…..जब उस्ताद शादां इंदौरी का शे’र सुनकर उठ बैठे थे फ़िराक़ गोरखपुरी
फ़िराक़ साहब को शादां इंदौरी से न मिल पाने का हुआ था बड़ा दुख--

वह लोग जो सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी शाइरों को सुन-सुनकर उन्हें बड़ा शाइर मान बैठे हैं, उन्हें ये पता ही नहीं है कि मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में किस मेयार की शायरी हो चुकी है। अगर उस शायरी को कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय प्लेटफार्म मिल जाए तो मेरा दावा है कि इंदौर के अदब का दुनिया में एक अलग ही सम्मान हो जाए। मगर अफ़सोस है कि अभी तक किसी ने ऐसी कोशिश नहीं की। आइए मैं इस कड़ी में आपको एक वाकए के ज़रिए बताऊं कि यहां के उस्तादों ने कैसे-कैसे चौंकाने वाले शे’र कहे हैं। वाकया सुनें —
इंदौर के बंबई बाज़ार में एक शख़्स रहता था जिसे लोग इब्राहीम केले वाले के नाम से जानते थे। लंबी-चौड़ी काठी के इब्राहीम भाई सरवटे बस स्टैंड पर ठेला लगता था जिस पर वो केले बेचा करते थे। वे बहुत कम पढ़े-लिखे थे लेकिन उनमें शे’र समझने की ज़बरदस्त सलाहियत थी। उनकी याददाश्त भी बड़ी तेज़ थी। कोई शे’र अगर वो एक बार सुन लेते तो उन्हें याद हो जाता था। उन्हें सैकड़ों शे’र मुंह ज़बानी याद थे जबकि वो ख़ुद शाइर नहीं थे। अलबत्ता उसके वालिद ज़रूर शाइर थे और वो उस्ताद शादां इंदौरी सा. के शागिर्द थे।
बंबई बाज़ार में रहने वाले इब्राहीम भाई को जानने वाले बताते हैं कि वो शख़्स चौबीस घंटे शायरी के नशे में रहता था। उसे इस देश का हर वो शाइर जानता था,जो इंदौर में मुशायरा पढ़ने आ चुका था। वजह ये थी कि उस वक्त शाइरों के ठहरने की सबसे अच्छी जगह सरवटे बस स्टैंड के सामने चंद्रलोक होटल थी और यहीं इब्राहीम भाई अपना ठेला लगाते थे। जब कोई शाइर इस होटल में ठहरता तो इब्राहीम भाई अपना ठेला किसी के सुपुर्द कर होटल में उसी के साथ अपना वक़्त गुज़ारते थे।
एक बार इब्राहीम भाई का किसी काम से इलाहाबाद जाना हुआ। उन्हें वहां फ़िराक़ साहब से मिलने की तमन्ना जागी। किसी से उन्होंने फ़िराक़ साहब के घर का पता मालूम कर लिया और शाम ढले वो उनके घर जा पहुंचे। इब्राहीम भाई ने उनके नौकर को बताया कि कि वे इंदौर से आए हैं और फ़िराक़ साहब के दीदार के लिए हाज़िर हुए हैं। नौकर ने अंदर जाकर फ़िराक़ साहब को ये बात बताई। फ़िराक़ साहब ने फौरन उन्हें बुलवा लिया। उस वक़्त वे ड्राइंग रूम में एक तख़त गावतकीया लगाए आराम से लेट हुए थे। इब्राहीम भाई ने उन्हे सलाम किया तो जवाब देकर फ़िराक़ साहब ने उन्हें बैठने को कहा। उसके बाद वे इब्राहीम भाई से उनके बारे में जानकारी लेने लगे। जब उन्हें ये पता चला कि इब्राहीम उनकी शायरी के दीवाने हैं तो वे बहुत ख़ुश हुए। इब्राहीम भाई ने लगे हाथ उसके कई शे’र उन्हें सुना दिए तो वे और ज़्यादा ख़ुश हो गये।
