गढ़वालियों का येरूशलम बनता देहरादून
गैरसैंण में 21 अगस्त से विधानसभा का मानसून सत्र शुरू होना है। पहाड़ में विकास क्या हुआ कितना हुआ..यह सबके सामने है...सरकारें क्या कहती और करती रही हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। सिर्फ सड़कों का जाल बिछा देने को विकास नहीं कहा जा सकता। जिस विकास के ढांचे में रोजगार के अवसर नहीं मिल रहे हों... पलायन का सिलसिला थमा नहीं हो...दून और दिल्ली की दौड़ जारी हो...ऐसा विकास किस काम का...यह सड़क हमें कहां ले जा रही है? यह विचारणीय विषय है और विधानसभा सत्र में जरूरी है कि इस विषय पर भी विचार हो और रोजगार के अवसर पैदा करने को लेकर ठोस चर्चा हो.. नीति बने.. रोडमैप तैयार हो.. सड़क दून या दिल्ली जाने की बजाय गांव की ओर लौटे...। इस सिलसिले में पाकिस्तान के एक शायर अहमद सलमान का शेर याद आ रहा है....'वो गांव का इक ज़ईफ़ दहकां सड़क के बनने पे क्यों ख़फ़ा था। जब उनके बच्चे जो शहर जाकर कभी न लौटे तो लोग समझे।।....

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में बीते दो दशक के दौरान गांवों को छोड़ नगर-महानगरों में जा बसने की होड़ तेजी से बढ़ी है। गढ़वाल मंडल में तो जैसे एक अघोषित आंदोलन और अनुच्चारित नारे ‘देहरादून चलो, देहरादून में मकान बनाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, से अधिकांश लोग प्रभावित हैं और ठीक उसी तरह देहरादून की ओर दौड़े चले आ रहे हैं, जैसे एक जमाने में संसारभर के यहूदी इजरायल की तरफ दौड़ पड़े थे। प्रतीत होता है, मानो देहरादून गढ़वालियों का येरूशलम हो। उनके लिए देहरादून में दो कमरों का एक अदद घर बनवाना फैशन-सा हो गया है। जिसने देहरादून में ईंटों की दीवार खड़ी कर दी, वह खुद को चाहे जो भी समझे, लेकिन दूसरों की नजरों में तो तकरीबन खुदा हो गया।
नहीं! देहरादून, कोटद्वार, हल्द्वानी या फिर कहीं और जाकर बस जाने में किसी को कोई ऐतराज नहीं। होना भी नहीं चाहिए। जिसे जहां सुविधा हो, बेझिझक वहां बसागत कर सकता है। सामाजिक सरोकारों पर गंभीरता से मनन करने वालों की वास्तविक चिंता तो इस बात को लेकर है कि ग्रामीण इलाकों में यह पलायन बड़े पैमाने पर हो रहा है और गांव धीरे-धीरे उजाड़ होते चले जा रहे हैं। विचारणीय विषय यही है। हालांकि, सरसरी निगाह डालने पर यह बात आसानी से समझ में नहीं आती। देखा जाए तो लोगों का गांवों से रिश्ता सदियों पुराना है। इन्हीं गांवों में उन्होंने तमाम तकलीफें झेलीं या ऐसा भी कह सकते हैं कि जीवन का स्वाभाविक अंग मानकर उनका सामना किया, लेकिन गांव नहीं छोड़ा।
हां! परिवार के युवाओं का नौकरी-धंधे के लिए मजबूरीवश मैदानी इलाकों में जाना काफी पुरानी बात है। इसके सिवाय कोई चारा भी तो नहीं था। अर्थ के बिना जीवन चल ही नहीं सकता और पहाड़ में अर्थोपार्जन की कोई सूरत आज तक बन नहीं पाई। लेकिन, विचारणीय बिंदु यह है कि पहले गांव ‘त्यागा’ नहीं जाता है, बल्कि लोग जीवनभर बाहर नौकरी कर अंत में बुढ़ापा बिताने गांव ही वापस लौटते थे। वर्तमान में इसके ठीक उलट कम ही नाैकरी-पेशा लोग गांव की ओर रुख करते हैं।
इस अरुचि के कुछ निहितार्थ हैं, जिन्हें शहरी मूल के ग्रामीणों के हमदर्द शायद ही आसानी से समझ पाएं। लेकिन, एक तथ्य यह भी है कि पलायन की जैसी बुरी छवि पेश की जाती है, स्थिति वास्तव में उतनी निराशाजनक है नहीं। यह पलायनवादी रुझान कुछ खास किस्म के गांव या क्षेत्र में ही विशेषतौर पर देखने में आता है। एक तो पहाड़ और उस पर भी कुछ गांव ऐसी जगहों पर बसे हैं कि अमीन उन गांवों का नक्शा बनाने में ही हांफ जाए। वहां जीवन किसी सश्रम कारावास से कम नहीं। इन जगहों में मनुष्य बस! जीवित रह सकता है। सालभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी यहां की जमीन से तीन महीने की गुजर को भी अन्न मिल जाए ताे गनीमत। पानी के मामले में ज्यादातर गांवों की स्थिति रेगिस्तान सरीखी है। सड़क गांव से इतनी दूर हैं कि बीमार को ढोकर अस्पताल ले जाने वाला सड़क तक पहुंचते-पहुंचते खुद ही अधमरा हो जाए। बीमार तो अमूमन अस्पताल पहुंचने से पूर्व ही भगवान को प्यारे हो जाते हैं।
