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उत्तराखंड में रंगमंच को बचाने के लिए राज्य नाट्य अकादमी की ज़रूरत: डॉ. अतुल शर्मा

- जनकवि और रंगकर्मी डॉ. अतुल शर्मा से shabdkrantilive.com ने की खास बातचीत, रंगकर्मियों की स्थिति को लेकर छलक उठा जनकवि डॉ. अतुल शर्मा का दर्द, पृथक उत्तराखंड राज्य समेत विभिन्न आंदोलनों के लिए रचे कई गीत

पचास से ज्यादा साल कविता को देने वाले जनकवि डॉ. अतुल शर्मा रंगमंच के प्रति भी समर्पित हैं। अतुल ने नाटकों के लिए न केवल गीत लिखे, बल्कि बच्चों के लिए कार्यशाला भी आयोजित की। बच्चों में नाटक के प्रति रुचि जगाने के लिए बाल नुक्कड़ नाटक नाम से संस्था भी बनाई। पिछले दिनों shabdkrantilive.com की डॉ. अतुल शर्मा से मुलाकात हुई तो उनकी साहित्यिक यात्रा के अलावा रंगकर्म पर भी विस्तार से बात हुई। इस दौरान मौजूदा दौर में रंगमंच की स्थिति को लेकर बात की तो उनका दर्द छलक उठा। उन्होंने रंगमंच को बचाने के लिए हिंदी, पंजाबी और उर्दू अकादमी की तर्ज पर उत्तराखंड राज्य नाट्य अकादमी बनाने की जरूरत पर जोर दिया। बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।

सवाल: अतुल जी आपने कविताओं के अलावा रेडियो नाटक भी लिखे। उत्तराखंड के पृथक राज्य बनने से पहले और उसके बाद राज्य खासकर देहरादून में रंगमंच की स्थिति को आप किस तरीके से देखते हैं?
जवाब: मैं पृथक राज्य बनने से पहले के दौर में जाना चाहूंगा, क्योंकि नाटकों की नींव काफी पहले से थी।देहरादून जब उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था, तो उस समय बंगाल से कुछ लोग आए, जो सर्वे आफ इंडिया में दुर्गा पूजा पांडाल सजाते थे। इसके बाद लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब बना और उसकी स्थापना करने वाले थे साधुराम महेंद्रू, जिनका साधुराम इंटर कॉलेज है। पहले उसमें पारसी थियेटर हुआ करता था। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने बाल विवाह और दहेज प्रथा जैसे सामाजिक विषयों पर नाटक शुरू किए। इसके बाद पृथ्वीराज कपूर ने यहां पर थिएटर किया। उनके दो नाटक ‘लड़ाई’ और ‘दहेज’ मंचन हुआ, जिसमें जोहरा सहगल भी हुआ करती थी। धीरे-धीरे समय बदला और आधुनिक थिएटर की स्थापना हुई, जिसमें कला मंच और जागृति जैसे कई क्लब अस्तित्व में आए और रंगमंच को गति दी। इसके बाद उत्तराखंड में थिएटर के लिए एक टर्निंग प्वाइंट आया और वह 1978 का वर्ष था। इस दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली से बंसी कौल आए और उन्होंने सभी संस्थाओं को इकट्ठा किया और एक बड़ी वर्कशॉप की, तब यहां के रंगकर्मियों को पता चला कि रंगमंच के कितने आयाम होते हैं और कैसे संवाद अदायगी होती है। उस वर्कशॉप में फिर एक नाटक का मंचन हुआ, जिसका नाम था सूरज का सातवां घोड़ा, जो धर्मवीर भारती का लिखा था। इसमें श्रीश समेत कई लोग थे। फिर उससे एक परिवर्तन आया और रंग आंदोलन शुरू हुआ। उस दौरान अवधेश कौशल होते थे, नेहरू युवा केन्द्र से संबंधित थे। इसी रोड पर उनकी कोठी में रिहर्सल हुआ करती थी। लेकिन मौजूदा दौर की बात करें, तो आज रिहर्सल करने की जगह नहीं है। रिहर्सल नहीं कर पा रहे हैं। कभी किसी के घर तो कभी कोई जगह किराए पर लेकर रिहर्सल करते हैं, जबकि अवधेश कौशल के यहां रिहर्सल का पूरा स्थान मिल जाता था और उसे देहरादून का मंडी हाउस कहते थे। वहां सभी रचनाकार और रंगकर्मी इकट्ठा हुआ करते थे। उसी के सामने एक चाय का खोखा था, जिसे फाइव स्टार कहा जाता था।
वहां पर विमर्श होते थे, जिसमें हिमानी शिवपुरी शामिल होती थी। श्रीश के अलावा चंद्रमोहन बौंठियाल, निवेदिता, सुजाता पाल और राम प्रसाद सुन्दरियाल भी शामिल होते थे। यही नहीं, राजधानी देहरादून में एक समय था, जब दादा अशोक चक्रवर्ती से लेकर नवनीत गैरोला, अभिषेक मेंदोला, आदेश नारायण ही नहीं बहुत से सशक्त रंगकर्मियों के साथ नाट्य समारोहों की अलग ही धूम होती थी। ज़हूर आलम द्वारा जिस लाहौर नी वेख्या हो या गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी नाटक हों। भवानी दत्त थपलियाल के प्रहलाद नाटक या जय विजय नाटक हो वातायन द्वारा। साहित्य कला संस्कृति परिषद का नाट्य समारोह भी चर्चा का विषय रहता था। संस्कृति विभाग के अलावा भी विभिन्न रंग संस्थाएं सक्रिय रही हैं।

