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छुमछुम बाबा…सागर साहब…सलमा और वो

     किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं थी उस्ताद शायर सागर साहब की कहानी। एक लड़की से उन्हें प्रेम हुआ। लड़की ने शादी की इच्छा जताई, लेकिन एक नवाब उनकी प्रेम कहानी के बीच में आ गए और दोनों का प्यार अधूरा रह गया। इश्क की यह कहानी उज्जैन के तांगा स्टैंड से शुरू होती है। दिन का वक़्त है। बुर्का पहने एक लड़की तेज़ क़दमों से उज्जैन के एक तांगा स्टैंड की तरफ़ आ रही है। स्टैंड पर एक ही तांगे वाला है और वो भी आगे की सीट अपनी पीठ टिकाए कोई ग़ज़ल गुनगुना रहा है। लड़की जल्दी से उसके पास पहुंचती है तो उसके कानों में तांगे वाले के गुनगुनाने की आवाज़ आती है। तांगे वाले का मुंह आगे की तरफ़ है इसलिए उसे पता है कि पीछे कोई सवारी खड़ी है। लड़की चंद लम्हे उसे सुनती है फिर थोड़ा ज़ोर से कहती है –

लड़की – साग़र सा. के यहां चलोगे?

तांगे वाला चौंककर पीछे देखता है और कहता है-

जी..जी.. ज़रूर। बैठिए।

लड़की तांगे में बैठ जाती और तांगे वाला अपनी मस्ती में फिर वही ग़ज़ल गुनगुनाने लगता है जो दरअसल साग़र साहब की ही है।

 

साग़र साहब की शोहरत का उज्जैन में वो आलम था कि किसी तांगे वाले को उनका पता नहीं बताना पड़ता था। उनका नाम ही उसका पता था। हर तांगे वाले को उनका घर मालूम था। जब भी कोई उनसे मिलने बाहर से आता तो उसे सिर्फ ये कहना होता था कि हमें साग़र सा. के घर जाना है। तांगे वाला सीधे उनके मकान, जिसका नाम ‘साग़र मंज़िल’ था, वहां पहुंचा देता था।

तांगा साग़र मंज़िल पर पहुंचता है। लड़की फौरन नीचे उतरती है और तांगे वाले को रुकने का इशारा कर साग़र मंज़िल में स्थित एक दुकान की तरफ़ चल पड़ती है। यहां गादी-रजाई आदि बनाने का काम होता है। वहां एक खूबसूरत नौजवान अपने काम में मशग़ूल है। लड़की दुकान के सामने खड़े होकर अपने बुर्क़े से अपना नकाब हटाती है और आवाज़ लगाती है..

साग़र साहब..साग़र साहब..!

वो नौजवान काम करते हुए लड़की को देखता है और फिर उठकर उसके पास आता है। लड़की मुस्कुराते कहती है —

चलिए !

साग़र सा. थोड़ा परेशान होकर इधर-उधर देखते हैं तो लड़की कहती है —

क्या हुआ.. इतने परेशान क्यों हैं ?

साग़र सा.– देखिए मुझ पर मेरे घर की ज़िम्मेदारी है..आपके साथ जाने से मेरा बहुत नुकसान हो जाता है.. रोज़ कम से कम दो रुपए तो कमा ही लेता हूं..उसी से घर की ज़रूरत पूरी होती है..।

 

इतना सुनते ही लड़की जल्दी से अपना बटुआ खोलती है और उसमें से चार रुपए निकालकर साग़र सा. हाथ में रखते हुए कहती है–

ये घर पर दे दीजिए और तांगे पर आ जाइए..

