दर्द गढ़वाली की शायरी में जमाने का दर्द
दर्द गढ़वाली के ग़ज़ल संग्रह 'धूप को सायबां समझते हैं' की समीक्षा
आम आदमी के दर्द को शिद्दत से महसूस करने वाले शायर दर्द गढ़वाली की हालिया प्रकाशित किताब ‘धूप को सायबां समझते हैं’ पढ़ी तो एक साथ कई रंग दिखाई दिए। दर्द गढ़वाली ने जहां परंपरागत इश्किया शायरी की, वहीं आम आदमी के सरोकारों को भी अशआरों में ढ़ाला है। बहुत आसान लफ्जों में वो बड़ी बात कह देते हैं।
इश्क़-मुहब्बत को लेकर कुछ शे’र देखिएः
नक्श सब अपने मिटाते जाते।
मुझको दिल से भी भुलाते जाते।।
फूल तुरबत पर चढ़ाते जाते।
रश्मे-उल्फत ही निभाते जाते।।
तुम हो दरिया हो मयस्सर सबको।
प्यास मेरी भी बुझाते जाते।।
हिचकियां क्यूं मुझे नहीं आती।
मुझको शायद भुला दिया तुमने।।
जिसके पीछे सब थे पागल।
ये तेरा वो झुमका है क्या।।
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हौसले की शायरी भी दर्द के यहां खूब देखने को मिलती है। शेर देखिएः
ग़म में भी अब तो मुस्काना सीख लिया।
हमने पर्वत से टकराना सीख लिया।।
काग़ज़ की कश्ती को पार लगाना था।
लहरों को पतवार बनाना सीख लिया।।
मेरे बच्चे राह नहीं अब भटकेंगे।
बच्चों ने अब दीप जलाना सीख लिया।।
दुख में तू भी हंसता है क्या।
तू भी रब का बंदा है क्या।।
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मंदिर-मस्जिद को लेकर जो झगड़ा होता है, उस पर एक शेर देखिएः
शौक से बनाना तुम दैर या हरम कोई।
रास्ते में पहले इक मैकदा बना लेना।।
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छोड़िए अना अपनी मश्विरा ये मेरा है।
दर्द अपनी सीरत को आइना बना लेना।।
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हर तरफ नफरतों का आलम है।
कोई कोना तो खुशनुमा छोड़ो।।
दुनिया से गायब होते जा रहे मैयार पर भी दर्द गढ़वाली ने अपनी कलम चलाई है। ऐसे ही दो-तीन शेर देखिएः
हो गए बस्तियों से घर गायब।
जिस तरह शहर से बशर गायब।।
ढूंढकर लाइए उसे फिर से।
आदमी हो गया किधर गायब।।
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दर्द गढ़वाली का ताल्लुक उत्तराखंड से है। ऐसे में वह अपने राज्य की समस्याओं को भी नहीं भूलते। पलायन का दर्द उनकी शायरी में देखा जा सकता है।
गांव से हम क्यों नगर में आ बसे हैं।
कौन समझेगा ये लाचारी हमारी।।
रोज खुद से लड़ रहे हैं दोस्तो हम।
जंगजू हैं जंग जारी है हमारी।।
नदी के पास भी प्यासे खड़े हैं।
कई किस्से सुने थे बेबसी के।।
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दर्द गढ़वाली पत्रकारिता के पेशे से जुड़े हैं। ऐसे में पत्रकारीय दर्द भी उनके शेरों में आ जाता है।
कुछ शेर देखिएः
कोई भी अच्छी खबर हममें नहीं है।
जिंदगी है दर्द अखबारी हमारी।।
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राजनीतिक रंग में डूबे शेर भी उन्होंने खूब कहे हैंः
आग लगाकर गायब हो जाते हैं सब।
यार सियासी लोग सयाने लगते हैं।।
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रोजी-रोटी की समस्या से जूझ रहे मजदूरों की ब्यथा को भी उन्होंने शायरी का विषय बनाया हैः
आंख नम दिल दुखों से भारी है।
जंग लेकिन हमारी जारी है।।
रोज़ जीते हैं रोज़ मरते हैं।
यार क्या जिंदगी हमारी है।।
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मां मौजूं पर भी उनके अच्छे शेर हुए हैंः
सैकड़ों दर्द की दवा है मां।
ताजगी से भरी हवा है मां।।
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पास आए बला भला कैसे।
मां ने ऐसे नजर उतारी है।।
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मौजूदा दौर में देश में जो नफरत का माहौल है, उसे भी उन्होंने बयां किया है। दो-तीन शे’र देखिएः
चल रही आंधियां खड़ा हूं मैं।
कुछ परिंदों का आसरा हूं मैं।।
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इब्तिदा कैसे हो मुहब्बत की।
नफरतों की वो इन्तिहा हूं मैं।।
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रब ही मालिक उनका जिनको।
रहज़न भी रहबर लगता है।।
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रोटियां कोई नहीं अब मसअला।
किस कदर सस्ती सियासत बढ़ गई।।
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क्या उजाले तुम्हें नहीं भाते।
फिर दिया क्यूं बुझा दिया तुमने।।
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आखिर में इसी किताब से कुछ याद रखने लायक शेर देखिएः
धूप से डर हमें नहीं लगता।
धूप को सायबां समझते हैं।।
खुदकुशी से जिसे बचाया था।
अब वही जान हमपे भारी है।।
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एक कोने में पड़े हैं अहले-हक़।
झूठ की जब से तिजारत बढ़ गई।।
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दुआ मांगो न हो फिर लाकडाउन।
सदा जलता रहे चूल्हा हमारा।।
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ख्वाब में आ रहे थे तुम मेरे।
नींद से क्यों जगा दिया तुमने।।
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मुलाजि़म हो गया बेटा मेरा भी।
मुझे अब कुछ सहूलत हो गई है।।
पुस्तकः धूप को सायबां समझते हैं
ग़ज़लकारः दर्द गढ़वाली
समीक्षकः अवनीश
- प्रथम संस्करणः जनवरी 2023
प्रकाशकः समय साक्ष्य, देहरादून
मूल्यः रुपये 100/-
मोबाइलः 09455485094