शायर के लिए किसी औलाद से कम नहीं होते अश’आर
जाने-माने शायर मोहतरम कृष्ण बिहारी नूर साहब के विचार

दूसरों के बाज़ बाज़ अशआर ऐसे मिले जिन्हें अपना कह देने को बहुत जी चाहा। बस यूं ही जैसे किसी प्यारे से बच्चे को गोद में लेकर आप उसके वालिदेन के सामने कह देते हैं कि भाई यह बच्चा तो मेरा है और फिर उसी जज़्बे के तहत जब आप कहते हैं कि इसे मुझे दे दीजिए तो वे कितना ख़ुश होते हैं। वह अच्छी तरह जानते हैं कि न आप बच्चे को ले जायेंगे, न वे आप को ले जाने देंगे। सौ में कहीं एक कहता है कि हां हां ले जाइए मगर रात को ले आइएगा हम लोगों के बगैर इस को नींद न आएगी और आपको बहुत परेशान करेगा। आप ज़रूर बच्चे को घर लाएंगे उसे रोने न देंगे और हर तरह उसको बहलाएंगे खिलौनों से, मिठाई से और किस्से कहानियों से। यही नहीं आप उसको खूब सजा के संवार के रात होते ही उसके वालिदेन के पास पहुंचा आएंगे। भाई शेर भी तो औलाद ही होता है वह आपका हो या मेरा। ऐसी औलाद जिसे कोई कभी किसी को नहीं देता। आप ज़बरदस्ती हासिल करलें तो बात दीगर। वे अशआर जिन्होंने मुझे ललचाया इतने मशहूर थे कि उन्हें उनके ख़ालिक़ का नाम लिए बगैर सुनाता तो सिवाय शर्मिंदगी के कुछ न होता। फिर मुझे चोरी के इल्ज़ाम से न कोई अदबी वकील बचा सकता, न कोई दलील सज़ा से रिहाई दिला सकती। चुनांचे इन अशआर के लिबास को तब्दील कर दिया ताकि कुछ दूर तक बेरोकटोक चल सकूं।
तुलसीदास जी की चौपाई-
श्याम गौर किम कहूँ बखानी
गिरह अनैन, नयन बिन बानी
असगर गोंडवी को इस क़दर पसंद आई कि उन्होंने इस का इज़हार यूं फरमाया-
तेरे जलवों के आगे हिम्मते शरहो बयां रख दी
ज़ुबाने बे निगह रख दी, निगाहे बेजुबां रख दी
अब इसको क्या कीजिए कि मेरी निगाह भी उस वक्त तक वहीं पर ठहरी रही जब तक मैंने यह शेर न कर लिया-
हो किस तरह से बयां तेरे हुस्न का आलम
जुबां नज़र तो नहीं है नज़र जुबां तो नहीं
कृष्ण चंद्र हैरत गोंडवी ने एक रुबाई में फ़रमाया-
इठलाई हुई शाम की मस्ती होगी
मैख़ाने में ज़िंदगी बरसती होगी
मैं देर से ईमान के बंदों में हूं कैद
सहबा मेरे होंठों को तरसती होगी
मैकशी के सलीके ने मैकश को जिस मुकाम पर पहुंचाया वह बहुत पसंद आया। शेर सुनिए-
शराब मेरे लबों को तरस रही होगी
मैं रिन्द तो हूं मगर तिश्नगी की क़ैद में हूँ
एक जगह और उन्हीं के एक शेर के असलूब ने अपनी तरफ़ मुतवज्जह कर ही लिया, फरमाते हैं-
फूल मुझे अज़ीज़ हैं ख़ार मुझे अज़ीज़तर
इक है ख़्वाबे ज़िंदगी, इक है ज़िंदगी मेरी
इस शेर के मिज़ाज को मैंने अपने एक शेर में यूं ज़म किया कि-
बेनियाज़ सुख दुख से रह के जी न पाऊंगा
सुख मेरी तमन्ना है दुख मेरा मुकद्दर है