इस दरम्यान उनके नौकर ने इब्राहीम भाई के लिए चाय लाकर दी। काफी देर तक बातचीत होने के बाद इब्राहीम भाई ने फ़िराक़ साहब से जाने की इजाज़त मांगी तो उन्होंने कहा कि तुमने तो मेरे बहुत सारे शे’र सुना दिए लेकिन मियां जाते-जाते अपने शहर के किसी उस्ताद शाइर का अच्छा शे’र हो तो सुनाते जाओ।
तब इब्राहीम भाई ने उन्हे सुनाया —
जिस क़दर पीता गया मैं,नश्शा कम होता गया,
है शऊर-ए-ज़िंदगानी मेरे पैमाने का नाम।
इब्राहीम भाई से शे’र सुनते ही फ़िराक़ गोरखपुरी सा., जो गावतकीया लगा कर लेटे हुए थे, वो एकदम से उठ बैठे। फिर हैरान होकर बोले- क्या वाकई ये शे’र इंदौर के शाइर का है ? तब इब्राहीम भाई ने उन्हे बतलाया कि ये शे’र इंदौर के उस्ताद शाइर शादां इंदौरी साहब का है। फ़िराक़ साहब ने तब इब्राहीम भाई से कहा कि अगर इंदौर में कोई मुशायरा हो तो मुझे सिर्फ एक पोस्ट कार्ड पर दावतनामा भेज देना। मैं इस शाइर से मिलने के लिए इंदौर आऊंगा। इब्राहीम भाई ने वादा किया और वे वापस इंदौर आ गये। बदनसीबी से इस वाकए के 8-9 महीने बाद ही शादां सा. का इंतकाल हो गया। इब्राहीम भाई ने ख़त के ज़रिए फ़िराक़ साहब को ये इतिल्ला दी। कुछ दिन बाद फ़िराक़ साहब ने ख़त के जवाब उन्हें सिर्फ ये लिखा कि मुझे ज़िन्दगी भर ये अफ़सोस रहेगा कि मैं इस शाइर से नहीं मिल पाया।
यहां इस वाकए का ज़िक्र करने का मक़सद ये बताना है कि इस शहर के उस्तादों ने ऐसा-ऐसा क़लाम कहा है कि जिसे सुनकर देश के नामवर शाइर भी चौंक उठते थे।
उन उस्तादों को बड़ी शोहरत इस लिए नहीं मिल सकी कि वे अपने स्वभाव से बहुत सीधे-सादे थे। उन्हें अपनी मार्केटिंग करने का हुनर नहीं आता था। अलबत्ता मुशायरों में के मक़बूल शाइर भी उनकी मौजूदगी में बड़े एहतियात से अश’आर सुनाते थे। उस समय उत्तर प्रदेश के कई शाइर तो शादां सा. के बारे में कहा करते थे कि ये शाइर ग़लती से मध्य प्रदेश में पैदा हो गया है। इसे तो उत्तर प्रदेश में पैदा होना चाहिए था।
इंदौर के नयी नस्ल के कई शाइर को तो शादां इंदौरी सा. का नाम तक नहीं सुना होगा। तो फिर उन्हें पढ़ने का तो कोई सवाल ही नहीं है। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि शादां सा. की कुल्लियात उनके शागिर्द और जांनशीन मास्टर रशीद शादानी सा. की मेहनतों से प्रकाशित हुई है। रेख़्ता की साइट पर E- books of Madhya Pradesh Urdu Academy, Bhopal में शादां सा. की किताब मौजूद है। आप वहां उन्हें पढ़कर जान सकते हैं कि वाकई शादां साहब ने कितनी क़ीमती शायरी की है।
दोस्तो!
