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दर्द गढ़वाली की ज़रूरी इल्तिज़ा: इश्क़-मुहब्बत जारी रक्खो!

दर्द गढ़वाली के ग़ज़ल संग्रह 'इश्क़-मुहब्बत जारी रक्खो' की समीक्षा

इश्क़-मुहब्बत जारी रक्खो! दर्द गढ़वाली की ये निहायत जरूरी सी इल्तिजा किताब की शक्ल में आपके हाथों में है। उनकी कहन के मखमली अंदाज की पोटली में बहुत कुछ ऐसा है, जो आपको प्यार-मुहब्बत और दूसरे सकारात्मक दुनियावी भावों की हरी-भरी, लेकिन ऊबड़-खाबड़… तन्हा तलहटियों में एक झटके में ले जाता है।

दर्द की शायरी की पोटली बहुत सी जगहों पर बहुत से खुरदरे चट्टानी एहसासात से भी तर है। उनके यहां आज के दौर में इंसानी रिश्तों को आप बड़ी शिद्दत से रिसते हुए महसूस कर सकते हैं, तो सर्द पड़ चुके संबंधों को जोड़ने की रचनात्मक बेचैनी और ख्वाहिश का दीदार भी कर सकते हैं। ये बहुत बड़ी बात होती है कि आप दुनियादारी की पेचीदा गांठों को सुलझाने वाले मनोविज्ञान की समझ के मामले में माहिर हों, साथ ही उसे कागज पर हू-ब-हू उतार भी पाएं। जो आप कहना चाहें, पाठक उसी जमीन तक पहुंच जाए, तब आप कामयाब रचनाकार होने का दावा कर सकते हैं। कुछ शेर देखिए:

कब तलक़ रूठा रहूं मैं ख़ुद से।
कोई तो मुझको मनाने आए।।
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शौक हो हमको आजमाने का।
देखकर घर से आइना निकले।।
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धूप बने फिरते हैं सब।
कब होते हैं साए लोग।।
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मकतलों का डर दिखाने के लिए।
दर्द का लश्कर लिए आ जाते हैं।।
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बात हक़ की करे कौन अब।
झूठ का ही ज़माना हुआ।।
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कल जिसे आदमी बनाया था।
वो कहीं देवता न हो जाए।।
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कब मिली कारे-जहां से फुर्सतें।
दर्द अपना किससे सांझा कीजिए।।
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दर्द गढ़वाली के अशआर पढ़ते हुए आपके माथे पर बहुत बार शिकन आएंगी, लेकिन वो शिकन उनके कथ्य की बारीकी को समझ जाने की वजह से, आपके हैरत में पड़ जाने की वजह से आएगी। इसलिए नहीं कि उनका शब्द संसार कहीं से भी ग़ज़ल की पतंग की बेतरतीब उलझी हुई डोर के गुच्छे या जल्दबाजी में उधेड़े गए स्वेटर की उलझी हुई ऊन के गोले जैसा है। जटिलतम भावों को सरलतम बिंबों के साथ कह सकने वालों में दर्द गढ़वाली चुनींदा शायरों में शामिल हैं। कुछ और शेर देखिए:

उसने कहा क्या-क्या नहीं।
हमने सुना क्या-क्या नहीं।।
देखा किए ख़ामोश सब।
अच्छा-बुरा क्या-क्या नहीं।।
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कल सब मिट्टी हो जाएगा।
फिर इतना इतराता क्या है।।
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बात बनती प्यार से है।
प्यार के मोती जमा कर।।
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ग़रीबी दूर हाक़िम किस तरह हो।
किसी के पास मंतर कुछ नहीं है।।
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यूं तो अपनी ही नहीं कोई ख़बर है उसको।
और कहने को वो अख़बार लिए फिरता है।।

दर्द का दर्द बहुआयामी है। उनकी संवेदनाओं के दरवाजे हर तरफ से पूरी तरह खुले हैं। असल में, उनके एहसास के दरवाजों पर वर्जनाओं की किवाड़ें नहीं हैं। जाहिर है कि फिर सांकलों के होने का भी सवाल ही नहीं। उनका दर्द कहीं से भी निजी नहीं, सबका दर्द है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उनका दर्द केवल कराह की वजह ही बनता है, बल्कि बहुत जगहों पर वो दर्द मन ही मन राहत भरी मंद-मंद मुस्कुराने की वजह भी बनता है। दर्द गढ़वाली की कहन का ताना-बाना हकीकत के संकरी गलियों वाले बेतरतीब बसे मोहल्लों के तंग कमरों की उमस भरी गर्मी में एहसास के नर्म बिछौने बुनता है। साथ ही ताजा हवा के झौंके भी बटोर लाता है। उनकी शायरी अच्छी तरह देखभाल वाले गुलशनों की महक से भी रू-ब-रू कराती है, तो रास्तों के गड्ढों की वजह से लगने वाले हिचकोलों से परेशान आदमी के जे़हन में उनके दोनों किनारों पर उगी झाड़ियों में खिले रंग-बिरंगे फूलों की महक भी भर देती है। उन्हें पढ़ते हुए महसूस हो जाता है कि भले ही हमारा ध्यान अनायास भी उनकी तरफ नहीं जाता है, लेकिन सड़कों के किनारे उगी झाड़ियों में भी फूल उसी तरह खिलते रहते हैं, जैसे कि सधे हुए माली की देखरेख में शहर के किसी भव्य बगीचे में। कुछ शेर और देखिए:

गीत वफ़ा के गाता है।
कोई पागल है यारो।।
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पीर फ़कीर पयंबर यारो।
आशिक़ सब ही उसके देखे।।
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ज़ख़्म हमें यूं देने वालों।
दर्द हमारा समझा होता।।
चलते हम भी साथ तुम्हारे।
हमसे भी तो पूछा होता।।
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जज़्बातों से खेल रहे सब।
दिल सबके सब पत्थर के हैं।।

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आखिर में नए गजल संग्रह के लिए दर्द गढ़वाली को ढेर सारी बधाइयां। उनका ये सफर यूं ही जारी रहे, ऐसी कामना करता हूं।
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दर्द गढ़वाली के ग़ज़ल संग्रह,’इश़्क-मुहब्बत जारी रक्खो’ को आप इस लिंक से खरीद सकते हैं।

ग़ज़ल संग्रह: इश्क़-मुहब्बत जारी रक्खो
शायर: दर्द गढ़वाली, देहरादून
मोबाइल: 09455485094
पृष्ठ: 132
मूल्य: 150 रुपये
प्रकाशक: समय साक्ष्य, देहरादून
समीक्षक: रवि पाराशर, वरिष्ठ पत्रकार एवं शायर
मोबाइल: 98732 34449

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