डॉ. रमाकांत शर्मा की अद्भुत पुस्तक फेसबुक पर काव्य संवाद

रचनात्मक व्यक्ति हर समय , हर जगह रचनात्मक होता है और उपलब्ध स्थिति व घटना को अपने रचनाकर्म में प्रयुक्त करने की भी विशिष्ट क्षमता रखता है । फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के तकनीकी प्लेटफार्म को अपनी रचनाशक्ति से उपयोग में लेकर एक सुंदर सृजन के स्वरूप में हमारे सामने लाये हैं
डॉ . शर्मा अपनी कृति “फेसबुक पर काव्य संवाद” के माध्यम से।

डॉ . शर्मा ने यह पुस्तक मुझे हाल ही में स्नेहाशीष के साथ प्रदान की थी , जिसे पाकर और पढ़कर कृतिकार के ज्ञान- वैविध्य , रचना -कौशल और सृजन सामर्थ्य के अनेक आयामों को अनुभूत कर आह्लादित और गौरवान्वित हूँ ।
साहित्य की दुनिया का शायद यह एक विलक्षण और अद्वितीय प्रयोग होगा , जिसमें फ़ेसबुकिया लाइक- शेयर से उपजी आत्ममुग्धता से दूर काव्यकर्म पर सार्थक पोस्ट और उस पर सुधीजन से प्राप्त प्रतिक्रियाओं और चर्चा से सिरजे संवाद को रोचकता से प्रस्तुत कर साहित्य में नवीनता और प्रभावोत्पादकता का सफल प्रयास किया गया है ।
अपनी विभिन्न पोस्टों के माध्यम से डॉ शर्मा कविता की अनेक समीचीन परिभाषाओं का सृजन करते हैं वहीं अलोचनाकर्म की उपादेयता भी सामने लाते हैं। स्वयं कवि आलोचक डॉ शर्मा कविता को एक कर्म ही नहीं , अपितु धर्म मानते हैं और इसलिए वे कविता में लोक की बात करते हैं , संवेदना की बात करते हैं और कविता की नैतिकता को जीने की बात करते हैं । काव्य और आलोचना दोनों की गिरती साख और स्तर से लेखक आहत है और उनकी पीड़ा के स्वर पहले फेसबुक और अब इस पुस्तक के पन्नों पर पसरे दिखते हैं।
लेखक कविता के अर्थगर्भ और जीवन सापेक्ष होने के हामी हैं । वे आचरण व कविता में साम्य की जरूरत बताते हुए कहते हैं कि कवि व्यक्तित्व की नैतिकता का सवाल जरूरी हैऔर शब्द व कर्म की एकता जितनी अधिक होगी , कवि व कविता की श्रेष्ठता उतनी ही अधिक होगी।
वे कविताकर्म को निरा शब्दों का खेल नहीं अपितु गम्भीर सांस्कृतिक कर्म घोषित करते हैं , क्योंकि कविता अंततः एक सोद्देश्य कार्य है । वे कविता को विचार संवेदन यात्रा और लोकधर्म की संवाहिका शक्ति के रूप में रूपांकित करते हैं ।
इस तरह डॉ. रमाकान्त पूरी पुस्तक में कविता की दसियों परिभाषाएं गढ़ते हैं , जिनके आधार में लोक है , संवेदना है , नैतिकता है और सार्थक हस्तक्षेप के साथ समाज के दिशाबोध की आकांक्षा है । इन उपमाओं के अन्तस् में एक संवेदनशील व्यक्ति का मानसिक उद्वेग विद्यमान है , जिसकी जिद्द कविता की सार्थकता से समानता- समरसता के बीज बोने की है , जिसकी अपेक्षा साहित्य को समाज का पथप्रदर्शक बनाने की है………..कवि और कविता में नैतिकता का उनका आग्रह आखिरकार सम्पूर्ण समाज में नैतिकता की उनकी हृदयेच्छा का प्रस्फुटन ही तो है !
