मख़्सूस लबो-लहजे़ का शायर सुभाष पाठक ‘जिया’
जि़या के ग़ज़ल संग्रह 'तुम्हीं से जि़या है' की समीक्षा

ग़ज़ल को दरबारों से निकलने में भले ही लंबा समय लगा हो, लेकिन अब यह खुले आकाश में उड़ान भर रही है। ग़ज़ल में महबूबा की बात तो अब भी हो रही है, लेकिन अब इसका फ़लक विस्तृत हो गया है। अब इसमें आमजन की पीड़ा भी साफ झलकती है। युवा शायर सुभाष पाठक ‘जिया’ ने अपने अशआरों में जिंदगी के अनेक रंग भरे हैं। मेरे नजदीक वह मख़्सूस लबो-लहजे़ के शायर हैं।उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह ‘तुम्हीं से जिया है’ इस बात की तसदीक करता है कि उनके लिए ग़ज़ल महज दर्द को अभिव्यक्त करना नहीं है, बल्कि आमजन को हौसला भी देना है। सुभाष का यह शेरः
हमारे पर कतरने से न होगा कुछ।
हमारे हौसले परवाज करते हैं।।
से जाहिर है कि वह किसी भी परिस्थिति में मायूस होने वाले नहीं हैं।
कुछ लोग होते हैं, जो किसी को जाने बिना राय बना लेते हैं, ऐसे ही लोगों के लिए सुभाष का यह शेर हैः
मुझसे मिलता बात करता ऐब तब आते नज़र।
वो मुझे जाने बिना कैसे बुरा कहने लगा।।
लेकिन, ऐसे लोगों की वो परवाह नहीं करते तभी तो कहते हैंः
राह सहरा की चला है तो ये भी सुन ले तू।
सोचना छोड़ दे रस्ते में शजर आएगा।।
सुभाष ख्वाबों में ही नहीं डूबे रहते, बल्कि दुनिया की हकीकत से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं। तभी तो वह कहते हैंः
मैं भी टुकड़ों में बंट गया होता।
खु़द को गर आइना कहा होता।।
और
देखना चाहें कुछ दिखाएं कुछ।
तोड़ देते हैं आइने उम्मीद।।
सुभाष के इस ग़ज़ल संग्रह में प्यार करने वाले युवाओं के लिए हिदायत भरे शेर भी हैं, जो गौरतलब हैंः
कल शब ख्वाब में आकर मजनू ने समझाया है।
दोस्त मुहब्बत मत कर देख मुहब्बत ठीक नहीं।।
और
ताउम्र मुहब्बत का हासिल सिर्फ़ उदासी है।
यानी दीवारें अच्छी हैं पर छत ठीक नहीं।।
विदेश गए लाडले को लेकर पिता की बेबसी और दर्द भी उनके शेर में जाहिर होता हैः
लाडले ने ख़त के बदले पैसे भिजवाए मगर।
बाप मिलने की तमन्ना दम-ब-दम करता रहा।।
हालांकि, जिंदगी में वो समय भी आता है, जब आदमी अकेला पड़ जाता है, ऐसे में शायर भी निराश हो जाता है और तब उसकी कलम से ये शेर निकलते हैंः
बढ़ा जो दर्दे-जिगर ग़म से दोस्ती कर ली।
लहू जो आंख से टपका तो शायरी कर ली।।
और
कौन है किसको फर्क पड़ता है।
घर में रोयें कि कू-ब-कू रोयें।।
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अधिकांश लोग दूसरों को तो खूब उपदेश देते हैं, लेकिन उस पर खुद अमल नहीं करते। ऐसे लोगों पर सुभाष का ये शेर सटीक बैठता हैः
निकल रहे हैं सभी बचके पर उठाते नहीं।
पड़े हुए हैं सरे-राह कांच के टुकड़े।।
सुभाष की ग़जलों का फलक बहुत बड़ा है। इस सिलसिले में उनका यह शेर काबिले-तारीफ हैः
सोचता रहता हूं रोजो़-शब कहूं क्या।
सब कहें वो ही कहा है अब कहूं क्या।।
लेकिन उनके पास कहने को बहुत कुछ है और वह नए अंदाज में शेर कहते रहेंगे, ऐसी मुझे उम्मीद है। उनके सुखद भविष्य और शेरियत के लिए शुभकामनाएं।
आखिर में कुछ और शेर जो सुभाष के मुझे पसंद आए, आप भी गौर करिएः
साया तभी तक पास ठहरा धूप जब तक नर्म थी।
जब धूप सर पर आ गई तो लापता साया हुआ।।
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दुश्मनी में ही सही वो ये करम करता रहा।
आइना मुझको दिखाकर ऐब कम करता रहा।।
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कोई दरिया न मेहरबान हुआ।
प्यास फिर प्यास से बुझा ली है।।
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चांद मत भूल इस हकीकत को।
तूने सूरज से ही जिया ली है।।
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दिल तो ‘कामन’ सी चीज है यारो।
मुझसे उसका यकीन टूटा है।।
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है तमन्ना अगर उजालों की।
तो हिफाजत करो चरागो़ं की।।
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सब गुजरते हैं मेरे सीने से।
मैं हूं इक पायदान चौखट का।।
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दर्द गढ़वाली, देहरादून
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