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जब रात-दिन खुला करती थी मुहब्बत की दुकान…मजहब से ऊपर थी दोस्ती

♦️ जब न कोई हिन्दू था न मुसलमान,सब यार थे एक-दूसरे की जान, रात को दो बजे मोहन की मां ने बनाई राहत के लिए दाल-बाटी, भगवान राम के प्रति राहत इंदौरी का सम्मान

इंदौर: वो भी क्या वक़्त था कि लोग अपनी दोस्ती को धर्म से ऊपर रखते थे और अपने दोस्त के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार रहते थे। घर के बुज़ुर्गों के लिए भी अपने बच्चों के दोस्त भी उतनी ही अहमियत रखते थे, जितनी ख़ुद की औलादें। बच्चों के दोस्तों को ख़ुश रखने के लिए वो बुज़ुर्ग ख़ुशी-ख़ुशी अपनी नींदें भी क़ुर्बान कर दिया करते थे।

राहत इंदौरी के जितने जिगरी दोस्त थे, उनमें सिर्फ चांद पैंटर ही मुस्लिम थे बाकी सब हिन्दू थे। लेकिन उनमें जो प्यार था, वो सगे भाइयों से भी ज़्यादा था।
वाक़या यूं है कि एक रात को शराब पर शराब आई जा रही थी और राहत इंदौरी व उनके दोस्तों की महफ़िल चलती जा रही थी। रवि शबाब भी उसमें मौजूद थे। महफ़िल में तरह-तरह की बातचीत होती रही और वो सब शराब पीते रहे। जब शराब पीते-पीते रात के दो बज गए तो राहत साहब को भूख लगी। उन्होंने दोस्तों से कहा कि मुझे तो दाल-बाटी खाना है। रवि शबाब ने टाइम देखा और कहा कि राहत भाई , इस वक़्त तो कहीं भी दाल-बाटी नहीं मिल सकती। राहत इंदौरी को उनके सारे दोस्त ‘गुरु’ कहते थे और उनमें से ज़्यादातर ने कहा कि गुरु अब तो दाल-बाटी मिलना मुश्किल है। लेकिन अब राहत साहब तो फुल नशे में थे। वो तो बच्चों की तरह अड़ गए कि मैं तो दाल-बाटी ही खाऊंगा। तब अचानक मोहन ने कहा-
गुरु! तुमको खाना है ना! तो चलो मेरे घर..आज तुम को दाल-बाटी ही खिलाऊंगा मैं।

रवि शबाब बताते हैं कि हम सब मोहन के घर पंहुचे। वो एक छोटा-सा कच्चा मकान था। मोहन की पत्नी और बच्चे उसमें सो रहे थे। बाहर दो खटिया थी। एक पर मोहन के पिता तो दूसरी पर उसकी माताजी सो रही थीं। घर के सामने एक खुला मैदान था। जैसे ही दोस्तों की ये टोली वहां पंहुची तो आवाज़ सुन कर पिता जी और माता जी झट से जाग गये। जैसे ही मोहन के पिता ने राहत साहब को देखा तो बोले-
आ जा..आ जा..इतनी रात को क्या बात हो गई जो आना पड़ा।
राहत इंदौरी ने कहा- बाबु जी मेरी दाल-बाटी खाने की इच्छा हुई तो मोहन यहां ले आया।
इतना सुनते ही मोहन की माता जी बोल पड़ीं – तेरी इच्छा है तो दाल-बाटी कौन सी बड़ी बात है.. बैठे जा.. अभी बनाती हूं।
इतना कहकर मोहन की मां तो सीधे काम से अंदर चली गई और राहत साहब और सारे दोस्त मां की खटिया पर बैठ गये। तभी मोहन के पिता ने राहत साहब से पूछा– माल-वाल है क्या..?
राहत इंदौरी ने कहा – हैं ना बाबु जी..! लो बनाओ..!
इतना कहते ही राहत इंदौरी ने अपनी पेंट से बोतल निकाल कर बाबु जी के हाथ में थमा दी। फिर वहां भी बाबु जी के साथ शराब का दौरा शुरू हो गया।
रात 3.30-4.00 बजे मोहन की माता जी ने कहा कि दाल-बाटी तैयार है.. अब खाना खा लो। राहत इंदौरी और सभी दोस्तों को मोहन की मां ने अपने सामने बिठाकर प्यार से दाल-बाटी खिलाई। खाना खाकर सभी को नींद चढ़ने लगी और बिस्तर याद आने लगा।‌ राहत इंदौरी और सभी दोस्तों ने फिर मोहन के माता-पिता को धन्यवाद दिया और आज्ञा लेकर अपने-अपने घरों को रवाना हो गए।‌
ऐसा था राहत इंदौरी के दोस्तों का और उनके परिवारों का आपस में प्यार।‌ इन सबमें एक बड़ी दिलचस्प बात ये थी कि जो लोग इन्हें जानते थे, उन्हें भी इन सबके पूरे नाम नहीं मालूम थे। इन्हें मोहन पैंटर, कमल पैंटर, बालू पैंटर, चांद पैंटर, सुरेन्द्र पैंटर के नाम से ही जाना जाता था।
कुछ साल पहले सुरेन्द्र पैंटर के किसी दोस्त ने मंज़र भोपाली से मुलाक़ात के दौरान बताया कि आपकी बहुत सी बातें मुझे सुरेन्द्र सिकरवार ने बतायी थीं, तो मंज़र भोपाली ने सुरेन्द्र सिकरवार को पहचानने से इंकार कर दिया। लेकिन जैसे ही उसने कहा कि सुरेन्द्र पैंटर, तो मंज़र भोपाली ने फ़ौरन पहचान लिया।

