‘पहले बतलाते के शोलों को धुआं बोलना है’
♦️निमाड़ के उस्ताद शाइर राज़ साग़री की याद में हुई कामयाब नशिस्त-* *♦️ इंदौर से उनका था गहरा रिश्ता, दोस्तों ने दी श्रद्धांजलि-*

इंदौर: गत दिनों पश्चिम निमाड़ (खरगोन) के उस्ताद शाइर मरहूम राज़ साग़री सा. की याद में इंदौर में ‘याद-ए-राज़ साग़री’ नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शाइर जनाब युसूफ़ मंसूरी ने की जबकि मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जावेद आलम उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में वरिष्ठ शाइर जनाब आरज़ू अश्की का सम्मान भी किया गया।
फ़रियाद बहादुर के संचालन में शुरू हुए इस कार्यक्रम में सबसे पहले राज़ साग़री (मरहूम) के फ़न और शख़्सियत पर बोलते हुए युसूफ़ मंसूरी ने कहा कि मुझे राज़ साग़री से मिलकर हमेशा इस बात पर हैरत होती थी कि निमाड़ जैसे बंजर इलाक़े में वो इतनी अच्छी उर्दू कैसे जानते हैं। यक़ीनन इससे उनकी लगन का पता चलता है। उन्होंने कहा कि जब कुछ साल राज़ साग़री इंदौर में रहे, उस दौरान मेरी उनसे ख़ूब मुलाक़ातें रहीं और उन्होंने मैंने भी इल्म में काफ़ी कुछ इज़ाफ़ा किया। उन्होंने बताया कि उनके तीन ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए और निमाड़ श्रेत्र में कई नौजवान शु’अरा की रहनुमाई फ़रमाई। उस्ताद साग़र चिश्ती उज्जैनी(इंदौर) के होनहार शागिर्द राज़ साग़री बहुत सीधे-सरल स्वभाव के थे।
इसके बाद सरफ़राज़ ‘नूर’ की नात-ए-पाक से शे’री नशिस्त का आग़ाज़ हुआ। नात-ए-पाक के बाद राज़ साग़री साहब के ग़ज़ल संग्रह ‘ चराग़ जलते हैं ‘ से अखिल राज ने उनकी चार ग़ज़लें पेश की, जिन्हें श्रोताओं ने ख़ूब सराहा।
राज़ साग़री साहब की ग़ज़लों के बाद तो नशिस्त में शाइरी का एक अलग ही माहौल बन गया क्योंकि इसमें अदब से मुहब्बत रखने वाले पाशा मियां, शमीम अहमद, मनोज कुमार समेत कई बेहतरीन श्रोता मौजूद थे।
नशिस्त के आग़ाज़ में ही जदीद रंग में शाइरी करने वाले नौजवान शाइर यश शुक्ला ने ये अश’आर पढ़कर पूरी महफ़िल को गर्मा दिया। उन्होंने पढ़ा –
*उस सुलगती चीख को फिर ख़ामोशी समझा गया,*
*जब दिए की रौशनी को रौशनी समझा गया।*
*एक दिन हम भूल से जंगल से बाहर आ गए,*
*और फिर जद्दो जहद को ज़िंदगी समझा गया।*
फिर प्रदीप कांत ने अपने नये तेवर की शाइरी से इस गर्माहट में और इज़ाफ़ा कर दिया। उन्होंने पढ़ा –
*आपको पहले बताया जाएगा,*
*हुक्म हो तो मुस्कुराया जाएगा।*
*मोड़ हैं इतने तुम्हारे घर तलक,*
*बाखुदा हमसे न आया जाएगा।*
*आंधियाँ कहती कहाँ हैं ये हमें,*
*किन चरागों को बुझाया जाएगा।*
प्रदीप कांत के बाद तो नशिस्त रफ़्तार पकड़ चुकी थी और अब नंबर था एक और नये तैवर के शाइर विकास जोशी ‘वाहिद’ का।
उनके इन अश’आर ने ख़ूब दाद बटोरी –
*मसअला रिज़्क़ का नहीं हो तो,*
*ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है।*
*हो दुखी कोई तो देता हूँ दिलासा लेकिन,*
*रोने लगता हूँ बंधाते हुए ढांढस ख़ुद को।*
उनके बाद रवि कुमार ‘अतिश’ ने इसी माहौल को और आगे बढ़ाते हुए एक से एक शेर सुनाए। इनमें से उनके दो शेर इस प्रकार थे –
*बैठे मस्जिद पे या मंदिर पे ये उसकी मर्ज़ी,*
*मैं कबूतर को उड़ाऊँगा चला जाऊँगा।*
*मसअला जीत नहीं ख़ुद को बचाने का है,*
*थक भी जाऊँ तो भी बिस्तर नहीं दिखता मुझको।*
अब महफ़िल को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी बदर मनीर पर थी और उन्होंने श्रोताओं को ज़रा भी मायूस नहीं किया। उन्होंने भी जमकर दाद बटोरी। उनके दो शेर इस तरह थे –
*शऊर ही नहीं कब, कितना, कहाँ बोलना है,*
*चंद लोगों को तो बस खोली ज़ुबाँ, बोलना है।*
*हमने जो देखा वो कह डाला, परेशाँ क्यों हो,*
