उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कारों में गड़बड़झाले के खिलाफ विरोध के स्वर तेज
- उत्तराखंड भाषा संस्थान से आरटीआई मांगने के साथ अब सुझावों का दौर भी शुरू पुरस्कारों में पारदर्शिता लाने के लिए जिलास्तरीय समिति का हो गठन

लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
देहरादून: उत्तराखंड भाषा विभाग में भले ही नए सचिव की नियुक्ति हो गई हो, लेकिन उत्तराखंड भाषा संस्थान में सक्रिय चाटुकारों को बेनकाब करने की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। चाटुकारों के खिलाफ लड़ाई को आगे आए साहित्यकारों का मानना है कि भाषा संस्थान की ओर से वितरित साहित्य गौरव पुरस्कार में पारदर्शिता लाने और अनुदान की बंदरबांट पर अंकुश लगाने का समय आ गया है। भाषा संस्थान कुछ लोगों के हित साधने के लिए नहीं बना है, बल्कि इसे उत्तराखंडियत की देशभर में पहचान बनाने और साहित्य सृजन के माध्यम से समाज की दशा और दिशा सुधारने के काम में योगदान दे रहे ईमानदार साहित्यकारों को आगे लाने के लिए स्थापित किया गया है।
उत्तराखंड भाषा संस्थान की ओर से रेवड़ियों की तरह बांटे गए साहित्य गौरव पुरस्कार को लेकर विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं। यही नहीं, पुरस्कारों में कथित रूप से हुए गड़बड़झाले को सार्वजनिक करने के लिए जहां आरटीआई के तहत जानकारी मांगी जा रही है, वहीं पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए सुझाव भी दिए जा रहे हैं। पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया को लेकर सबसे ज़रूरी तो यह है कि जिलास्तर पर इसका प्रचार किया जाए। हर जनपद में जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जाए, जिसमें जनपद के साहित्यकार हों और जो जिलास्तर पर साहित्यकार का रिकॉर्ड रखे। दशकों से साहित्य सृजन कर रहे साहित्यकारों का डाटा रखे और उनके साहित्य को जिलास्तरीय लाइब्रेरी में प्रदर्शित करें, ताकि नए लेखकों में साहित्य की समझ पैदा हो सके। साहित्य की दीर्घकालीन सेवा के लिए दिए जाने वाले पुरस्कारों के लिए राज्यस्तरीय समिति गठित की जाए, जिसमें नामचीन साहित्यकार हों, जिनकी छवि विवादित न हो। यह राज्यस्तरीय समिति जिलास्तरीय समिति से परामर्श के बाद बिना आवेदन और दुराव-छिपाव के उत्कृष्ट साहित्य का सृजन करने वाले का चयन कर उसका नाम पुरस्कार के लिए प्रस्तावित करे।
पुरस्कारों में बंदरबांट को रोकने के लिए जरूरी है कि पुरस्कारों की संख्या सीमित हो, लेकिन प्रतिस्पर्धा ज्यादा हो। जिलास्तरीय समिति के माध्यम से उत्कृष्ट पुस्तक का चयन हो और उसके बाद राज्यस्तरीय समिति अंतिम रूप से उस पर मुहर लगाए, ताकि विवाद की स्थिति न बने। भाषा संस्थान के अंतर्गत बनी विभिन्न समितियों का सदस्य ऐसे साहित्यकारों को बनाया जाए, जो विवादरहित हों। साहित्य जगत में जिनके रचना संसार को मान्यता मिली हो।
भाषा संस्थान की ओर से पुस्तकों के लिए दिए जाने वाले मनमाने अनुदान पर भी अंकुश जरूरी है। अनुदान उन्हीं लोगों को दिया जाए, जिनका सृजन उत्कृष्ट हो और वह खुद उसे छपवाने में सक्षम न हो। इससे न केवल भाषा संस्थान के बजट का दुरूपयोग रुकेगा, बल्कि अच्छा साहित्य भी लोगों को पढ़ने को मिलेगा।