मिठाई या बीमारी की जड़

डॉ. बृज मोहन शर्मा
सुविधा की इस तेज रफ्तार दुनिया में अक्सर हम जागरूकता से अधिक आसानी को चुन लेते हैं। ऐसे में मीठे स्वाद का आकर्षण हमें अनजाने में उस जाल में फंसा देता है, जिसका असर लंबे समय तक हमारी सेहत और परिवार के भविष्य पर पड़ता है। यह लेख डर पैदा करने के लिए नहीं है, बल्कि जागरूकता बढ़ाने के लिए है। अगर हम तरल शर्करा (लिक्विड शुगर) के छिपे खतरों को समझ लें और इसे पहचानकर इसके विकल्प अपनाएं, तो हम अपने खाने पर नियंत्रण वापस पा सकते हैं, परंपराओं को समझदारी के साथ जी सकते हैं और ऐसी मिठास चुन सकते हैं जो सचमुच पोषण दे। बेहतर स्वास्थ्य की राह जागरूकता से शुरू होती है और यह सफर अभी से शुरू हो सकता है।
तरल शर्करा : दिखती मीठी, असर घातक
आज के तेजी से बदलते खाद्य बाजार में तरल शर्करा (लिक्विड शुगर) एक खामोश लेकिन ताकतवर खतरे के रूप में उभरी है। यह हमारे खाने-पीने में इस कदर घुल चुकी है कि हमें पता भी नहीं चलता। सॉफ्ट ड्रिंक, जूस, मिठाई, बिस्कुट, जैम, सॉस—हर जगह इसकी मौजूदगी है। पहले यह प्रयोगशाला की चीज थी, लेकिन अब इसकी कम लागत, ज्यादा मिठास और प्रोसेसिंग की सुविधाओं ने इसे बड़े पैमाने पर खाद्य उद्योग का हिस्सा बना दिया है।
दानेदार चीनी को घोलने की जरूरत पड़ती है, लेकिन तरल शर्करा पहले से ही टूटे हुए सरल रूपों में होती है। यही कारण है कि यह तुरंत शरीर में अवशोषित हो जाती है। यह कंपनियों के लिए सुविधाजनक तो है, लेकिन उपभोक्ताओं के लिए स्वास्थ्य का भारी खतरा।
शुरुआत कहां से हुई
1960 के दशक में अमेरिका में हाई फ्रक्टोज कॉर्न सिरप (HFCS) का विकास हुआ। मक्का से बने इस सिरप ने शीघ्र ही पारंपरिक चीनी को प्रतिस्थापित कर दिया। इसकी शेल्फ लाइफ लंबी थी और मिठास ज्यादा। भारत ने भी बाद के वर्षों में लिक्विड ग्लूकोज और इनवर्टेड शुगर सिरप को मिठाइयों, बेकरी और सॉफ्ट ड्रिंक्स में अपनाया। धीरे-धीरे पश्चिमी पैकेजिंग और प्रोसेसिंग का असर हमारी पारंपरिक मिठाइयों तक पहुंच गया।
आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले तरल स्वीटनर
हाई फ्रक्टोज कॉर्न सिरप (HFCS): मक्का के स्टार्च से बना, कोल्ड ड्रिंक, कैंडी, फल-सिरप, केचप और फ्लेवर मिल्क में पाया जाता है।
लिक्विड ग्लूकोज: गाढ़ा, चिपचिपा सिरप, जो हलवा, बर्फी, लड्डू, आइसक्रीम और बेकरी में खूब इस्तेमाल होता है।
इनवर्टेड शुगर सिरप: सुक्रोज को ग्लूकोज और फ्रक्टोज में तोड़कर बनाया जाता है। गुलाब जामुन, रसगुल्ला, जैम, डेयरी मिठाइयों में इस्तेमाल।
एगेव नेक्टर, प्रोसेस्ड हनी, मेपल सिरप: प्राकृतिक दिखने वाले ये स्वीटनर भी औद्योगिक प्रोसेसिंग के बाद HFCS जैसे ही नुकसानदेह हो जाते हैं।
इन सबकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये बहुत तेजी से पचते हैं और पोषण शून्य होता है।