टिहरी में नाट्य कार्यशाला में प्रशिक्षण देते डॉ. अतुल शर्मा।

इनके अलावा, एक अमरदीप झा थे, जो एनएसडी से पासआउट थे और एक जानी-मानी संस्था के संस्थापक थे। उस वर्कशॉप का बहुत बड़ा प्रभाव नाटकों के चयन पर पड़ा। वह उत्तर प्रदेश का समय था और उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की तरफ से देहरादून में नाट्य समारोह हुआ करता था। उस समय देश भर के रंगकर्मियों के नाटक होते थे, जिसमें हबीब तनवीर, उर्मिल थपलियाल, जयदेव के नाटक शामिल थे। उषा गांगुली जैसी बड़ी रंगकर्मी भी शामिल होती थी। इससे यहां के रंगकर्मियों पर गहरा और गंभीर प्रभाव पड़ा, जिससे लोग आगे भी आए थे। उत्तराखंड बनने के बाद रंग मंडल का गठन हुआ, उसने कई नाटक किए, वर्कशॉप की, लेकिन मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि वह गति नहीं मिल पाई, इसका कारण संसाधन की कमी भी हो सकती है। इसका एक कारण यह भी था कि थिएटर से जुड़े अधिकांश लोग नौकरीपेशा थे, वह फुलटाइम रंगकर्मी नहीं थे। नौकरी से जितना समय मिलता था, वह नाटकों को देते थे। ऐसे में फुलटाइमर रंगकर्मियों की संख्या घटती चली गई। संस्थाएं आज भी हैं, वह वर्ष में एक बार नाट्य समारोह का आयोजन कर लेती हैं। रंग निर्देशक स्वर्ण रावत ने भी कई नाट्य प्रस्तुति दी, लेकिन अब थिएटर को लेकर वह रिदम नहीं दिखता।

