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अदीब सहारनपुरी:  वो मजाक, जिसने उनकी जिंदगी बदल दी 

♦️ इंदौर की ज़िल्लत और ग़ुरबत से परेशान होकर वो जा पहुंचे पाकिस्तान, शाइरी की हुई क़द्र और मिल गई अच्छी नौकरी

स्थान:  बंबई बाज़ार, इंदौर समय: सन् 1950-52

बंबई बाज़ार के एक हाल में नशिस्त है। बड़े -बड़े उस्तादों के अलावा नये शोअरा भी मौजूद हैं। इनमें एक 30-32 साल के एक शाइर भी हैं, जो इस कम उम्र में उस्ताद शाइर की हैसियत रखते हैं। उनके दो-तीन शागिर्द भी बन चुके हैं। उनमें से एक शीश अदीबी हैं और एक हकीम दानिश हैं।

हाल में काफी लोग मौजूद हैं और नशिस्त में हर शाइर को सामइन ख़ूब दादो-तहसीन से नवाज़ रहे हैं। अब नाज़िम ने उस शाइर को आवाज़ दी है, जो क्लासिकल अंदाज़ में बिल्कुल जदीद बात कहने का फ़न रखता है और उनके तरन्नुम का तो कोई जवाब ही नहीं है। शाइर का नाम है – अदीब सहारनपुरी ।
अब जैसे ही अदीब सहारपुरी अपना कलाम पढ़ना शुरू करते हैं, सामइन में से कुछ लोग उनके हर शेर पर अपनी उंगली दिखा कर, तो कुछ लोग हंसकर – *वाह चाकू*..*वाह छुरी*.. कहकर तंज़िया दाद दे रहे हैं। अदीब साहब, ये जानते हुए कि कुछ लोग उनका मज़ाक़ उड़ा रहे हैं, इसी माहौल में ग़ज़ल पढ़े जा रहे हैं।
ग़ज़ल ख़त्म कर के बहुत मायूसी के साथ वे बैठ जाते हैं और नाज़िम फिर किसी दूसरे शाइर के लिए तमहीद बांधने लगता है।
आज जब नशिस्त के बाद अदीब सहारपुरी साहब अपने घर पहुचे तो उनकी आंखों से नींद ग़ायब थी। अंदर ही अंदर जैसे वो धधक रहे थे और सोच रहे थे कि इस ज़िल्लत और ग़ुरबत से तो बेहतर है कि उन्हें ख़ुदकुशी कर लेनी चाहिए। लेकिन आंखों के सामने तभी बीवी-बच्चों का चेहरा घूम जाता है और बिस्तर पर लेटे-लेटे चुपचाप उनकी आंखों से गर्म पानी की कुछ बूंदें छलक पड़ती हैं।

और फिर वो तय करते हैं कि अब न तो मुझे इंदौर में रहना है और न हिंदुस्तान में, मुझे पाकिस्तान जाना है।

दोस्तो!
अदीब साहब ने इतना बड़ा फैसला क्यों लिया, आइए अब उसकी वजह जानते हैं।
दरअसल रोज़गार की तलाश में अदीब साहब भटकते-भटकते इंदौर आए थे। वे यहां गली-गली घूम कर चाकू, छुरी, कैंची आदि पर धार लगाने का काम किया करते थे। इसलिए सारा शहर उन्हें धार लगाने वाले के तौर पर जानने लगा था। एक तो इस काम से इतनी कमाई नहीं हो रही थी कि परिवार का ठीक से गुज़ारा हो। दूसरी बात ये थी कि मुशायरों और नशिस्तों में कई सामइन उनके इस पेशे को लेकर मज़ाक़ बनाया करते थे। इससे उन्हें बहुत शर्मिंदगी भी होती और वे इस वजह से एहसास-ए- कमतरी का भी शिकार होने लगे थे।
सो अब वो इस ज़िल्लत और ग़ुरबत को ख़त्म करके, ख़ुद के साथ अपने बच्चों का भविष्य भी बेहतर बनाने के मक़सद से पाकिस्तान जाना चाहते थे। उन्होंने सुन रखा था कि हिंदुस्तान से गये शाइरों की वहां बहुत क़द्र हो रही है। बस इसी बात ने उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए मजबूर कर दिया था। अब उन्होंने सारे अदबी प्रोग्रामों में जाना बंद कर दिया और पाकिस्तान जाने की कोशिशों में जुट गए। जल्द ही उनकी कोशिश रंग लाई और एक दिन वे अपने बीवी-बच्चों समेत कराची की ज़मीन पर थे।