साग़र सा. हाथ में पैसे पकड़े रहते हैं तो लड़की दुबारा मुस्काराकर कहती है–

अब जाइए ना! वक्त गुज़रता जा रहा है।

साग़र साहब धीरे से मुड़ते हैं और घर में चले जाते हैं। लड़की सड़क पर खड़े तांगे में जाकर बैठ जाती है।

तांगा अपनी अपनी रफ़्तार से शहर के इस बाहरी इलाक़े की तरफ़ चला जा रहा है। तांगे में साग़र साहब और बुर्क़े वाली लड़की बैठी है। सड़क सुनसान है और लड़की ने अपना नक़ाब ऊपर कर लिया है। वो साग़र साहब को देखकर मुस्कुरा रही है। साग़र साहब भी उसकी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुरा कर देने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं।

तभी तांगा नील गंगा वाले इलाक़े में रुकता है। दोनों तांगे से उतरते हैं। लड़की तांगे वाले को पैसे देती है और फिर दोनों एक तरफ़ बढ़ जाते हैं।

एक हरे-भरे इलाक़े में एक पेड़ के नीचे साग़र साहब और वो लड़की बैठे हैं। लड़की ने बुर्क़ा उतार रखा है। उसकी रेशमी जुल्फें खुली हुई हैं। वो साग़र साहब के कांधे पर अपना सर रखे है और उसने एक हाथ से साग़र साहब का हाथ पकड़ रखा है। साग़र साहब किसी सोच में गुम होकर कहीं दूर देख रहे हैं। तब लड़की कहती है–

साग़र साहब.. मैं रोज़-रोज़ की इस मुलाक़ात से तंग आ गई हूं। मुझसे अब ये नहीं हो पाएगा.. मैं आपसे निकाह करना चाहती हूं।

इतना सुनते ही साग़र साहब चौंक पड़ते हैं और कहते हैं– ये कैसे मुमकिन है.. मैं एक मामूली सा इंसान हूं जिसका दिन, दो वक़्त की रोटी कमाने में गुज़र जाता है..और तुम एशो-आराम में रहने वाली औरत हो.. मेरी इतनी हैसियत नहीं कि मैं तुमसे निकाह कर के तुम्हें हर वो आसाइश मुहैया करवा सकूं जिसकी तुम्हें आदत है।

ये बात सुनते ही लड़की अपना सर उनके कांधे से हटाती है और कहती है–

आप मेरे लिए इस दुनिया के सबसे अमीर इंसान हैं.. मैं आपकी शाइरी की और आपकी दीवानी हूं..आप जिस हाल में मुझे रखेंगे, मैं ख़ुशी से रह लूंगी.. कभी आपको तकलीफ़ नहीं पहुंचेगी मुझसे.. मैं आपसे ये वादा करती हूं। इतना कहकर लड़की साग़र साहब का हाथ को ज़ोर से पकड़ लेती है।

साग़र साहब बेबस होकर उसे देखते रहते हैं। कुछ देर बाद वो उससे कहते हैं–

अब चलो..!

दोनों उठते हैं और एक तरफ़ बढ़ जाते हैं।

     उज्जैन के खूबसूरत नील गंगा इलाके में साग़र साहब की बाहें थामे वो लड़की चलती जा रही थी। उसे इस बात से कोई सरोकार ही नहीं था कि साग़र साहब उसे कहां ले जा रहे हैं। वो तो बस उनके साथ से ही इतनी ख़ुश थी कि जैसे उसके पास सारे जहान की दौलत आ गई हो। वे चलते-चलते एक जगह पंहुचे जहां छुमछुम बाबा बैठे हुए दिखाई देते हैं। साग़र साहब पर जैसे ही छुमछुम बाबा की नज़र पड़ी, तो वे हंस देते हैं । बाबा, साग़र साहब की ना’तों के दीवाने थे। वे उन्हें बहुत प्यार करते थे और साग़र साहब जितनी देर उनके पास बैठते, वो अपना हाथ, उनके सर पर फेरते रहते थे। साग़र साहब को छुमछुम बाबा से बहुत अक़ीदत थी। पास पहुंचकर दोनों ने बाबा को सलाम किया तो बाबा ने जवाब देकर बैठने का इशारा कर दिया।

