गैर उत्तराखंडी साहित्यकारों से भेदभाव उचित नहीं: असीम शुक्ल
-नवगीत के पुरोधा असीम शुक्ल ने कहा नई कविता के लोग नहीं जानते छांदस रचना विधान, मुक्तिबोध को नई कविता के लोग कर रहे बदनाम, हिंदी के सभी प्रोफेसरों को एक लाठी से हांकना ग़लत, पैसे कमाने के लिए कूड़ा भी छाप दे रहे हैं प्रकाशक

नवगीत के पुरोधा और वरिष्ठ पत्रकार असीम शुक्ल का मानना है कि अच्छी कविता लिखने वाले हूट होने के भय से मंच पर नहीं जाते, इसीलिए मंच पर गलत लोगों का बर्चस्व है और यही कविता के पराभव का कारण है। पिछले दिनों shabdkrantilive.com ने असीम शुक्ल से देहरादून में सुदर्शन विहार स्थित आवास पर उनसे हिंदी कविता, उनकी साहित्यिक यात्रा के अलावा उत्तराखंड में रह रहे दूसरे राज्यों के साहित्यकारों की प्रांतवाद के नाम पर उपेक्षा और लेखक गांव की गतिविधियों को लेकर बातचीत में कुछ सवाल किए, जिसके उन्होंने बेबाकी से जवाब दिए। उसी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।
सवाल: असीम जी आपकी साहित्यिक यात्रा कब और कहां से शुरू हुई।
जवाब: मैं उत्तर प्रदेश के बांदा जिले का रहने वाला हूं और मैं बड़ा भाग्यशाली हूं कि मुझे स्कूली शिक्षा के समय ही केदारनाथ अग्रवाल जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों का सान्निध्य मिला। मैं केदारनाथ जी के बेटे अशोक के साथ पढ़ता था, जो मेरी अक्सर शिकायत करता था कि यह पढ़ा-लिखता नहीं है और पता नहीं कापी में क्या-क्या लिखता रहता है। उस समय मैंने कुछ रूबाइयां लिखी थी, जिसे देखकर केदारनाथ जी चौंक गए थे और उन्होंने कहा था कि लिखते तो बढ़िया हो, लेकिन पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो जीवन कैसे चलेगा, आज कविता से रोजी-रोटी नहीं चलती। लेकिन उन्होंने मुझे लिखना सिखाया। भगवत शरण से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला मिला। मेरा यह भी सौभाग्य रहा कि जब मैं 1963 में दिल्ली आया तो मेरा परिचय वीरेंद्र मिश्र, रमानाथ अवस्थी, बलवीर सिंह रंग, रामअवतार त्यागी, बालस्वरूप राही के निकट आया, जिनसे मुझे मार्गदर्शन मिला और ख्याति भी मिली, जिसके लिए मैं इन सबका ऋणी हूं।
सवाल: नई कविता, जनगीत और गीतों को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। इनमें अंतर क्या है और समाज सुधार में इनका क्या योगदान है।
जवाब: कोई रचना चाहे छंद में हो या मुक्त छंद में हो। अगर उसमें जीवन मूल्य की सही-सही संप्रेषणीय व्याख्या न हो, तो उसे कविता कहा जाना ज़रा कठिन है। छांदस रचना विधान, जिसे गीत कहते हैं और तथाकथित नई कविता के कवियों ने उस गीत पर, छांदस रचना विधान पर प्रहार किए और बार-बार अपना पुरोधा और अपना मार्गदर्शक मुक्तिबोध को बताते हुए करते हैं, वह नई कविता के लोग यह भूल जाते हैं कि मुक्तिबोध ने कभी छंद का, गीत का विरोध नहीं किया। वह कहते थे कि यह ग़लत है। जहां कहीं भी संवेदन शून्यता है वहां कविता नहीं है। जहां संवेदना की लहर है, वहां कविता हो रही है। कविता का स्रोत फूट रहा है। कविता लिखना एक साधना है। एक छंदबद्ध रचना, गीत, ग़ज़ल या मुक्तक लिखने में कवि किन प्रक्रियाओं से गुजरता है, इससे नई कविता के लोग सर्वथा अनभिज्ञ हैं। नई कविता के लोग क्या कहते हैं तैयार माल है। रचना को जो लोग तैयार माल की तरह से देखते हैं, मैं समझता हूं, वो कविता की जमीन को ही नहीं समझ पा रहे हैं। एक चीज और, कविता में जब गद्यात्मकता आ जाती है, तो कविता का माधुर्य नष्ट हो जाता है और जब गद्य में पद्यात्मकता आ जाती है तो उसका माधुर्य बढ़ जाता है। वह माधुर्य ही सौंदर्य का कारक भी बनता है और वही मनुष्य की चेतना में जाकर अपनी जगह निर्धारित करता है, जगह निश्चित करता है और उसके अंदर की बंद आंखों को खोलता है। साधना का घोर अभाव है। जैसा कि हमारे मित्र बुद्धिनाथ मिश्र वगैरह का मानना है कि विश्वविद्यालय के लोगों ने गीत का, छांदस रचना विधान का सत्यानाश किया है, मैं यह नहीं मानता। मैं सबको एक लाठी से नहीं हांक सकता हूं। बहुत से मित्र हमारे विश्वविद्यालय में हैं और वह गीत का समर्थन भी करते हैं, छंद का समर्थन भी करते हैं और छांदस रचना विधान के लिए आंदोलनरत भी हैं। इनमें डॉ. सुरेश गौतम, कृष्णदत्त पालीवाल और श्याम कश्यप जैसे लोग हैं। जहां तक नवगीत की बात है, उसके विषय में परंपरा और आधुनिकता के विवादास्पद तथ्य आ जाते हैं, जिन्हें हम बातचीत करके समझ और समझा सकते हैं।
सवाल: मंच में कविता का जो स्तर गिर रहा है, इसके लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं और इसको उठाने के लिए क्या प्रयास होने चाहिए।
जवाब: एक समय वो था कि यदि आपके पास कविता नहीं है। खाली गाल बजाना जानते हैं, पैसे के लिए, लिफाफे के लिए। आप हिम्मत नहीं कर सकते थे कि मंच पर चढ़ जाएं। लेकिन आज इसका उलट हो रहा है। मंच का स्तर इसलिए गिरा है कि आज जिसके पास अच्छी कविता है, वह अपमानित होने, तिरस्कृत होने या हूट होने के भय से मंच पर जाने से घबराते हैं। इसलिए कविता के नाम पर जो दरिद्रता लिए बैठे हैं मंच पर उनका बर्चस्व स्थापित हो गया है। यह कारण है मंच की कविता के पराभव का। एक बात और झूठी प्रशंसा भी कविता के गिरते स्तर का कारण बन रही है। कविता के प्रति सहमति के लिए विवेक की बहुत जरूरत है। और असहमति के लिए साहस की जरूरत है। मैं आपकी कविता से सहमत नहीं हूं, चाहे आप कुछ हों, कितने बड़े पद पर हों, उसके लिए आपकी रचना, आपकी कविता को नकारने के साहस की आवश्यकता है। असहमति के लिए साहस की जरूरत है और सहमति के लिए विवेक की जरूरत है, तभी हम सही और ग़लत के लिए एक अच्छे निर्णायक सिद्ध होंगे।
सवाल: आजकल कई किताब, ग़ज़ल संग्रह और काव्य संग्रह आ रहे हैं, किस स्तर के हैं, वह सब आप जानते हैं। प्रकाशक का उद्देश्य क्या है। इस तरह से कविता का उद्धार कैसे होगा।
जवाब: प्रकाशक का उद्देश्य तो पैसा कमाना है। आपने कूड़ा लिखा है, अच्छा-बुरा जैसा भी लिखा है। इससे प्रकाशक को कोई मतलब नहीं। लोगों के पास पैसा है , वह किताबें छपवा लेते हैं। बिना साधना किए। कविता का स्तर इसलिए गिर रहा है, क्योंकि आज के नए लेखक पढ़ने पर विश्वास नहीं करते। मैं हमेशा यह कहता हूं कि नब्बे प्रतिशत अध्ययन हो और दस प्रतिशत लेखन। तभी आप शून्य को मथकर नवनीत समाज के हाथों में दे पाएंगे। दरअसल, जितनी तेजी से प्रकाशक किताबें प्रकाशित कर रहे हैं, उतनी ही तेजी से कविता का पाठक सीमित होता जा रहा है। प्रकाशक का किसी मंत्रालय या सरकारी विभाग में अधिकारी पहचान का है तो वह उसकी किताबें खरीद लेता है, जिसमें लेखक और प्रकाशक दोनों का ही फायदा होता है। कई प्रकाशक यही काम कर रहे हैं। दिल्ली के राजकमल जैसे प्रकाशन ने शिवमंगल सिंह सुमन की किताब ‘मिट्टी की बारात’ छापी थी, जिसकी इतनी बेहुदा समीक्षा हुई थी। नामवर सिंह ने तक इसकी आलोचना की थी। यह किताब जवाहरलाल नेहरू की अस्थियों और कमला नेहरू की अस्थियां साथ-साथ विसर्जित किए जाने के प्रसंग पर आधारित थी। कांग्रेस का शासन था, इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। कमाल यह है कि इस पर सुमन को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल गया। पुरस्कार पर भी कितना बड़ा प्रश्न चिन्ह है, और यह उसका उदाहरण है।