सवाल: सरकार लोक कलाकारों को आगे बढ़ाने की बात करती है। देहरादून में पहले जैसा थिएटर का माहौल बने, इसके लिए क्या करना चाहिए?
जवाब: इसके लिए कई सुझाव हो सकते हैं। समय-समय पर लोगों ने दिए भी हैं। इसके लिए थिएटर वर्कशॉप बहुत जरूरी है। पहला, थिएटर वर्कशॉप हो, और जो फुलटाइम रंगकर्मी हैं, वह अगर वर्कशॉप करते हैं, तो उसका फायदा होगा। दूसरा, नाटकों का चयन कैसा हो और तीसरा, रिहर्सल के लिए कोई जगह तो हो। केके अग्रवाल हैं, वह अपने घर में नाटक के लिए जगह दे देते हैं या गढ़वाल सभा में नाटक हो जाते हैं। आर्थिक संबल भी होना चाहिए, जिससे रंगकर्मी नाटक कर सकें। मुझे लगता है कि नाटकों को लेकर माहौल सरकार की ओर से बन सकता है। दून लाइब्रेरी है, जहां साहित्य समारोह और विमर्श होते हैं, लेकिन वह प्राइवेट है। रंगमंच के लिए गंभीर रंगकर्मियों को सरकार से यह मांग तो करनी ही चाहिए कि रिहर्सल के लिए जगह हो।

सवाल: पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने में रंगकर्मियों की बड़ी भूमिका रही। लेकिन, जाने-अनजाने सरकार उनकी उपेक्षा कर रही है। सरकार को क्या करना चाहिए?
जवाब: निश्चित रूप से पृथक उत्तराखंड आंदोलन में रंगकर्मियों की बड़ी भूमिका थी। जनगीतों ने बहुत बड़ा काम किया। सांस्कृतिक मोर्चा ने बहुत बड़ा काम किया। एक सांस्कृतिक केंद्र सरकार की ओर से बनना चाहिए, ताकि रंगकर्मियों को रिहर्सल की जगह मिल सके और उन रंगकर्मियों के विचार को सम्मान मिल सके, जिन्होंने पृथक राज्य बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया।

सवाल: एनएसडी से निकलकर नसीरुद्दीन शाह और शाहरुख खान जैसे तमाम लोगों ने मुंबई जाकर फिल्म इंडस्ट्री में जहां अपनी जगह बनाई वहीं आर्थिक रूप से सक्षम हुए। वैसे भी रंगकर्मियों की समाज को बेहतर दिशा देने में बड़ी भूमिका होती है, लेकिन जो रंगकर्मी आर्थिक रूप से विपन्न हैं, उनके लिए सरकार को क्या करना चाहिए?
जवाब: आपकी बात भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की याद दिलाती है। उन्होंने यही लिखा है कि व्यक्तित्व निर्माण के लिए रंगकर्म बहुत महत्वपूर्ण चीज होती है। एनएसडी से जो रंगकर्मी जुड़े हैं, उन्हें आर्थिक लाभ भी होता है, लेकिन उत्तराखंड में रंगकर्मियों के लिए कोई योजना नहीं है, या उन्हें जानकारी नहीं है। इसके दो रास्ते हैं या तो जागरूक रंगकर्मी सरकारी योजनाओं की जानकारी दें, या सरकार की तरफ से रंगकर्मियों को समय-समय पर ऐसी योजनाओं की जानकारी दें, जिससे उन्हें आर्थिक लाभ हो सके।

सवाल: क्या उत्तराखंड सरकार को राज्य नाट्य अकादमी बनानी चाहिए, जिससे भविष्य में यहां और अच्छे रंगकर्मी पैदा हो सकें और थिएटर का माहौल बन सके। हालांकि सरकार ने फिल्म नीति बनाकर फिल्म निर्माताओं के लिए तो बड़े कदम उठाए, लेकिन रंगकर्मियों के लिए कुछ नहीं किया। साफ कहें, तो मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के असफल लोग यहां सब्सिडी का लाभ उठा रहे हैं। आप इस संबंध में क्या कहेंगे?
जवाब: बिल्कुल, सरकार को फौरन उत्तराखंड राज्य नाट्य अकादमी बनानी चाहिए। जितनी यहां प्रतिभाएं हैं, उन्हें एक बेस मिल सकेगा और वह अपनी आजीविका चला सकेंगे। इससे उत्तराखंड में अलग तरीके से सांस्कृतिक विकास हो सकेगा। प्रोफेशनल आर्टिस्ट यहां से निकल सकेंगे। हालांकि कालेजों में नाटक के कोर्स चलाए जा रहे हैं। दून यूनिवर्सिटी में है, श्रीनगर में है, लेकिन वह एक्सपोजर नहीं मिल पा रहा है, जो नाट्य अकादमी बनने से होता। इससे सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। इसलिए मुझे लगता है कि नाट्य अकादमी की राज्य में सख्त जरूरत है और इसे अविलंब बनाया जाना चाहिए।