बाबा ने साग़र साहब से किसी ना’त की फ़रमाइश कर दी। साग़र साहब ने उनके हुक़्म पर वो ना’त जब पेश कर दी तो छुमछुम बाबा बहुत ख़ुश हुए। उन्हें बहुत दुआएं दी और फिर अचानक उस लड़की की तरफ़ देखकर बोले– तू तो मुझे कहीं की रानी दिखाई देती है..।

इसके बाद ही छुमछुम बाबा ने उनसे कहा- अच्छा अब तुम जाओ.. मुझे कुछ और भी काम है।

साग़र साहब और वो लड़की फ़ौरन वहां से उठ गए और  शहर की तरफ़ रवाना हो गए। लड़की तो बहुत ख़ुश होकर यूं चल रही थी जैसे सारी दुनिया की खुशियां उसके दामन में समा गई हैं  लेकिन छुमछुम बाबा की बात सुनकर साग़र साहब का दिल उदास-सा हो गया था।

 

कौन थी वो लड़की—

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 जो ख़ूबसूरत लड़की साग़र चिश्ती उज्जैनी सा. की शायरी की दीवानी होकर अपने दिलो-जां से उन्हें चाहने लगी थी, दरअसल वो उज्जैन की सबसे मशहूर तवायफ़ थी। उस ज़माने में उसके हुस्न का चर्चा सिर्फ मालवा क्षेत्र के 22 राजा-महाराजाओं और जागीरदारों में ही नहीं बल्कि आज के मध्यप्रदेश से भी बाहर तक था। उसका मुजरा देखने वालों में सिर्फ अमीर लोग ही शामिल थे। जब वो मुजरा करती तो उसकी एक- एक अदाओं पर लोग जेब का सारा पैसा निछावर कर दिया करते थे। उसे दौलत की कोई कमी नहीं थी। लेकिन उसका नसीब की उसका दिल उन दौलतमंदों के बजाय एक ऐसे शख़्स पर आया जिसे हर रोज़ अपनी रोटी कमाने के लिए मेहनत करनी पड़ती थी। ग़ालिब साहब ने ठीक ही कहा था-

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’

के लगाये न लगे और बुझाए न बने।

इश्क़ की आग अब दोनों तरफ़ ऐसी लग चुकी थी कि बुझने का अब सवाल ही नहीं था।

लेकिन कुदरत को जैसे यह मंजूर न था।

सामने बहती क्षिप्रा नदी के किनारे एक दरख़्त की छांव में दुनिया से बेख़बर होकर दो मुहब्बत करने वाले अपनी ही दुनिया में मगन हैं। जैसे उनका सारा सुख बस इस दरख़्त के साये तले उतर आया है। साग़र साहब की गोद में सर रख कर वो लड़की जिसे हम सलमा नाम दे देते हैं, वो लेटी हुई है। उसने अपने हाथ में साग़र साहब का हाथ ले रखा है और वो उनकी उंगलियों से खेल रही है। मगर साग़र साहब हैं कि वो न जाने कहां खोये हुए हैं। उन्हें ख़ामोश देखकर बहुत देर बाद सलमा उनसे कहती है–

क्या बात है साग़र साहब.. आप कुछ ज़्यादा ही परेशान नज़र आ रहे हैं.. अरे परेशान मत होइए..आप तो अपना सेहरा तैयार करवाइए बस..