*पहले बतलाते के शोलों को धुआं बोलना है।*
उनके बाद आए शाइर नवाब हनफ़ी। हमेशा की तरह इस बार भी उन्होंने चौंकाने वाले अश’आर पढ़े। उनका एक मतला यूं था –
*ग़म ये नहीं के रास्ता हमवार नहीं है,*
*ग़म ये है कोई क़ाफ़िला सालार नहीं है।*
नौजवान वकील और बेहतरीन शाइर धनंजय कौसर के अश’आर ने साबित किया कि वो शाइरी के मैदान में कुछ नया करने का कमिटमेंट कर के आए हैं। उन्होंने भी श्रोताओं से ख़ूब दाद बटोरी। उनके ये शेर मुलाहिज़ा करें –
*कैसे समझे वो आशिक़ी का दुख,*
*जिस पे तारी हो मुफ्लिसी का दुख।*
*राज अब तक नही खुला हम पर,*
*मौत बदतर कि जिंदगी का दुख ।*
अब नंबर था गौहर देवासी का जिन्होंने अपनी दो-तीन ग़ज़लों से इस शेरी सफ़र को और आगे बढ़ाया। उनके इस मतले ने तो महफ़िल ही लूट ली-
*ज़माना ये जाने किधर जा रहा है,*
*बुलाओ इधर तो उधर जा रहा है।*
गौहर देवासी के बाद अखिल राज ने कुछ शे”र इस तरह पढ़े –
*तू कहे तो नदी को तोडूं क्या,*
*बहते धारे के रुख़ को मोड़ूं क्या ?*
*अब भी प्यासी है गर समा’अत तो,*
*अपनी आवाज़ को निचोड़ूं क्या ?*
*इसमें से कुछ न कुछ तो निकलेगा,*
*अपनी क़िस्मत को और फोड़ूं क्या ?*
अखिल राज के बाद कार्यक्रम के संचालक और वरिष्ठ शाइर फ़रियाद बहादुर ने इस प्रोग्राम को एक और नई ऊंचाई प्रदान की। उन्होंने पढ़ा –
*साज़िश भी इसमें अपनों की शामिल है इन दिनों,*
*दुश्मन हमारे मद्दे मुक़ाबिल है इन दिनों।*
*किन-किन ज़रूरतों से मुझे टूटना पड़ा,*
*मेरा ज़मीर ही मेरा दुश्मन है इन दिनों।*
*हां-हां यहीं तो डूबी थी कश्ती -ए-ज़िंदगी,*
*वीरान क्यूं चनाब का साहिल है इन दिनों।*
और इनके सीनियर शाइर आरज़ू अश्की ने अपने बेहतरीन अश’आर के ज़रिए आज के माहौल पर जो तंज़ किए, उससे हर श्रोता के दाद देने पर मजबूर हो गया। उन्होंने पढ़ा –
*अपनी फ़ितरत से कभी बाज़ न आने वाले ,*
*धर्म के नाम पे कोहराम मचाने वाले ,*
*मैंने शायद तुम्हें देखा है कहीं,*
*तुम वही हो ना मेरा शह्र जलाने वाले।*
आरज़ू अश्की के बाद उस्ताद मक़सूद नश्तरी ने अपने ही अंदाज में अनोखे अश’आर सुना कर महफ़िल को एक नये मकाम पर पंहुचा दिया। आपने पढ़ा –
*ग़ज़ल कहने की आदत हो गई है,*
*इसी बाइस तो शोहरत हो गई है ।*
*भरी है पेट में आतिशफ़िशानी,*
*जहन्नुम सी तमाज़त हो गई है ।*
उनके बाद उस्ताद अनवर सादिक़ी ने तग़ज़्ज़ुल के रंग में जब अपने शेर सुनाए तो श्रोता झूम-झूम उठे। अपनी जिस्मानी तक़लीफ़ के बावजूद उनकी मौजूदगी ने इस शेरी नशिस्त को एक अलग स्तर का प्रोग्राम बना दिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पत्रकार- लेखक जावेद आलम सा. ने अपनी नये तर्ज़ की आज़ाद नज़्में पढ़ कर साबित किया अभी इस सिन्फ़ में काम करने वाले लोग मौजूद हैं। उनकी इन नज़्मों को भी श्रोताओं ने अपनी भरपूर दाद से नवाज़ा।
आख़िर में कार्यक्रम के अध्यक्ष जनाब युसूफ़ मंसूरी सा. ने पहले अपनी बेहतरीन ग़ज़लों से सामइन से दाद वसूली तो बाद में उन्होंने एक दलित लड़की पर एक नज़्म पढ़ी जिसका शीर्षक था – जाने वो कौन थी? इस नज़्म ने इस नशिस्त को आख़िरी पायदान पर पंहुचा दिया और तालियों की गूंज के साथ ये नज़्म ख़त्म हुई।
युसूफ़ मंसूरी सा. की ग़ज़ल के कुछ शेर इस तरह थे –
*दरीचा खोल के ज़ल्फें बिखेरे बैठा है,*
*वो शोख़ धूप बदन से लपेटे बैठा है।*
*किसी की याद सर-ए-शाम से थी बैठी हुई,*
*उजाला आ के तो घर में सवेरे बैठा है।*
*सियाही सूख गयी है किसी को नामा लिखने में,*
*क़लम दवात के अंदर अकेले बैठा है।*
नशिस्त में युवा शाइर शानू, शुभम भोपाली, शादाब और शफ़ी सहर ने भी अपना कलाम पेश किया और श्रोताओं से दाद वसूली।
कार्यक्रम के अंत में फ़रियाद बहादुर ने सभी शु’अरा और श्रोताओं का आभार माना।