अदीब साहब की शाइरी ने उन्हें दिलवा दी सरकारी नौकरी:
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अदीब सहारपुरी साहब के लिए कराची पहुंच कर रोज़ी के लिए एक नया संघर्ष शुरू हुआ। कराची में वक़्त गुज़ारते हुए उनकी मुलाकात वहां के शाइरों से हुई और वे उनकी शाइरी से बड़े मुतास्सिर हुए। फिर एक मुशायरे में उन्हें आमंत्रित किया गया। वहां सेना के एक बड़े अफसर भी मौजूद थे। जब अदीब सहारपुरी साहब का नंबर आया तो उन्होंने तरन्नुम से जो कलाम पेश किया, उसने तो मजमे में तहलका मचा दिया। मुशायरे में उनके हर शे’र पर मुकर्रर की आवाज़ों का शोर सुनाई देता था। ये वही रात थी जिसे पाने के लिए अदीब सहारपुरी साहब ने चुपचाप अपनी ज़िंदगी के इतने बरस इंदौर में ज़िल्लत सहते हुए गुज़ार दिए थे। आज इसी रात से अदीब सहारपुरी की क़िस्मत का सूरज निकलने वाला था। और फिर यही हुआ। वो बड़ा फ़ौजी अफसर जो उस मुशायरे में मौजूद था, उसने अदीब साहब से जब ये जाना कि वो कुछ वक़्त पहले ही हिंदुस्तान से आए हैं और बेरोज़गार हैं तो उसने उन्हें नेवी में नौकरी का आफर दे दिया। अदीब साहब के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता था। उन्होंने फ़ौरन ये प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।‌ बस यहां से उनकी और उनके बच्चों की ज़िंदगी ही बदल गई। उन्हें सरकारी मकान मिल गया और बच्चों को बेहतर स्कूल। लेकिन 8-10 बरस के बाद लोगों ने नहीं, बल्कि ज़िंदगी ने अदीब सहारपुरी साहब के साथ मज़ाक़ किया। उनके फेफड़ों में एक ख़तरनाक बीमारी हो गई और सिर्फ 43 साल की उम्र में (सन् 1963) में उनको मौत ने अपनी आगोश में ले लिया। लेकिन सबसे अच्छी बात ये थी कि सरकारी नौकरी की वजह से उनके परिवार को एक सुरक्षित जीवन मिल गया था। बच्चों को बेहतर तालीम मिल रही थी और उनकी पेंशन से घर चल रहा था।