शहर में कमाना-खाना और रात में सोनेभर के लिए गांव जाना पिकनिक में भले ही सुहाता हो, किंतु जीवन ऐसे कब तक चलेगा। जब जरूरत की हर चीज (ईंधन तक) शहर से बोककर ही गांव में ले जानी है तो फिर जो समर्थ हैं, वे शहर का रुख क्यों न करें। क्यों और कब तक खटते रहें ऐसे गांवों में। क्यों न आदमी वही कमरतोड़ मेहनत शहर या शहर के आसपास उपशहरीय इलाके में रहकर करे और बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं हासिल कर ले। आखिर ठंडे इलाकों के जानवर भी तो जाड़ों में थोड़ा नीचे उतर आते हैं। हां! इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि मनुष्य कहीं सुविधाओं का गुलाम बनकर न रह जाए। यह उसकी हार होगी। इतनी सामर्थ्य तो हमारे बाजुओं में होनी ही चाहिए कि जब कभी नल पर पानी न आए तो हम पानी की चिंता में घुलने के बजाय बाल्टी को धारे (प्राकृतिक स्रोत) से भरकर ला सकें।
देखा जाए तो जन्मभूमि से मुंह फेरना मानव की फितरत नहीं है। जन्मभूमि उसे मजबूरीवश ही त्यागनी पड़ती है। इसके लिए सरकारी नौकरियां भी कम दोषी नहीं हैं, जिनमें जवाबदेही का अभाव तो है ही, पहाड़ के भूगोल की उपेक्षा भी साफ झलकती है। उत्तराखंड की राजधानी को गैरसैंण से दूर करने के पीछे भी यही प्रवृत्ति काम कर रही है। सड़कों की भी सम्भवतः इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। यह भी देखने में आया है कि शहरों की ओर पलायन उन्हीं गांवों में ज्यादा हो रहा है, जो सड़क से काफी दूर हैं और वहां कभी सड़क पहुंचेगी, ऐसी सिर्फ उम्मीद ही की जा सकती है।
इसके विपरीत सड़कों के निकट बसे गांवों में यह प्रवृत्ति काफी कम है। इन गांवों में करीब-करीब हर सुविधा मौजूद है। अलसुबह अखबार पहुंच जाता है। छतों पर डिश एंटेना भी नजर आते हैं। दवाई की दुकान हैं, मोबाइल नेटवर्क है और अंग्रेजी स्कूल भी आसानी से मिल जाएंगे। इन गांवों से दूध-सब्जी शहर पहुंचाने में भी कोई मुश्किल नहीं आती। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि इन गांवों में जीवन शहरों के मुकाबिल हो गया है। अब तो अमूमन कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी हालचाल जानने इन गांवों में पहुंच जाती हैं। यह दीगर बात है कि उनका उद्देश्य भी बजट ठिकाने लगाना ही है।
अब सवाल यह है कि विकास, संपन्नता और खुशहाली जैसी चीजें क्या पैदल नहीं चल सकतीं। पर्वतीय राज्य के जटिल भूगोल को देखते हुए इन्हें अनिवार्य रूप से थोड़ा पैदल तो चलना ही पड़ेगा। हमें इस धारणा को भी तोड़ना होगा कि देहरादून में मकान बना लेने भर से हमारे कष्ट मिट जाएंगे। हमारे लिए देहरादून में बसना सुखद एहसास भले ही हो, लेकिन यह वास्तविक सुख की अनुभूति भी कराएगा, यह कहना बेमानी होगा। इस बात को कभी न भूलें कि मंजिल का पता नहीं होने पर हम वहीं पहुंचते हैं, जहां सड़क हमें ले जाती है। और…सड़क हमें कहां ले जा रही है, यह हम अच्छी तरह जान रहे हैं।
– दिनेश कुकरेती
(कोटद्वार निवासी दिनेश कुकरेती एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह जनसरोकार की पत्रकारिता करते हैं। पहाड़ का दर्द उनके भीतर तक समाया हुआ है। पलायन को लेकर उनकी यह चिंता हम सबकी चिंता है और होनी भी चाहिए।)