
ग़ज़ल
ज़रा मन के आंगन का विस्तार देखो।
खड़े होके इस पार, उस पार देखो।।
पड़े हैं जो आंखों पे नफ़रत के जाले।
हटा कर उन्हें भी ज़रा यार देखो।।
अंधेरों को ये काटती जा रही है।
मेरी लेखनी की ज़रा धार देखो।।
नज़र आएंगी खून की सुर्ख़ियां ही।
सवेरे का जिस वक्त़ अख़बार देखो।।
तुम औरों के अंदर बहुत झांकते हो।
ज़रा ख़ुद के अंदर भी इक बार देखो।।
यहां दिल तो रखते हैं ऐ ‘दर्द’ सब ही।
मगर इनमें है कौन दिलदार देखो।।
दर्द गढ़वाली, देहरादून
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