सवाल: अतुल जी आपका रचना संसार बहुत बड़ा है। आपने जहां कविताएं लिखी। वहीं रंगकर्म से भी जुड़े रहे। नाटक भी लिखे। रंगगीत भी लिखे। कविता से रंगकर्मी तक की यात्रा कैसी रही?
जवाब: रंगकर्म मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है। मेरे इस काम पर कभी चर्चा नहीं हुई। रस्किन बांड की कहानी ‘नीली छतरी’ पर आधारित नाटक के लिए मैंने दो गीत लिखे, जिन्हें आप रंग गीत नाम दे सकते हैं। इसी तरह निर्मल वर्मा की कहानी ‘कोए और काला पानी’ पर आधारित नाटक के लिए आठ गीत लिखे, जो एक बड़ा काम था। नीली छतरी का नाट्य निर्देशन सुवर्ण रावत ने और कव्वे और काला पानी का निर्देशन दिनेश खन्ना ने किया था। एक किताब उन्नीस नाटक भी मेरी है। नदी एक लंबी कविता के अलावा उपन्यास, संस्मरण समेत 40 किताबें मेरी प्रकाशित हुई। वर्ष 1987 में दून बाल नुक्कड़ नाटक दल की स्थापना की, जिसके माध्यम से न केवल मसूरी, टिहरी समेत राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में बाल नाट्य कार्यशाला बल्कि 500 से ज्यादा नाट्य प्रस्तुति भी दी।