इतना कहते ही सलमा हंस पड़ती है और हंसते हुए कहती है —

अब हमें आप की दुल्हन बनने से कोई रोक नहीं सकता..बस चंद रोज़ की बात है।

साग़र साहब तब एक गहरी सांस छोड़ते हैं और सलमा की तरफ़ देखकर कहते हैं–

क्या तुमने छुमछुम बाबा की बात नहीं सुनी.. उन्हें तुम किसी की रानी के रूप में दिखाई दी हो..।

इतना सुनते ही सलमा,साग़र साहब की गोद से उठते हुए कहती है–

जब मैं आपके सिवा किसी की होना ही नहीं चाहती हूं तो कोई कैसे मुझे अपनी रानी बना सकता है.. मैं रानी बनूंगी तो सिर्फ आपकी।

फिर तैश में आकर सलमा साग़र साहब से कहती है —

 मुझे दुनिया की कोई ताक़त आपसे जुदा नहीं कर सकती साग़र साहब।

साग़र साहब ने जब सलमा के तेवर देखे तो वो ख़ामोश हो गये लेकिन उन्हें तब भी सलमा की बात पर यक़ीन नहीं आ रहा था। उनके ज़हन में बस छुमछुम बाबा की वो बात गूंज रही थी कि उन्होंने सलमा को किसी की रानी के रूप में देखा है।

 

उज्जैन का एक मशहूर कोठा:

 

ये उज्जैन का एक मशहूर कोठा है जिसके चर्चा की वजह यहां की सबसे ख़ूबसूरत तवायफ़ सलमा है।  आज इस कोठे पर कुछ ज़ियादा ही रौनक़ है क्योंकि आज जावरा नवाब के अलावा कुछ और ख़ास लोग सलमा का मुजरा देखने आने वाले हैं। इसलिए कोठे पर ख़ादिमों की भी तादाद ज़ियादा है। हर कोई मुस्तेदी अपने काम को अंजाम दे रहा है। सलमा अपने कमरे में सज-संवर रही है और सोच रही है कि आज के इस मुजरे के बाद वो इस काम को छोड़कर साग़र साहब के साथ एक नई ज़िंदगी का आग़ाज़ करेगी। ख़ुद को संवारते हुए वो साग़र साहब के साथ गुज़रने वाले दिनों का तसव्वुर भी करती जा रही है और मन ही मन में ख़ुश हुए जा रही है। कोठे पर अब रात जवान होने लगी है और लोगों का आना शुरू हो चुका है। कोठे की मालकिन एक मोटी तगड़ी औरत जो एक तरफ़ बैठी है,वो आने वालों को आदाब कर रही है और उनका इस्तकबाल कर रही है।

 जिनका इंतज़ार था, अब वो जावरा नवाब भी तशरीफ़ ला चुके हैं। सलमा को ख़बर भेज दी गई है कि अब महफ़िल शुरू की जाए। कुछ ही देर में सलमा  जैसे ही महफ़िल में क़दम रखती है तो जैसे बिजलियां चमकने लगती हैं । और फिर सुर और ताल की जंग छिड़ते ही शुरू हो जाता है सलमा का मुजरा, जो देखने वालों के दिलों पर क़यामत बन जाता है। आधी से ज़ियादा रात  सलमा के मुजरे में खोकर कब गुज़र गयी है, ये किसी को पता ही नहीं चला है।सलमा के नृत्य में आज कुछ ज़ियादा ही फुर्ती और चपलता नज़र आ रही है। शायद वो अपने इस आख़री मुजरे में अपनी इस कला का भरपूर प्रदर्शन कर इसे हमेशा के लिए इसी कोठे में दफ़्न करने का इरादा कर चुकी है। वो अपने नये मुस्तक़बिल के लिए अपनी इस तवायफ़ की ज़िंदगी से आज रात पूरी तरह छुटकारा पा लेना चाहती है। लेकिन उसे पता नहीं है कि आज की रात कुछ ऐसा होने वाला है जो उसकी ज़िन्दगी का रूख़ ही बदल डालेगा। और फिर उस रात का वो लम्हा आ ही गया जिसके बारे में सलमा ने कभी सोचा भी नहीं था।

 

