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दून पुस्तकालय में गूंजे यमुना घाटी के लोकगीत

-वरिष्ठ रंगकर्मी डॉ. नंदलाल भारती, लोकगायक अनिल बेसरी से युवा पत्रकार प्रेम पंचोली ने की रंगकर्म और लोकगीतों पर बात 

देहरादून: दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सभागार में रविवार को यमुना घाटी के लोकगीतों की गूंज रही। वरिष्ठ रंगकर्मी डा. नंदलाल भारती व यमुनाघाटी के प्रसिद्ध लोक गायक अनिल बेसरी ने अपने गायन के साथ-साथ अन्य महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की। इन दोनों लोक कलाकारों के साथ यमुना घाटी के लोकगायन व संगीत के परिप्रेक्ष्य में युवा लेखक व पत्रकार प्रेम पंचोली ने विस्तार से बातचीत की। उन्होंने कहा कि यमुना घाटी में अन्य जगहों की अपेक्षा पलायन कम हुआ है। इसीलिए रवाईं क्षेत्र में खेती-किसानी से लेकर गांव के तीज त्योहार आज भी जिंदा हैं। लोक गायक अनिल बेसरी ने बताया कि रवाईं क्षेत्र में एक खास बात है कि यदि समाज में कुछ गलत हो रहा हो, तो उसका लोकगीत जुड़ा देते है। इसलिए असामाजिक तत्व रवाईं क्षेत्र में घुसपैठ नहीं कर पा रहे हैं। विशेष यह है कि गांव में कुछ भी समारोह हो, उस समारोह में सामूहिक गीत नृत्य नहीं होगा तो कुछ भी नहीं है। ऐसे कई गीत हैं, जिन गीत के कारण समाज में बदलाव आया है। ऐसे भी कई गीत हैं, जिन गीतों के करण लोग अपनी माटी से जुड़े रहते हैं। यानी वह कितना ही बड़ा अधिकारी या महत्वपूर्ण व्यक्ति बन जाए, जब गांव घर आएगा तो खेतों में काम करने पहुंच जाएगा।

वरिष्ठ रंगकर्मी और जौनसारी गीतकार नंदलाल भारती ने कहा कि जौनसार में गीत-नृत्य से लेकर पहनावा तक सभी आयाम विशेष है। इन सभी आयामों के जौनसार क्षेत्र में लोक गीत हैं। उन्होंने कहा कि 30 साल पहले यदि कोई जौनसारी ड्रेस पहनकर बाजार आ गया तो लोग उनके पहनावे की मजाक बनाते थे, इसलिए लोगों ने अपनी संस्कृति से पलायन करना आरंभ किया। मगर जब उन्होंने 30 बरस पहले जौनसारी लोक संस्कृति के प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाया तो भी उनका मजाक उड़ाया गया। पर वे अपने मिशन से हटे नहीं और आज स्थिति ऐसी हो गई है कि दूर शहर अथवा विदेश में भी कोई जौनसारी होगा तो वह अपने पहनावे को गर्व के साथ पहनता है। यही नहीं, लोग जौनसारी ड्रेस खुद बनवाने लग गए हैं। कुल मिलाकर जो कार्य वे पिछले 35 वर्षो से कर रहे हैं, अब उसका असर थोड़ा-थोड़ा दिखने लग गया है। यानी अपने परंपरागत पहनावे को लोग गर्व से पहन रहे हैं, किसी भी समारोह में जौनसारी गीत ही सुनाई देते है, सैकड़ों लोग गायन वादन का काम कर रहे। यही नहीं हर गांव में लोग अपने त्योहारों में गांव पहुंच जाते है। कहने का तात्पर्य यही है कि लोग वापस अपनी जड़ों से जुड़ रहे है।

कार्यक्रम के विशेषज्ञ और वरिष्ठ रंगकर्मी डा. नंदलाल भारती और वरिष्ठ लोक गायक अनिल बेसरी ने कहा कि यमुना घाटी उत्तराखंड की ऐसी उर्वरा घाटी है, जहां खेतीबाड़ी से लेकर गीत संगीत तक की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। इस घाटी में अपेक्षाकृत पलायन बिल्कुल भी नहीं है। यहां आज भी गांव आबाद हैं। गांव में हर माह की संग्राद में कुछ न कुछ आयोजन होता है, यह आयोजन नृत्य, गीत और सामूहिक कार्यों के बिना अधूरा है।

