जताया, तो राजी हो गई। वर्ष 2004 में ‘मेरी प्यारी बोई’ फिल्म बन गई और रिलीज भी कर दी गई, लेकिन उसके लिए उत्तराखंड में दर्शक ढूंढ़ना इतना आसान नहीं था, इसलिए फिर मुंबई चली गई। हालांकि उत्तराखंड आना-जाना लगा रहा।
सवाल: उत्तराखंड में नाटकों का क्या भविष्य है और आपकी क्या योजना है?
जवाब: दरअसल, मुंबई में व्यस्त रहते हुए भी हमेशा दिल में यह इच्छा रही कि अपने शहर देहरादून में रंगमंच से जुड़ूं। ऐसे में उत्तर नाट्य संस्थान के कार्यकारिणी सदस्य और प्रख्यात रंगकर्मी गजेंद्र वर्मा ने मेरे पास देहरादून में नाट्य कार्यशाला के आयोजन का प्रस्ताव रखा तो मैंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस समय पूरे देश में गांधी जी की 150 वीं जयंती मनाई जा रही थी, ऐसे में बापू के देहरादून से जुड़ाव को लेकर नाटक करने का विचार बनाया गया। खोजबीन की तो पता चला कि नमक सत्याग्रह में देहरादून का खास योगदान था, तो इसी पर नाटक तैयार किया जाए। जानकारी लेने पर पता चला कि खाराखेत के पास एक नून नदी है, जिसमें नेहरु ग्राम निवासी खड़ग बहादुर ने अपने साथियों के साथ मिलकर नमक बनाकर टाउनहॉल में बेचा था। खड़ग बहादुर की वीरता को लेकर कई बातें पता चली तो ‘नमक सत्याग्रह: दांडी से खाराखेत’ नाम से नाटक तैयार किया गया। 26-27 नवंबर 2019 को देहरादून में टाउनहॉल में इस नाटक का मंचन किया गया, जिसे काफी पसंद किया गया। इसके बाद मैंने अपने पति चंद्रमोहन बौंठियाल के साथ देहरादून में सक्रिय रूप से काम करने का मन बनाया और ‘रंगायन’ नाम से कंपनी खोली। इस बीच कोरोना काल में वर्ष 2021 में पति की मृत्यु हो गई, तो आर्थिक समस्या भी खड़ी हो गई। आर्थिक समस्या से निपटने के लिए रंगायन के बैनर तले बच्चों का नाटक तैयार किया। यह भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक अंधेर नगरी से प्रेरित होकर लिखा था। पिछले साल 23 जून 2024 को आईआरडीटी आडिटोरियम में इस नाटक का मंचन भी किया। इससे पहले रंगायन के बैनर तले ही रमेश राजहंस के लिखे नाटक ‘आईना’ का टाउनहॉल में 4-5 फरवरी 2023 को मंचन किया, जिसे काफी सराहना मिली। इस सबके बावजूद उत्तराखंड में रंगमंच को लेकर कमी खलती है।
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सवाल: ‘मेरी प्यारी बोई’ के बाद आपने कोई गढ़वाली फिल्म नहीं की। ऐसा क्यों?
जवाब: मुझे हिंदी फिल्मों के आफर जरूर मिले, लेकिन कहानी अच्छी नहीं थी, इसलिए मना कर दिया। हालांकि गढ़वाली फिल्म के लिए किसी ने संपर्क नहीं किया। वैसे मेरी पहली पसंद रंगमंच है, इसलिए गढ़वाली फिल्मों की तरफ ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया।
सवाल: उत्तराखंड में क्षेत्रीय फिल्मों, खासकर गढ़वाली सिनेमा के भविष्य को लेकर आप क्या सोचती हैं?
जवाब: उत्तराखंड में क्षेत्रीय फिल्में या यूं कहें कि गढ़वाली फिल्में काफी बन रही हैं, लेकिन जब तक उनमें सही कटेंट नहीं होगा, तो कोई फायदा नहीं होगा। किसी तरह आप दर्शक को सिनेमाघरों तक ले भी आए, लेकिन उसे सही कटेंट नहीं मिला, तो उसकी रुचि खत्म हो जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि गढ़वाल की बुनियादी जरूरतों को शामिल करते हुए फिल्में बनाई जाएं, जिसका मैसेज भी दर्शकों तक पहुंचे। इसके लिए सरकार को भी कदम उठाने चाहिए। अच्छी गढ़वाली फिल्मों को टैक्स फ्री करना चाहिए।
सवाल: आखिर में, गढ़वाली फिल्में बहुत बन रही हैं, लेकिन उनमें काम करने वाले कलाकारों को सही ढंग से गढ़वाली भाषा नहीं आती। ऐसे में एक बड़ा दर्शक वर्ग इन फिल्मों से खुद को नहीं जोड़ पा रहा है। इसका क्या हल है?
जवाब: यह सवाल वाकई महत्वपूर्ण है। जब तक आपकी भाषा सही नहीं होगी, तब तक आप अपनी भावनाएं दर्शकों तक नहीं पहुंचा पाएंगे। इसलिए ज़रूरी है कि नए कलाकारों को गढ़वाली भाषा का प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि उनका अभिनय स्वाभाविक लगे।
सवाल: उत्तराखंड में रंगमंच लगभग मृतप्राय है। इसका क्या कारण है और इसको जिंदा रखने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
जवाब: उत्तराखंड में खासकर देहरादून की बात करें तो एक समय यहां रंगमंच का बोलबाला था। बहुत अच्छे रंगकर्मी यहां होते थे। लेकिन वक्त के साथ इन रंगकर्मियों को राज्य सरकार की तरफ से कोई प्रोत्साहन नहीं मिला, तो वह रंगमंच से अलग होते गए और रोजी-रोटी की तलाश में लग गए। ऐसे में नाटकों का सिलसिला खत्म होना ही था। संस्कृति विभाग को चाहिए कि वह रंगमंच को खत्म होने से रोकने के लिए पहल करे। रंगकर्मियों को आर्थिक सहायता दे, ताकि वह रंगमंच को जिंदा रख सकें।