रात में मुजरे का हंगामाख़ेज़ आख़िरी दौर जैसे ही ख़त्म हुआ, जावरा नवाब ने अचानक उठकर अपनी शाल, सलमा पर डाल दी है। पहले तो लोग समझे कुछ नहीं  लेकिन फिर देखते ही देखते वहां हंगामा मच गया है। कुछ लोग जावरा नवाब के ख़िलाफ़ खड़े हो गए। क्योंकि किसी का किसी तवायफ़ पर अपनी शाल डालने का मतलब होता है कि अब वो उसकी हो गई है।कोठे पर मौजूद लोगों में दो गुट हो गये हैं और वहां इस बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया कि जावरा नवाब ने सलमा पर शाल क्यों डाली। उधर जावरा नवाब भी कम नहीं हैं। वो कह रहे थे कि रिवायत के मुताबिक अब  सलमा हमारी हो चुकी है। हम इसे लेकर ही जाएंगे। ज़रा सी देर में ये बात पूरे शहर में फैल गई और दोनों तरफ़ के समर्थक पूरी तैयारी से कोठे पर जमा होने लगे..शहर में तनाव के हालात पैदा हो गये। सलमा भी जावरा नवाब की बात मानने को तैयार नहीं थी। कई लोग बीच बचाओ के लिए आ चुके थे और जावरा नवाब को समझने लगे थे लेकिन जावरा नवाब मानने को तैयार नहीं थे। अब तो नवाब के भी लोग बड़ी तादाद में वहां जमा हो चुके थे। जब नौबत ख़ून ख़राबे तक आ पहुंची तो आख़िर में सलमा ने अपने नसीब से हार मान ली और वो जावरा नवाब के साथ जाने को तैयार हो गई। तब नवाब ने तयशुदा रक़म अदा की  और सुबह के वक़्त वो सलमा को लेकर रवाना हो गए । बस एक रात में सलमा का नसीब बदल चुका था और उसे छुमछुम बाबा की वो बात याद आ रही थी कि तुम मुझे किसी की रानी दिखाई दे रही हो। सलमा ने अपने आंसू भरी आंखों से अपने महबूब, साग़र साहब के इस शहर को आख़री बार देखा और धीरे से कहा- अलविदा.. साग़र साहब।

 

ये सारा वाक़या रवि शबाब सा. ने मुझे बताया था जो उन्होंने मोहतरम साग़र चिश्ती उज्जैनी सा. की ज़ुबानी सुना था। शबाब सा. से साग़र साहब ने अपनी ज़िंदगी की कई निजी बातें शेयर की थीं, जिनका ज़िक्र हम आगे भी करते रहेंगे।

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—कौन थे छुमछुम बाबा–

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छुमछुम बाबा एक मलंग थे जो निमाड़ के धरमपुरी के एक सैयद घराने से थे। उनके गुरु थे लाबरिया भेरू इंदौर के हज़रत मोती शाह बाबा। ये मदारिया सिलसिले से थे जिसका आगाज़ दादा बदीउद्दीन ज़िंदा शाह मदार ने किया था। उनका मज़ार कानपुर के मक्खन पुर में आज भी है। मध्यप्रदेश में मदारिया सिलसिले के क़रीब 150 मलंगों के मज़ार हैं। जब छुमछुम बाबा पहली बार उज्जैन आये थे तो नील गंगा इलाक़े में रमज़ानी बाबा का जामफल का बगीचा उन्हें बहुत पसंद आ गया था। उन्होंने कहा था कि मेरे मरने के बाद मुझे यहीं दफ़नाया जाए। उनका इंतकाल इंदौर राजबाड़ा में हुआ था। वहां से उन्हें उज्जैन लाकर इस बगीचे में दफ़्न किया गया था जहां अब हर साल उनका उर्स मनाया जाता है।

उस समय उनकी शोहरत का आलम ये था कि मालवा क्षेत्र के 22 राजा-महाराजा और जागीरदारों के अलावा आम लोग भी उनके प्रति बहुत श्रृद्धा रखते थे।

(✍️ अखिल राज, पत्रकार-लेखक-शायर)

 

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