कैफ़ भोपाली को पता था इन सबका टाइम–
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राहत इंदौरी और उसके सभी दोस्तों का ये आम रूटिन था कि वो देर रात को ही घर पंहुचते थे। इसलिए ज़ाहिर है कि ये सारे पैंटर अपनी दुकानों पर भी सुबह लेट ही जाया करते थे।‌ ये बात कैफ़ भोपाली सा. को पता थी। इसलिए जब कभी भी वो सुबह-सुबह इंदौर आ जाते तो इनमें से किसी भी पैंटर की दुकान पर नहीं जाते थे। हालांकि स्टेशन के पास ग्वालटोली में ही मोहन पैंटर की दुकान थी। उनके शागिर्द सुरेन्द्र पैंटर थे।
तो बात कैफ़ भोपाली सा. की चल रही थी। उन्हें पता था कि सबसे पहले दुकान प्रकाश मैकेनिक खोलता है। उसकी दुकान छावनी में स्कूल वाले रोड़ पर थी। वो मोटरसाइकिल मैकेनिक था। और राहत साहब वाली इस टोली का भी मेंबर था। कैफ़ भोपाली जब भी सुबह जल्दी इंदौर आ जाते तो प्रकाश के गैरेज पर जाकर बैठ जाते। जैसे ही प्रकाश वहां आता तो वो दुकान खोलकर कैफ़ साहब को सामने एक टायर के शो रूम की सीढ़ियों पर बैठा देता। वहीं उनके लिए एक पव्वा और ग्लास लाकर दे देता था। कैफ़ साहब वहीं बैठकर आराम से पीते। फिर बारह बजे के बाद प्रकाश उन्हें अपनी मोटर साइकिल पर बिठा कर राहत साहब या मोहन की दुकान पर छोड़ आता। उसके बाद तो फिर कैफ़ साहब के लिए सारा दिन इधर-उधर से शराब आती रहती। ऐसे में अगर किसी के पास अर्जेंट काम आ जाता तो मोहन के शागिर्द सुरेन्द्र पैंटर को भेज दिया जाता था।

भगवान राम के प्रति राहत इंदौरी का सम्मान-
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सिंहस्थ उज्जैन के मुशायरे में राहत साहब रवि शबाब को साथ लेकर गये थे। उस दिन जो टैक्सी ड्राइवर था उसका नाम ‘राम’ था। सफ़र के दौरान दो- तीन बार रवि शबाब और राहत साहब ने उसे नाम से पुकारा। थोड़ी देर बाद राहत साहब ने ड्राइवर राम से कहा कि यार तुम अपना नाम राम के बजाय श्री राम कर लो.. ये सीधे-सीधे राम नाम लेने में तो बेअदबी लगती है। अगर श्रीराम नाम कर लोगे तो लोग भी इस इस बेअदबी से बच जाएंगे।
ये था राहत इंदौरी का भगवान राम के प्रति सम्मान। रवि शबाब कहते हैं कि जब राहत साहब ने उस टैक्सी ड्राइवर से बात कही तो मुझे ख़ुद भी हैरत हुई कि उन्होंने कितनी गहरी बात पकड़ी। राहत इंदौरी ने भले ही मुशायरे के करोबार की खातिर ऐसे शे’र पढ़ें हो जिसका मक़सद एक संप्रदाय विशेष को ख़ुश करना हो लेकिन वो अपने निजी जीवन में हमेशा धर्म निरपेक्ष रहे। इसकी मिसाल ये है कि उनके अधिकांश दोस्त हिंदू थे। शायरों में भी जो शाइर उनके ज़्यादा क़रीब थे, वो भी हिंदू थे। कुछ मिलाकर हमें राहत इंदौरी के व्यक्तित्व को दो हिस्सों में बांट कर देखना पड़ेगा। एक राहत इंदौरी वो है जिसके लिए पहला धर्म ही इंसानियत है और दूसरा राहत इंदौरी वो है जो अपने मुशायरे के कारोबार से मुनाफ़ा कमानें के लिए शाइरी में मिलावट करने पर मजबूर है। इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे।

(अखिल राज,
पत्रकार-लेखक-शायर)

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