उत्तराखंडयुवासाहित्य

एक बाज़ू उखड़ गया जब से और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

हिंदी ग़ज़लकारों के लिए प्रेरणास्रोत हैं दुष्यंत कुमार

हिंदी ग़ज़ल के पर्याय दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि है। हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार का एक विशिष्ट स्थान है। उनकी तमाम ग़ज़लों में आम आदमी का दर्द शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। दुष्यंत कुमार का जन्‍म 27 सितंबर 1931 को उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था,  जबकि मौत 30 दिसंबर 1975 को हुई थी। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था।

मुरादाबाद से बी०एड० करने के बाद दुष्यंत कुमार 1958 में आकाशवाणी दिल्ली में आये। मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में रहे। आपातकाल के समय उनका कविमन क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ का हिस्सा बनीं। सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा। 30 दिसंबर 1975 की रात्रि में हृदयाघात से उनकी असमय मृत्यु हो गई। उन्हें मात्र 44 वर्ष की अल्पायु मिली।

1975 में उनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह’साये में धूप’ प्रकाशित हुआ। इसकी ग़ज़लों को इतनी लोकप्रियता हासिल हुई कि उसके कई शेर कहावतों और मुहावरों के तौर पर लोगों द्वारा व्यवहृत होते हैं। 52 ग़ज़लों की इस लघुपुस्तिका को युवामन की गीता कहा जाय, तो अत्युक्ति नहीं होगी। इसमें संगृहीत कुछ प्रमुख शेर हैं-

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है।

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।।

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मत कहो आकाश में कुहरा घना है।

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।।

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।

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मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही।

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।।

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कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता।

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।।

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खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए।

ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।।

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मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम।

तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।।

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कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए।

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।।

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होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए।

इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।।

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गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में।

सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।।

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एक जंगल है तेरी आँखों में।

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।।

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तू किसी रेल-सी गुजरती है।

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।।

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दुष्यंत कुमार  की कविता का भी जन्म वाल्मीकि की तरह दर्द से दर्द से हुआ है। इसलिए उसमें आम आदमी का दर्द हैं–

कई फाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में।

वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।।

दुष्यंत कुमार का समस्त काव्य मानवता का गायक है। इसलिए उसमें मानवीय पीड़ा के साथ विषय के लिए विश्वास भी है। संघर्ष के लिए आकुल मानवता के प्रश्नों को खोजते हुए भी वे लक्षित होते है। गाँधी जयंती पर दुष्यंत कुमार ने लिखा–

मेरी तो आदत है, रोशनी जहाँ भी हो;

उसे खोज लाऊँगा।

कातरता, चुप्पी या चीखे,या हारे हुओं की खोज, जहाँ भी मिलेगी, उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा।

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स्वतंत्रता के बाद भारत में निरंतर तेजी से जीवन मूल्य ध्वस्त हो रहे है। दुष्यंत कुमार ने इन बिखरते और टूटते जीवन-मूल्यों को अपने काव्य का विषय बनाया है। वे एक जनवादी कवि है। अतः वे साथियों से साफ-साफ कहते हैं:

मुझसे हमदर्दी है तो,मेरी पीड़ा का कारण समझो-बूझो;

मेरे मित्रो जल्दी आकर मेरे संग-संग इन आवाजों से जूझो।

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इनकी ध्वनियों को बदलो, इनके अर्थों को बदलो,इनको बदलो।

दुष्यंत जी आस्थावादी है। वे आस्था के कवि है अतः पराजय, घुटन के बावजूद समस्याओं के समाधान के लिए राह खोजने की सामर्थ्य उनकी स्वस्थ सामाजिकता की परिचायक हैं–

आह! वातावरण में घुटन है,

सब अंधेरे में सिमट जाओ और सट जाओ,

और जितने आ सको, उतने निकट आओ,

हम यहाँ से राह खोजेंगे।

और भी-सूर्योदय मुझ से ही होना हैं।

 

कला-पक्ष की अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी दुष्यंत की कविता अत्यंत सक्षम है। सीधी-सादी, सरल अभिव्यक्ति, वार्तालाप की शैली, चिर-परिचित बिम्ब विधान तथा आम आदमी की बोली-बानी दुष्यंत कुमार के शिल्प-विधान की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। दुष्यंत कुमार को लगता है कि शब्दों ने अपनी सार्थक पहचान खो दी है। अतः संप्रेषणीयता पर विचार करते हुए वे कहते हैं–

लब्ज एहसान से छाने लगे, ये तो हद हैं।

लब्ज माने छुपाने लगे, ये तो हद हैं।

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दुष्यंत कुमार की चार ग़ज़लें

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ।

एक जंगल है तेरी आँखों में।
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।।

तू किसी रेल सी गुज़रती है।
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।

हर तरफ़ एतराज़ होता है।
मैं अगर रौशनी में आता हूँ।।

एक बाज़ू उखड़ गया जब से।
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ।।

मैं तुझे भूलने की कोशिश में।
आज कितने क़रीब पाता हूँ।।

कौन ये फ़ासला निभाएगा।
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।।

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ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती।
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती।।

इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं।
जिन में बस कर नमी नहीं जाती।।

देखिए उस तरफ़ उजाला है।
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती।।

शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना।
बाम तक चाँदनी नहीं जाती।।

एक आदत सी बन गई है तू।
और आदत कभी नहीं जाती।।

मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन।
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती।।

मुझ को ईसा बना दिया तुम ने।
अब शिकायत भी की नहीं जाती।।

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वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है।
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है।।

वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू।
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।।

सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर।
झोले में उस के पास कोई संविधान है।।

उस सर-फिरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप।
वो आदमी नया है मगर सावधान है।।

फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए।
हम को पता नहीं था कि इतना ढलान है।।

देखे हैं हम ने दौर कई अब ख़बर नहीं।
पावँ तले ज़मीन है या आसमान है।।

वो आदमी मिला था मुझे उस की बात से।
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है।।

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इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है।
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।।

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों।
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी।
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी।
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।।

निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी।
पत्थरों से ओट में जा-जाके बतियाती तो है।।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर।
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।।

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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा।
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा।।

यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ।
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।।

ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते।
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा।।

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है।
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।।

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उस के बारे में।
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।।

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं।
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।।

चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें।
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।।


तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं।

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।।

मैं बे-पनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ।

मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।।

तिरी ज़बान है झूटी जम्हूरियत की तरह।

तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं।।

तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जाएँ।

अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।।

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक कर।

तू इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं।।

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ।

ये मुल्क देखने लाएक़ तो है हसीन नहीं।।

ज़रा सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो।

तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं।।

 

 

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