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सहभागिता से होते हैं सब काम

यहां के गांव में रिवाज है कि कोई भी कार्य बिना सहभागिता के संपन्न नहीं होगा, यमुना घाटी यानी रवाईं, जौनसार, बाबर, जौनपुर आदि क्षेत्रों से मिलकर एक छोटा सा क्षेत्र है। जौनसार – बाबर देहरादून का हिस्सा है, जौनपुर टिहरी जनपद का हिस्सा है और रवाईं उत्तरकाशी जनपद का हिस्सा है। इस त्रिवेणी में जब आप अपने आप को समागम बनाएंगे तो आप भी नहीं रुक पाएंगे और नृत्यकारों के साथ अपनी कदमताल मिलाते चलेंगे।यहां के नृत्य की एक अलग पहचान है, नृत्य की चाल एकदम भावनात्मक है। इसमें कोई भी उद्वेलित नहीं है और ना चमत्कारी है सिर्फ सामूहिक और समूह में रहने की प्रेरणा है, आपसी प्रेम भाव को बांटने का संदेश है।

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अजूबा है छोड़ा गीत

यहां के अधिकांश गीत पंक्तिबद्ध होकर गाए जाते हैं, जिन्हें बाजूबंद तांदी, हारूल, छोपुती, रासो नृत्य आदि नाम से जाना जाता है। यहां का सबसे सुप्रसिद्ध गीत “छोडा” कहलाया जाता है। छोड़ा एक लोक गायक बैठ करके गाता है और अन्य दर्शक उसके साथ स्वर से स्वर मिलाते हैं। यह अद्भुत कला सिर्फ और सिर्फ यमुना घाटी में ही दिखाई और सुनाई देती है। छोड़े गीत के लेखक अब तक सामने नहीं आ पाए हैं। इन अज्ञात कवियों द्वारा रचित यह छोड़े गीत अपने आप में एक अजूबा है। इसी तरह यमुना घाटी के हर एक लोक गीत अपने आप में विशेष है। यहां के सभी नृत्य गीत रसीले और भावनात्मक है। जबकि यहां गाई जाने वाली हारूल के विभिन्न प्रकार है, जिसमें वीर रस एक खास प्रकार का हारूल गीत है।

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आज भी अज्ञात हैं लोकगीतों के रचनाकार

दिलचस्प यह है कि यमुना घाटी के लोकगीतों के रचनाकार आज भी अज्ञात हैं। इन अज्ञात रचयिताओं द्वारा रचित लोकगीत संपूर्ण यमुना घाटी में गाए जाते हैं। आज के आधुनिक युग में इन गीतों को सैकड़ों कलाकारों ने ऑडियो-वीडियो फॉर्मेट में प्रस्तुत किया है। यमुना घाटी के लोक नृत्य अपने आप में खास है। इसलिए कि यहां के लोकगीत लोक वाद्य यंत्रों के साथ ही गाए जाते हैं, जिसमें मुख्य रूप से थाली, खंजरी, ढोलक और ढोल, नगाड़ा एवम रणसिंघा प्रमुख है। आज के वाद्य यंत्रों को इनके साथ सम्मिलित करने में थोड़ा सा कठिनाई आ सकती है लेकिन परंपरागत वाद्य यंत्रों के साथ जब यमुना घाटी के लोकगीत प्रस्तुत होते हैं तो देखते ही एक आवाज आती है कि हम भी नृत्यकारों के साथ सम्मिलित होना चाहते है।
कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध लोकगायक अनिल बेसारी ने जौनसार, रवाईं और जौनपुर के इलाके में प्रचलित परंपरागत गीतों का भी गायन किया ।

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यह थी उपस्थिति

कार्यक्रम के प्रारम्भ में दून पुस्तकालय एवम शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी ने आमंत्रित कलाकारों व सभागार में उपस्थित लोगों का स्वागत किया। कार्यक्रम में डॉ. नंदकिशोर हटवाल, डॉ.अतुल शर्मा, सुरेंद्र सजवाण, रंजना शर्मा, शूरवीर सिंह रावत, शैलेन्द्र नौटियाल, भारती आनन्द, शोभा शर्मा आदि मौजूद थे।

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