फ़िराक़ साहब ने उर्दू को बहुत कुछ दिया है। एक बहुत मशहूर शेर सुनिए आप यकीनन सुन चुके होंगे कि-
तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो
तुमको देखें कि तुमसे बात करें
पता नहीं किस किस्म की तंगी महसूस हुई जिसने इस शेर को जन्म दिया-
किस तरह मैं देखूं भी, बातें भी करूं तुझसे
आंख अपना मज़ा चाहे दिल अपना मज़ा चाहे
एक मुकाम पर फ़िराक़ साहब ने मोहब्बत का वह मोड़ पेश किया कि मैं खुद को उस मुकाम तक ले जाए बगैर न रह सका। फरमाते हैं-
बेतअल्लुक़ न मुझसे हो ऐ दोस्त
बदसुलूकी तेरी मुझे मंजूर
अर्ज़ करता हूं-
बेतअल्लुकी उसकी कितनी जानलेवा है
आज हाथ में उसके फूल है न पत्थर है
शमीम जयपुरी साहब के एक अच्छे शेर के सच्चे एहसास ने बेहद मुतास्सिर किया। मैंने इस चिराग से चिराग जलाया और दोनों शेर हाजिर हैं, मुलाहिजा हो-
बजुज़ तेरे कोई मौजू ए गुफ्तगू ही नहीं
अजीब हाल है तर्के तअल्लुकात के बाद
मैं जानता हूं वो क्यों मुझसे रूठ जाते हैं
वो इस तरह से भी मेरे करीब आते हैं
किसी ने निहाल ताबां का यह शेर सुना दिया-
इतना तो हुस्न चाहिए हो जाज़िबे नज़र
महफ़िल में बैठ जाए तो तनहा दिखाई दे
हुस्न की तारीफ में इस अछूते खयाल को इजहार करने का यह खुरदुरापन न बर्दाश्त हो सका तो यह शेर कहने पर मजबूर हो गया-
क्या हुस्न है जमाल है क्या रंग रूप है
वो भीड़ में भी जाए तो तनहा दिखाई दे
इस शेर से एक वाक़या और याद आ गया। मैं और डॉक्टर मलिकजादा मंजूर अहमद कलकत्ता किसी मुशायरे में जा रहे थे । इधर-उधर के किस्से कहानियों के बाद भी जब वक्त काटे न कट पाया तो तय हुआ गजल कही जाए। डॉक्टर साहब ने एक मिसरा निकाल कर कहा इस पर मिसरा लगाओ, “मुझ तिश्नालब को ख्वाब में दरिया दिखाई दे”, चंद सेकंड भी न गुजर पाए थे कि मैंने कहा डॉक्टर साहब आपके मिसरे में एक लफ़्ज़ की तब्दीली के बाद मिसरा लग गया। कहने लगे क्या सुनाओ। मैंने कहा-
उस तिश्नालब की नींद न टूटे दुआ करो
जिस तिश्नालब को ख्वाब में दरिया दिखाई दे
उन्होंने बेहद पसंद फरमाया फिर तो यह हुआ कि पूरी ग़ज़ल ट्रेन ही पर हो गई। ऐसा नहीं कि सिर्फ दूसरों के शेर ही के साथ मैंने ऐसा किया हो। इस दायरे में मैं खुद भी आता हूं अपने ही एक शेर को दो जगह यूं कहा है जिसे सिर्फ बारीक निगाह ही महसूस कर सकती है, सुनिए-
इक सिलसिला ए शब है हस्ती क्या जाने उन्हें कब याद आए
बिखरा के वो मेरी दुनिया पर गेसू ए परेशां भूल गए
वो पढ़ते पढ़ते मुझे सो गया जगाए कौन
खुली पड़ी है सरहाने किताब मुद्दत से।”
( जनाब कृष्णबिहारी नूर की पुस्तक ‘समंदर मेरी तलाश में है’ पृष्ठ 141-144)
प्रस्तुति के लिए आ.Krishna Kumar Naaz जी का आभार