सवाल: आप जनकवि के रूप में भी जाने जाते हैं। लंबी साहित्यिक यात्रा भी आपकी रही। आखिर में इस संबंध में भी कुछ जानकारी हमारे पाठकों या नए रचनाकारों को दीजिए, जिससे वह आपकी साहित्यिक यात्रा से भी परिचित हो सकें। नए रचनाकार कैसे इस क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं?
जवाब: मेरे पिता श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ की गिनती राष्ट्रीय कवियों में होती थी। ऐसे में सोहनलाल द्विवेदी, त्रिलोचन शास्त्री, सोम ठाकुर जैसे राष्ट्रीय कवियों का घर में आना-जाना था, इसलिए घर में बचपन से ही साहित्यिक माहौल मिला। भाई-बहनों में सबसे छोटा था, इसलिए प्यार भी बहुत मिला। जहां तक मेरी ख़ुद की साहित्यिक यात्रा का सवाल है, तो मैंने पहली कविता 1971 में लिखी। चमोली जिले में एक दुर्मी झील टूटी थी, जो टूट गई थी, जिससे तबाही मच गई थी। वह कविता परिपूर्णानंद पैन्यूली के समाचार पत्र हिमानी में छपी थी। उस दौरान गढ़वाल और कुमाऊं में जहां भी इस तरह की घटनाएं होती थी, तो उसमें कविताएं बनती थी। 1990-91 में उत्तरकाशी और चमोली में भूकंप आया, तो उस पर गीत बना, जो बड़ा चर्चित रहा। ‘ऐसा तो देखा पहली बार’। इसके बाद मालपा त्रासदी पर गीत बना। सिर्फ त्रासदी ही नहीं जन आंदोलन से जुड़ने का भी अवसर मिला। उस समय लगा कि पहले आंदोलन से जुड़ें और तब लिखें, तो ऐसी रचनाओं से चेतना भी जगेगी। चिपको आंदोलन से जुड़ा, तो जाना कि चीड़ माने टिंबर नहीं, पेड़ का मतलब मिट्टी, पानी और हवा, तो रचना उस तरह की आई। उत्तराखंड आंदोलन से जुड़ा तो नारे बहुत आ रहे थे, लेकिन लगा कि अगर गीत बने, तो उसका ज्यादा प्रभाव होगा। स्वतंत्रता आंदोलन में भी चाहे ‘वंदे मातरम’ हो या ‘सरफरोसी की तमन्ना’ गीतों का बहुत प्रभाव रहा। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान जब नैनीताल, मसूरी में गोलीकांड और रामपुर तिराहा में निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गईं और महिलाओं से सड़कों पर बलात्कार हुआ, तो ऐसे में एक संवेदनशील कवि घर पर नहीं बैठ सकता था। तभी मेरी कलम से एक गीत निकला ‘लड़ के लेंगे भिड़ के लेंगे छीन के लेंगे उत्तराखंड, हमें शहीदों की कसम मिल के लेंगे उत्तराखंड’ जो उत्तरकाशी और अन्य जगह प्रभात फेरियों में खूब गाया गया, जिससे आंदोलनकारियों में जोश जगा। गीत की जो पृष्ठभूमि थी भाव था, वह पांच ‘प’ पर आधारित था यानी पानी, पलायन, पर्यावरण, पर्यटन और पहचान। इसकी दो लाइन हैं ‘विकास की कहानी है गांव से है दूर-दूर क्यों, नदी पास है मगर ये पानी दूर-दूर क्यों।’ इसी तरह नदी बचाओ आंदोलन हुआ तो हमने जल संस्कृति मंच का गठन किया। उत्तरकाशी के मातली में नुक्कड़ नाटक किए। इस आंदोलन के लिए दो गीत मैंने दिए, उनमें एक ‘पर्वत की चिट्ठी ले जाना तू सागर की ओर, नदी तू बहती रहना’ था जो लोगों ने खूब गाया और वह जनगीत बन गया। बहरहाल, कहा जाए तो कविता लिखने से शुरू हुई मेरी यात्रा रंगकर्म तक पहुंची, जो निरंतर जारी है।
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डॉ. अतुल शर्मा का जीवन परिचय :
जन्म स्थान: देहरादून
पिता : स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं कवि श्रीराम शर्मा प्रेम
शिक्षा : एम ए हिन्दी प्रथम श्रेणी
संपत्ति: स्वतंत्र लेखन
उत्तराखंड आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी
जन गीत लोकप्रिय रहे
नदी बचाओ आन्दोलन मे,,, सक्रिय,,,, जन गीत व नुक्कड़ नाटक प्रसिद्ध
प्रकाशित पुस्तकें:
कविता संग्रह,,, थकती नही कविता, बिना दरवाजो़ का समय, जन गीत का वातावरण, सींचेगी नींव, नदी तू बहती रहना, नदी एक लम्बी कविता, अब तो सड़कों पर आओ आदि।
उपन्यास:
जवाब दावा, दृश्य अदृश्य, नानू की कहानी
नाटक ‘ :
उन्नीस नाटक, क्या नदी बिकी, खबरों का खजाना ( बाल नाटक)
सम्पादन:
स्वतंत्रता सेनानी एवं कवि श्रीराम शर्मा प्रेम पर केंद्रित पांच ग्रंथ
पुस्तक सीरीज़,,, वाह रे बचपन,, आठ खंड
पर्यावरण व वन संरक्षण समस्या समाधान,,,, तक्षशिला प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित।
संस्मरणों की बैठक
आत्मकथा :
दून जो बचपन में देखा।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा कार्यशाला में तैयार नाटक मे रंग गीत लेखन
डाक्यूमेंट्री फिल्म
डॉ. अतुल शर्मा बंजारा जनकवि
पुस्तक:
जनकवि डा अतुल शर्मा: विविध आयाम
गढ़वाली फिल्म आज दो अभी दो में दो गीत फिल्माये गये
पत्र- पत्रिकाओं मे लेख कहानी कविताएं प्रकाशित, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी, दिनमान टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, संडे मेल, संडे आब्जर्वर, आजकल, उत्तरा, नैनीताल समाचार, रीजनल रिपोर्टर, युगवाणी आदि।
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साक्षात्कारकर्ता:
लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
दर्द गढ़वाली, देहरादून
09455485094

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