स्वास्थ्य पर असर
मेटाबॉलिक गड़बड़ी: पैनक्रियास और लिवर पर दबाव डालते हैं, इंसुलिन स्पाइक्स और फैट स्टोरेज बढ़ाते हैं।
फैटी लिवर: HFCS जैसे शर्करा सीधे लिवर पर असर डालते हैं, जिससे वसा जमना और सूजन बढ़ना शुरू हो जाता है।
भूख का नियंत्रण बिगाड़ना: लेप्टिन और घ्रेलिन हार्मोन को प्रभावित कर ज्यादा खाने की प्रवृत्ति बढ़ाते हैं।
हृदय रोग और दांतों की समस्या: चिपचिपे शर्करा दांतों पर चिपकते हैं और खराब कोलेस्ट्रॉल (LDL) व ट्राइग्लिसराइड बढ़ाते हैं।
भारतीय मिठाइयों में घुसपैठ
तरल शर्करा वाली मिठाइयां लंबे समय तक नरम और चमकदार रहती हैं। जबकि गुड़ या देसी खांड से बनी मिठाई जल्दी सूख जाती है और कम आकर्षक लगती है। यही वजह है कि व्यापारी अक्सर सिरप का सहारा लेते हैं। लेकिन, इन मिठाइयों का ग्लाइसेमिक इंडेक्स बहुत ऊंचा होता है और पोषण लगभग शून्य।
पहचान कैसे करें?
चिपचिपापन और चमक– मिठाई अगर असामान्य रूप से नरम और चमकदार है।
लंबी उम्र– बिना फ्रिज के कई दिन ताजा दिखती है।
फ्रीजर टेस्ट– जमने पर भी पूरी तरह सख्त न होकर गीली या स्लश जैसी रहे।
पानी में घोलना– मिठाई पानी में घोलने पर धुंधली या चिपचिपी हो जाए।
उपवास और बच्चों पर असर
उपवास में लोग अक्सर जूस या मिठाइयां खाते हैं, लेकिन ये शरीर को केवल खाली ऊर्जा देते हैं, कोई पोषण नहीं। बच्चे भी तरल शर्करा के ज्यादा शिकार हो रहे हैं। छोटी उम्र में ही मोटापा, डायबिटीज और दांतों की समस्याएं सामने आने लगी हैं।
सुरक्षित और पारंपरिक विकल्प
गुड़ (जैगरी): आयरन और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर।
खांड और मिश्री: कम प्रोसेस्ड, प्राकृतिक रूप के करीब।
स्टीविया: पौधों से बना, शून्य कैलोरी वाला स्वीटनर।
फ्रूट पेस्ट/प्यूरी: खजूर, अंजीर, केला आदि।
कच्चा शहद: सीमित मात्रा में और केवल बिना प्रोसेस किया हुआ।
आगे का रास्ता
हमारी संस्कृति में मिठाइयां केवल स्वाद नहीं, बल्कि प्रेम, परंपरा और उत्सव का प्रतीक हैं। पूरी तरह परहेज करना व्यावहारिक नहीं है। लेकिन सजग उपभोग, लेबल पढ़ना और पारंपरिक तरीके अपनाना हमें बीमारियों से बचा सकता है। सार्वजनिक स्तर पर जागरूकता, स्कूलों में पोषण शिक्षा और सख्त लेबलिंग कानून बेहद जरूरी हैं।
निष्कर्ष
सुविधा और स्वाद की दौड़ में हमने अनजाने में तरल शर्करा जैसे खामोश खतरों को अपनी थाली में जगह दे दी है। अब समय है कि हम जागरूकता और परंपरा के सहारे इसे चुनौती दें। छोटी-छोटी सावधानियां जैसे गुड़ की मिठाई खाना, प्रोसेस्ड ड्रिंक से परहेज करना या लेबल पढ़ना बड़े फायदे ला सकती हैं।
(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित रसायनज्ञ हैं, जो वर्ष 1990 से खाद्य गुणवत्ता और मिलावट पर शोध में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।)