सवाल: पुरस्कार दिए जाने की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए।
जवाब : पुरस्कार जिन्हें मिल जाता है, उन्हें आप कभी समृद्ध और बड़ा कवि होने की ग़लती न करें। पुरस्कार मापदंड नहीं है आपके बड़े कवि होने का, समृद्ध कवि होने का या आपकी रचना के कालजयी का। यह व्यवस्था का एक प्रलोभीकरण है और कुछ नहीं है। व्यवस्था बुद्धिजीवियों को अपने पक्ष में एक बौद्धिक वातावरण बनाने का षड्यंत्र है पुरस्कार। बिड़ला पुरस्कार हो या ज्ञानपीठ पुरस्कार, इन सबके परिप्रेक्ष्य में भी राजनीति है, अपने व्यापारिक हित हैं।
सवाल: उत्तराखंड में आप काफी समय से रह रहे हैं। यहां कविता का भविष्य कैसा है और साहित्य में प्रांतवाद कहां तक उचित है।
जवाब: साहित्य में प्रांतवाद कतई उचित नहीं है। अच्छे साहित्य का मूल्यांकन होना चाहिए और उसी हिसाब से पुरस्कार दिए जाने चाहिए।
सवाल: भाषा मंत्री सुबोध उनियाल जिस लेखक गांव की बात बार-बार करते हैं, वह लेखक गांव कौन सा है। थानों में बना निशंक जी का लेखक गांव अभी बनना है।
जवाब: काफी समय पहले एक मीटिंग हुई थी, जिसमें गैर उत्तराखंडी साहित्यकारों के अलावा कुछ आईएएस और पीसीएस अधिकारी भी मौजूद थे। उस समय गैर उत्तराखंडी साहित्यकारों ने अपनी पीड़ा व्यक्ति की थी कि प्रांतवाद के नाम पर उनसे भेदभाव हो रहा है। अफसरों ने डिप्लोमेटिक जवाब देकर पल्ला झाड़ लिया, जिसका खामियाजा आज भी वह भुगत रहे हैं। थानो में बने लेखक गांव में कुछ लोगों का कब्जा है। वहां की गतिविधियां बहुत स्तरीय नहीं है। यही नहीं, पहाड़ में पंत जी की जयंती तो मनाई जाती है, लेकिन निराला जी की जयंती मनाने से परहेज़ किया जाता है, जो उचित नहीं है।
सवाल: पटना में एक साहित्यिक आयोजन एक बड़े कवि और युवा कवयित्री को लेकर सोशल मीडिया में बड़ा उछला, उस बारे में आप क्या कहेंगे।
जवाब: यह उन्मुक्त कामुकता के सिवा कुछ नहीं है। वैसे भी ज्यादातर साहित्यकार महिला के पक्ष में जल्दी खड़े हो जाते हैं। हालांकि साहित्य में इन चीजों के लिए कोई जगह नहीं है।
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असीम शुक्ल का जीवन परिचय
जन्म: 05 मार्च 1947
स्थान: बांदा (उत्तर प्रदेश)
पत्रकारिता एवं साहित्यिक गतिविधियां: नवभारत टाइम्स दिल्ली में करीब 30 वर्ष तक संपादकीय विभाग में पत्रकार के रूप में सम्बद्ध। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से अनेक बार काव्य पाठ तथा विचार गोष्ठियों में सहभागिता। समीक्षा एवं नवगीत आंदोलन में सक्रिय भागीदारी। ललित निबंधों की परंपरा पर लेखन कार्य।
पुरस्कार: शिलांग स्थित विश्वविद्यालय (नेहू) में ‘हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता’ पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी व्याख्यानमाला में सहभागिता। डॉ. श्याम निर्मम स्मृति सम्मान। डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया सम्मान। वीरेंद्र मिश्र पुरस्कार समेत कई सम्मान। गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान।
प्रकाशित कृतियां: घुटनों तक रोशनी, कल्पवृक्ष गमले में, संज्ञेय की सीप से, शब्द एक कस्तूरी मृग, दीवार पर टंगे प्रश्न, मुक्ति में ही कविता, व्यक्ति और विचार। रचो नदी का मौन, मूल्यों के सार्थवाह और सृजन समेत कई पुस्तकें प्रकाशित।
साक्षात्कारकर्ता: लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
दर्द गढ़वाली, देहरादून
0945585094