लेखक न केवल वर्तमान कवियों को आड़े हाथों लेते हैं अपितु आलोचकों को भी आईना दिखाते हैं । आलोचना बाजार की मांग पर केंद्रित हो गई है । आलोचना पढ़कर साहित्य के प्रति रुचि जाग्रत होनी चाहिए , परन्तु हो इसका उल्टा रहा है । आलोचना साहित्य के प्रति नफरत के भाव पैदा कर रही है । आलोचनाकर्म पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं पोस्ट की उपयोगिता और सार्थकता को नव आयाम प्रदान करती हैं ।
पुस्तक कविता की सार्थकता और मिज़ाज़ पर एक दुर्लभ दस्तावेज की तरह है , जो प्रतिक्रियाओं और टिप्पणियों से एक सार्थक बहुपक्षीय संवाद- मंच बन गया है। लेखक कविता से मात्र लेखकीय कर्म से ही नहीं , अपितु पाठकीय धर्म से भी जुड़े हैं । जब कविता के पाठकों की कमी पर कलीम अव्वल सवाल उठाते हैं कि कविता के पांचवे पाठक की तलाश करनी होगी , तब लेखक का कविमन तड़प कर कह उठता है कि अच्छी कविताओं के पाठकों की कोई कमी नहीं और यह भी कि वे स्वयं घण्टों कविताओं के अध्ययन मनन में लीन रहते हैं । फेसबुक के संवाद साथी कई जगह अपनी बात बड़ी शिद्दत से उठाकर पोस्ट को वृहत्तर बनाते हैं ।
अजय चंद्रवंशी कहते हैं कि कविता में देशज शब्दों का सार्थक प्रयोग हो , उन्हें खपाने का भोंडा प्रयोग न हो । वस्तुतः यह बात न केवल कविता अपितु साहित्य की हर विधा के लिए उपयुक्त है । लोकधर्मी होने का दिखावा करने के चक्कर में ऐसा कर दिया जाता है और इससे साहित्य की सरस -सलिला शाब्दिक पंक से अट जाती है । महेश पुनेठा कहते हैं , “आज कविता का रचाव नहीं अपितु उत्पादन हो रहा है “और योगेंद्र कृष्णा तो और आगे जाकर मर्म को भेदते है , ” सच्चे कवि के जीवन में भी कविता दिखती है । ” तो कहाँ है फिर कविता , फैक्ट्री के उत्पाद की तरह चापलूसी से किसी पत्रिका के पन्नों पर साहित्य का मुँह चिढ़ाती- सी या हजार मुखोटों को चेहरे पर लगाकर छद्म आदमी के चरित्र की जुगाली से निकली हुई……….!!?
पुस्तक साहित्य समाज के अनेक चरित्रों से हमारा परिचय कराती है । चूंकि शब्द व्यक्ति के भावों की अभिव्यक्ति है इसलिए कौन क्या लिख रहा है , उसकी मानसिकता को टिप्पणी से जाना जा सकता है । महिला सशक्तिकरण पर एक जगह स्वाति जैसलमरिया कहती हैं , ” नारी को साहस और मार्ग की दरकार है । ” वे पुरुष से यह अपेक्षा रखती है । सहकर्म की शाश्वतता के साथ यह पढ़ी लिखी भारतीय नारी की मनःस्थिति से भी अवगत करती टिप्पणी है ।
पुस्तक में यत्र -तत्र लेखक द्वारा रचित कविताएं और गज़लें भी प्रसंगवश शामिल की गईं हैं जो सोने में सुगन्ध का सा आभास कराती हैं । माँ , पत्नी जैसे सम्बन्धों और लोक से जुड़े विषयों पर ये रचनाएं कवि लेखक के निर्मल , निश्छल व स्नेहसिक्त हृदय की प्रतिच्छाया जैसी हैं ।
पुस्तक निष्कर्ष स्वरूप में समाज में साहित्य और कविता की प्रतिस्थापना तो करती ही है , उनके लिए एक दिशा निर्धारित करके सीमाओं की अपेक्षा भी रखती है जिसके कविता की सार्थकता सिद्ध हो सके । दंडी के शब्द जो पुस्तक में पुष्पा गुप्ता की टिप्पणी से उद्धृत हैं कि यह शब्दज्योति न होती तो विश्व अंधकार में डूबा होता, डॉ. शर्मा की इस कृति से इस शब्दज्योति को रस मिलता है, जिससे इसकी लौ सदा चमकती दमकती रह सकती है।
समीक्षक: दशरथ कुमार सोलंकी