शाइरों से जुड़े इब्राहीम भाई के कई दिलचस्प क़िस्से आप आज भी शहर के पुराने शाइरों से सुन सकते हैं। मैंने ये वाकया रवि शबाब साहब और युसूफ़ मंसूरी की ज़बानी सुना था। हमें रवि शबाब साहब , युसूफ़ मंसूरी साहब, अनवर सादिक़ी साहब,मक़सूद नश्तरी सा. जैसे बुज़ुर्गों से ये क़िस्से सुनना चाहिए ताकि हमें पता चले कि उस दौर के उस्ताद कैसे अपने शागिर्दों की इस्लाह करते थे ? उन्हें कैसे शाइरी की तकनीकी बारिकियां सीखाते थे ? उनकी ज़िंदगी कैसी थी ? उन बातों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है और ख़ुद को संवारा जा सकता है।
बहुत शुक्रिया।
और अंत में…..शादां इंदौरी साहब की तीन ग़ज़लें
तस्कीन-ए-इज़्तिराब-ए-तमन्ना न कीजिए।
मुझ से जुदा अभी मिरी दुनिया न कीजिए।।
दीवाना-ए-फ़रेब-ए-तमन्ना न कीजिए।
मेरी तरफ़ से मुझ को पुकारा न कीजिए।।
कुछ दूर चलने दीजिए अब ख़ुद ही इश्क़ को।
हर हर क़दम पे आप इशारा न कीजिए।।
दिल के सिवा तमाम किताब-ए-हयात में।
इक लफ़्ज़ भी नहीं जिसे अफ़्साना कीजिए।।
उठते हैं जब जुनूँ में गरेबाँ की सम्त हाथ।
कहता है कोई जैसे कि रुस्वा न कीजिए।।
दिल तो तड़प उठेगा जो मुझ को ख़बर न हो।
छुप कर मेरे क़रीब से गुज़रा न कीजिए।।
‘शादाँ’ थमे हमारे तो आँसू न आज तक।
जब से वो कह गए हैं कि रोया न कीजिए।।
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जुनूँ है तो क़फ़स कब तक क़फ़स की तीलियाँ कब तक।
न आएगी इधर आख़िर हवा-ए-गुलसिताँ कब तक।।
रहेगी मेरे दम से गर्मी-ए-बज़्म-ए-जहाँ कब तक।
फ़ुग़ाँ पर नाज़ है मुझ को मगर ताब-ए-फ़ुग़ाँ कब तक।।
मिरा अफ़्साना-ए-हस्ती है अफ़्साना-दर-अफ़्साना।।
सुनेगा कोई मेरी ज़िंदगी की दास्ताँ कब तक
बदल दे ख़ुद निज़ाम-ए-दहर को गर तुझ में हिम्मत है।
करेगा इंतिज़ार-ए-इंक़लाब-ए-आसमाँ कब तक।।
न कर मजबूर ऐ सय्याद मुझ को ख़ुद-फ़रेबी पर।
तेरे कहने से मैं समझूँ क़फ़स को आशियाँ कब तक।।
किसी दिन ख़त्म ही होंगी तअ’य्युन की हदें आख़िर।
रहेगी शौक़-ए-सज्दा पर ये क़ैद-ए-आस्ताँ कब तक।।
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इतना भी हो न ज़ौक़-ए-तजस्सुस निगाह में
हाइल रहें ख़ुद आप हमीं अपनी राह में।
होने को क्या नहीं है तुम्हारी निगाह में।।
लेकिन वो एक चीज़ जो होती है आह में।
तौबा की राहतें नहीं मेरे गुनाह में।।
किस दर्जा आ गई है बुलंदी निगाह में
हालाँकि मंज़िलें भी नई अज़्म भी नया।
मिलते हैं मेरे नक़्श-ए-क़दम मुझ को राह में।।
बस नुक़्ता-ए-निगाह बदलने की देर थी।
अब मुतमइन हूँ ज़िंदगी-ए-अश्क-ओ-आह में।।
दिल को नशात-ए-ग़म से भी रखते हैं दूर हम।
मंज़िल पे यूँ खड़े हैं कि जैसे हों राह में।।
तुम ने तो मुझ को अपनी नज़र से गिरा दिया।
मैं हो गया बुलंद ख़ुद अपनी निगाह में।।
(अखिलराज, पत्रकार-लेखक-शायर)