शहर से आई ब्वारी को नपवा रहे डांडे-कांठे
उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में अजब-गजब नज़ारा

देहरादून: उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायतों के लिए चल रहा प्रचार देखिये, महिला सीट पर अधिकांश स्थानों पर प्रचार में भी महिला नहीं दिख रही है. पुरुष शान से पोस्ट डाल रहा है- आज चुनाव प्रचार में जनता का भारी आशीर्वाद मिला ! अरे भाई जो उम्मीद्वार है, उस तक तो पहुंचने दो ये आशीर्वाद !
एक तरफ तस्वीर यह है कि पंचायतों में महिला के प्रचार, फूल- माला, आशीर्वाद पर पुरुष का कब्जा है, महिला के पोस्टर में पुरुष अनिवार्य शर्त की तरह मौजूद है ! लगता है कि पुरुष का चेहरा और नाम पोस्टर में चुनाव चिन्ह से भी ज्यादा जरूरी है ! दूसरी तरफ शहर से गांव आ कर चुनाव लड़ने को लेकर जितने चुटकुले सोशल मीडिया में चल रहे हैं, वे सब महिलाओं पर कटाक्ष कर रहे हैं. सारे चुटकुले इस बात पर हैं कि ब्वारी (बहु) आज तक तो शहर से गांव आई नहीं और अब कह रही है कि गांव का विकास करेगी ! कोई चुटकुले में या धरातल पर यह नहीं कह रहा है कि आज तक बेटे ने ब्वारी को गांव के दर्शन तक नहीं कराए और अब पंचायत पर परोक्ष रूप से काबिज होने के लिए ब्वारी को डांडे-कांठे , उकाळ- उंदार नपवा रहा है।
महिला जीतेगी तो पंचायतों का बस्ता, मोहर सब पुरुष कब्जे में लेने की कोशिश करेगा. पुरुष जीतता है तो वो कहता है कि मैं चुनाव जीता, महिला जीतती है तो वही पुरुष कहता है- हम जीते हैं. सैकड़ों पुरुष नए पीपी होने को तैयार हैं। पीपी समझते हैं ना आप- प्रधान पति. इस शब्द का ज्यादा मखौल होने लगा तो जब वो पुरुष सामने होता है तो लोग पुकारते हैं- हां जी, पीपी साहब, फिर उसका फुल फॉर्म बोलते हैं- प्रधान प्रतिनिधि ! गांव का प्रतिनिधि प्रधान और प्रधान का प्रतिनिधि, उसका पति ! गज़ब ! इसी तरह क्षेत्र पंचायत पी हैं, जिला पंचायत पी हैं, मुंह सामने प्रतिनिधि और बाकी तो आप समझते ही हैं….
उत्तराखंड पंचायत राज अधिनियम की धारा 8 (1) (त) , 53(1) (त) , 90 (1) (त) में क्रमशः ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत में महिला प्रतिनिधियों के स्थान पर पुरुष के काम करने पर पाबंदी है, दंडस्वरूप महिला व पुरुष दोनों को ही चुनाव लड़ने से अपात्र घोषित करने का प्रावधान है, पर पीपी और अन्य “पी’ का जलवा फिर भी कायम है।
सवाल यह है कि प्रशासन, शिक्षा, पुलिस, फौज से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक जब महिलाएं स्वतंत्र रूप से संभाल लेती हैं तो राजनीति, खास तौर पर ये त्रिस्तरीय पंचायतें ही ऐसी कौन सी तोप हैं, जो महिलाएं स्वतंत्र रूप से नहीं चला पाएंगी ? लेकिन महिलाएं चलाएंगी कब ? जब उन्हें स्वतंत्र रूप से चलाने दिया जाएगा. कानून में प्रावधान हो गया कि त्रिस्तरीय पंचायतों में पचास प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे. लेकिन सामंती- पितृसत्तात्मक मानसिकता, महिलाओं को नियंत्रित रखना चाहती है. इसलिए इस मानसिकता का वाहक पुरुष, आरक्षण की कानूनी बाध्यता के चलते, महिला को सिर्फ मुखौटे की तरह सामने रख कर पंचायतों पर और प्रकारांतर से सामाजिक सत्ता पर भी अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना चाहता है. सामंती-पितृसत्तात्मक मानसिकता के विरुद्ध महिला समानता और अधिकार के संघर्ष का मोर्चा, ये त्रिस्तरीय पंचायतें भी हैं. इनमें महिलाओं को प्रचार अभियान से लेकर पदारूढ़ होने तक स्वयं निर्णय का अधिकार हासिल हो, इसके लिए पारिवारिक,सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जूझने की आवश्यकता है।
(इंद्रेश मैखुरी की वाल से साभार)