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प्रकृति का चितेरा शायर सुभाष पाठक ‘ज़िया’

सुभाष पाठक ‘ज़िया’ आज के दौर के बेहतरीन नौजवान शायर हैं जो ग़ज़ल की रिवायत पर चलते हुए जदीद शायरी कर रहे हैं और उनकी ज़िया रफ़्ता रफ़्ता चारों तरफ फैल रही है। अभी कुछ दिनों पहले ही उनकी ग़ज़लों का दूसरा मजमुआ ’तुम्हीं से ज़िया है’ पढ़ने का शरफ़ हासिल हुआ। इससे पहले उनका उर्दू ग़ज़लों का एक ख़ूबसूरत मजमुआ ‘दिल धड़कता है’ मंज़रे आम पर आया था जिसे मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की जानिब से शाया किया गया था। चूंकि आज बात दूसरे मजमुए ’तुम्हीं से ज़िया है’ पर करनी है तो मैं यही कहूँगी कि यह नायाब मजमुआ है जिससे गुज़रना किसी ख़ूबसूरत गुलशन से गुज़रने की मानिंद है जिसकी ख़ुशबू देर तक आपके ज़ेहन में कयाम करती है।

  1. एक कहावत है कि शायर जैसे जैसे उम्र दराज़ होता जाता है उसकी शायरी उतनी ही जवान होती चली जाती है लेकिन सुभाष इस मिथक को तोड़ते हुए नज़र आते हैं। इस उम्र में भी उनकी शायरी में वह पुख़्तगी है जो कम ही शोअरा को हासिल होती है। ‘तुम्हीं से ज़िया है’ से गुज़रते हुए यह महसूस हुआ कि ग़ज़लों में इस उम्दगी सादगी और आसूदगी से अशआर कहे गए हैं कि इसे समझने में किसी तरह की कोई दुश्वारी पेश नहीं आती है। आम बोलचाल की जु़बान में की गई शायरी दिलों को छूते हुए अज़हान को फ़तह कर अपनी जगह बनाती है।
    सबसे पहले ज़िक्र उस ग़ज़ल का करना चाहूंगी जिसकी रदीफ़ ही मजमुए का उनवान है ‘तुम्हीं से ज़िया है’ लंबी बहर की यह खूबसूरत ग़ज़ल अपनी नायाब रदीफ़ की वजह से आकर्षित करती है जिसमें भरपूर रवानी है और पढ़ते हुए अलग तरह का लुत्फ़ आता है।इस ग़ज़ल का मतला यूँ है –

चलो आइने से मिलो और ख़ुद को निहारो संवारो तुम्हीं से ज़िया है
थकन को उतारो न यूं थक के हारो वफ़ा के सितारो तुम्हीं से ज़िया है

लंबी बहर को निभाना और इतनी ख़ूबसूरती से निभाना आसान नहीं है लेकिन सुभाष ने ये कमाल बख़ूबी किया है।

ज़िया की शायरी में हुस्ने कायनात यानी कि प्रकृति यानी कि फूल पत्ते, चांद, सितारे तितली, मौसम, जुगनू वगैरह का ख़ूब इस्तेमाल हुआ है। मैं तो उन्हें प्रकृति का शायर कहना पसंद करूंगी।
प्रकृति से जुड़े उनके कुछ ख़ूबसूरत अशआर देखें –

आज तितली ने कह दिया खुल के
उसको नखरे पसंद हैं गुल के

आम की डाल यूँ न इतरा तू
दोस्त हम भी रहे हैं बुलबुल के

शाम समेट रही है आंचल मेरे पास रहो
फैल रहा है रात का काजल मेरे पास रहो

तू दरख़्तों को परिंदों को सुनाना क़िस्से
वो सुनें या न सुनें पर निभाना दस्तूर

तितली ने जब से चूम लिए होंठ फूल के
तब से हर एक शाख़ तके झूल-झूल के

इनकी शायरी में तग़ज़्ज़ुल,समाजी रवैयों की मंज़रकशी भी देखने को मिलती है।इनकी शायरी में इंसानी मिज़ाज के मौसमे-ग़म की शिद्दत को साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है।
इस मजमूए में कुछ शेर ऐसे हैं जिन पर ठहर कर ही उन्हें महसूस किया जा सकता है। ऐसा ही एक शेर है जो बहुत मशहूर हो चुका है, मैं तो कहूंगी कि इस शेर के लिए सुभाष जाने जाते हैं –

कोई दामन कोई शाना होता
मेरे अश्कों का ठिकाना होता

कौन होगा जो इस शेर के दर्द की शिद्दत को महसूस न करेगा।ऐसे ही कुछ अशआर जिनमें दर्द के साथ ज़िन्दगी के फलसफे़ को भी समझा जा सकता है-