और फिर एक दिन मुझे आस्ट्रेलिया से आया फोन:
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बात क़रीब 5-7 साल पुरानी है। मुझे फेसबुक पर एक महिला की फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। जब मैंने उनकी प्रोफाइल देखी तो पता चला कि वो पाकिस्तान की एक शाइरा हैं। मैंने रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली। थोड़ी देर बाद मैसेंजर पर मुझसे उस महिला ने पूछा कि क्या आप इंदौर से हैं? मैंने कहा – जी। तो उन्होंने कहा कि क्या मैं आपको काल कर सकती हूं? मैंने कहा कि ज़रूर।
कुछ देर में ही उनका मैसेंजर पर काल आ गया। बात शुरू हुई तो उन्होंने बताया कि मैं भी कुछ साल इंदौर में रही हूं। मेरे वालिद अदीब सहारनपुरी थे, जो शाइर थे और वो पाकिस्तान आ गये थे। पढ़ाई पूरी करके मैंने पाकिस्तान की फारेन सर्विस की एक्जाम पास की और फिर आस्ट्रेलिया में काफी समय रही। मेरे बच्चों ने आस्ट्रेलिया में ही पढ़ाई-लिखाई की और फिर यहीं सेटल हो गये। मैं भी रिटायर हो चुकी हूं और उन्हीं के साथ आस्ट्रेलिया में हूं। 15-20 साल पहले मैं इंदौर देखने आई थी। तारिक शाहीन सा. से मुलाक़ात हुई थी। तब उन्होंने बांदा फेमिली का ज़िक्र किया तो मैं मनोरमा गंज में नवाब आसिफ़ अली बहादुर साहब से भी मिली। मेरे एजाज़ में वहां नशिस्त भी हुई थी।
मैंने दूसरे दिन फ़रियाद बहादुर साहब से उस महिला के बारे में और अदीब सहारपुरी साहब के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि हां वो महिला हमारे घर आई थीं।
कई बरस से मैं उस महिला को भूल भी गया था, क्योंकि तब क्या पता था कि एक दिन मुझे अदीब सहारपुरी साहब पर लिखना पड़ेगा और उनका इतिहास खंगालना पड़ेगा। आज जब अनवर सादिक़ी साहब, युसूफ़ मंसूरी साहब और फ़रियाद बहादुर साहब से अदीब साहब के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहा हूं तो मुझे उनकी बेटी के उस फोन की याद आई। अदीब साहब की बेटी भी कई बरस से फेसबुक पर एक्टिव नहीं थीं तो मैंने भी उस वक़्त उन्हें अन्फ्रेंड कर दिया था। पता नहीं अभी वो इस दुनिया में हैं भी या नहीं। लेकिन मैं ये सोच रहा हूं कि जो आदमी इंदौर में अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम नहीं कर पा रहा था, उसके बच्चों को ईश्वर ने आस्ट्रेलिया में सेटल करवा दिया। जिसकी शाइरी का इंदौर में मज़ाक़ उड़ रहा था, उसकी शाइरी, पाकिस्तान में इज़्ज़त पा गयी।‌ वहां उनकी किताब भी छप गई और ख़ूब सराही भी गई।
मेरा मानना है कि समाज के वो लोग जो फ़नकारों का उनकी ग़रीबी या पेशा या किसी ख़ास आदत की वजह से जो महफ़िलों में मज़ाक़ बनाते हैं, उन्हें उसी वक़्त रोका जाना चाहिए। अदीब साहरनुरी साहब का इंदौर से पाकिस्तान जाने में ऐसे ही मसखरों ने रोल अदा किया था, जो अदबी महफ़िलों में शाइरों का मज़ाक़ उड़ाने के लिए आते हैं।

*आइए अदीब सहारपुरी साहब के कुछ अश’आर देखें:
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*(1)*
*इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवां रहने दिया,*
*जानकर हमने उन्हें ना-मेहरबां रहने दिया।*
*आरज़ू-ए-क़ुर्ब भी बख़्शी दिलों को इश्क़ ने,*
*फ़ासला भी मेरे उनके दरमियां रहने दिया।*
*अपने-अपने हौसले, अपनी तलब की बात है,*
*चुन लिया हमने तुम्हें,सारा जहां रहने दिया।*
*ये भी क्या जीने में जीना है बग़ैर उसके ‘अदीब’,*
*शम्मा गुल कर दी गई, बाक़ी धुआं रहने दिया।*
*(2)*
बख़्शे फिर उस निगाह ने अरमां नये-नये,
महसूस हो रहे हैं,दिलो-जां नये-नये।
मस्जिद में और ज़िक्र बुतों का जनाब-ए-शेख़,
शायद हुए हैं आप मुसलमां नये-नये।
ख़ाना ख़राब हमसे जहां में कहां ‘अदीब’,
आबाद कर रहे हैं बयाबां नये-नये।
*(3)*-
*तिरे नाम की थी जो रौशनी, उसे ख़ुद ही तूने बुझा दिया,*
*न जला सकी जिसे धूप भी, उसे चांदनी ने जला दिया।*
*मैं हूं गर्दिशों में घिरा हुआ, मुझे आप अपनी ख़बर नहीं*,
*वो शख़्स था मेरा रहनुमा, उसे रास्तों में गंवा दिया।*
*जिसे तूने समझा रक़ीब था,वही शख़्स तेरा नसीब था,*
*तेरे हाथ की वो लकीर था, उसे हाथ से ही गिरा दिया।

(✍️ अखिल राज, पत्रकार-लेखक-शायर)

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