सब गुज़रते हैं मेरे सीने से
मैं हूँ इक पायदान चौखट का

हम कहां ज़िंदगी से हारे हैं
रूह का पै’रहन उतारे हैं

इस संग्रह से सुभाष जी के चन्द शेर जो उनकी ख़ासियत को बयान करते हैं –

राब्ता इक हसीन टूटा है
फूल ताज़ा तरीन टूटा है

दिल तो कॉमन से चीज़ है यारो
मुझसे उसका यक़ीन टूटा है

जिसमें तुमने भरी थी सांस अपनी
मैंने वो ही बलून लूटा है

सुभाष हमेशा ही कुछ नया कहने की कोशिश करते हैं नई- नई रदीफ़ें इस्तेमाल करते हैं। नई रदीफ़ और नई ज़मीनों पर कही गईं उनकी ग़ज़लें उन्हें अलग मुक़ाम पर लाकर खड़ा करती हैं। इस मजमुए से ही उनका एक शेर है जिसमें उनकी सोच झलकती है

सोचता रहता हूँ रोज़ो- शब कहूं क्या
सब कहें,वो ही कहा है,अब कहूं क्या?

इस शेर के ज़रिए वो बताना चाहते हैं कि उनके अंदर अलग कहने का जुनून है।
कुछ नया कहने का जुनून हमेशा अच्छे अशआर से नवाज़ता है,नई ज़मीनें मुहैया कराता है और यह जुनून इनकी ग़ज़लों में बख़ूबी नज़र आता है।

सुभाष ने दर्द के साथ इश्क़ के एहसास को भी अपने अल्फ़ाज़ में ढाला है। ऐसा ही एक शेर जिसमें इश्क़ की शिद्दत को महसूस किया जा सकता है वह शेर है –

कुछ भी नहीं है मेरा मुझ में
दिल तुम्हारा है जां तुम्हारी है

पुरानी रिवायत और नई सोच साथ ले कर चलने वाले शायर की शायरी में कहीं कहीं पुराने शायरों की शायरी की ख़ुशबू भी मिल जाती है।एक शेर में तो सुभाष मशहूर शायर मीर तकी मीर से टकराते हुए नज़र आते हैं।मीर तकी मीर का एक मशहूर शेर –

इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है
कब वो तुझ नातवां से उठता है

सुभाष ने इस शेर का अपने अंदाज़ में क्या ख़ूब जवाब दिया है जिस पर दिल से दाद निकलती है।वो कहते हैं कि-

हम तो वो पत्थर उठाए फिरते हैं
‘मीर’ जिसको कहे कि भारी है

इस मजमुए में कुछ ग़ज़लें ऐसी हैं जिनकी रदीफ़ पर बात न की जाए तो बात अधूरी रह जाएगी। सांकल खोल, कांच के टुकड़े, कि जैसे बर्फ़, उसने कहा था, दर्द, दर्द का क़िस्सा, जैसी रदीफ़ों ने इनकी ग़ज़लों को ऊंची परवाज़ दी है।

चंद और अशआर जिनका ज़िक्र यहां ज़रूरी समझती हूँ क्योंकि ये वो अशआर हैं जो देर तक ज़ेहन में शोर मचाते रहते हैं।

ज़ख़्म-ए-जिगर को देखकर हँसने लगी थी रात
बस इसलिए चराग़ बुझाना पड़ा मुझे

दिल पे क्या क्या सितम नहीं गुज़रे
शुक्र कीजे कि हम नहीं गुज़रे

क्यों न अब उसके रू ब रू रोएं
अब के आंसू नहीं लहू रोएं

मैं ज़ियादा न आप कम रोओ
पास आओ कि हू ब हू रोएं

इस मजमुए की सारी गज़लें बेहतरीन हैं, हर एक ग़ज़ल का तब्सिरा मुश्किल है।

सुभाष पाठक ज़िया जी को मेरी तरफ़ से बहुत बहुत शुभकामनाएं,नेक ख़्वाहिशात।वो इसी तरह नई नायाब ग़ज़लें कहते रहें, अपनी ज़िया बिखेरते रहें,नए नए आयाम गढ़ते रहें,पुरस्कृत होते रहें।

पुस्तक- ‘तुम्हीं से ज़िया है’
समीक्षक – ग़ज़ाला तबस्सुम
ग़ज़लकार- सुभाष पाठक ‘ज़िया’
प्रकाशन – अभिधा प्रकाशन
वर्ष- 2022
मूल्य- 300 रुपये

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