घी संक्रांति: आस्था के साथ प्रकृति से भी जुड़ा है यह पर्व

भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की संस्कृति और परंपराएँ अत्यंत समृद्ध हैं। यहाँ के लोकपर्व केवल आस्था से जुड़े नहीं होते, बल्कि प्रकृति और परिवार के बीच संबंधों की गहराई को भी अभिव्यक्त करते हैं। इन्हीं लोकपर्वों में से एक है घी संक्रांति, जिसे ओलगिया, घ्यू त्यार अथवा घी त्यार भी कहा जाता है। यह पर्व प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह की संक्रांति (सिंह संक्रांति) को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
पर्व का महत्व जीवन में खुशहाली और पशु-प्रेम है।
यह पर्व कृषि और पशुपालन का उत्सव है। उत्तराखंड की जीवनशैली परंपरागत रूप से खेती और पशुपालन पर आधारित रही है। घी संक्रांति किसान और पशुपालक समुदाय के लिए आभार और समृद्धि का प्रतीक है।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की
लोकमान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन जो भी इंसान घी का सेवन नहीं करता, उसे अगले जन्म में घोंघे के रूप में जन्म लेना पड़ता है। यह विश्वास पर्व को विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व देता है।स्वास्थ्य और कल्याण के लिए घी का सेवन शरीर को बल, हड्डियों को मज़बूती, त्वचा को कांति और जीवन में ऊर्जा प्रदान करता है। यह पर्व बदलते मौसम में स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने का संदेश देता है।सामाजिक जुड़ाव यह पर्व पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को मज़बूती देता है। पुराने समय में माता-पिता अपनी बेटियों, दामादों और रिश्तेदारों को घी, अनाज और अन्य वस्तुएँ भेंट कर अपना प्रेम भाव व्यक्त करते थे।
पर्व की परंपराएँ इस दिन घर-घर में स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं। गुड़-आटे के पुवे, काली उड़द के दाल के बाड़े, पूरी-कचौड़ी, झंगोरे की खीर, और उड़द से बनी विशेष बेड़ू रोटी पर्व का मुख्य आकर्षण होती है। इसमें उड़द की दाल भरकर इसे घी या मक्खन के साथ खाया जाता है।
जरूरतमंदों को घी दान करने की परंपरा भी इस पर्व का महत्वपूर्ण अंग है, जिसे पुण्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। कुछ स्थानों पर लोग माथे पर घी लगाते हैं, जो शुभता और पवित्रता का प्रतीक है। पारिवारिक रिश्तों में उपहार देने और स्नेह का आदान-प्रदान इस दिन की विशेष परंपरा है।
यह सांस्कृतिक विरासत का पर्व घी संक्रांति केवल खानपान या धार्मिक मान्यता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उत्तराखंड की जीवंत सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। इस दिन गाँवों में पारंपरिक मेलों और लोकनृत्यों का आयोजन होता है। लोकगीतों की गूंज और पारंपरिक नृत्य इस पर्व की शोभा को और बढ़ा देते हैं।
मेरी स्मृतियाँ में ऐसे पर्वों की महक हमेशा बचपन की यादों को ताज़ा कर देती है। मुझे याद है, हमारे घर पर हर संक्रांति को पंडितजी आते थे और पूजा-पाठ होता था। मेरे माता-पिता अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के थे। प्रत्येक संक्रांति पर दान और पूजा उनके जीवन का हिस्सा था, और वही संस्कार हमें भी मिले। घी संक्रांति के दिन माँ सुबह-सुबह ही पकवान बनातीं, पंडितजी को खिलाकर दान करतीं और फिर हम बच्चों को घी से बने व्यंजन प्यार से परोसती थीं। चूल्हे पर बनी मडुवे की रोटी घी-गुड़ के साथ परोसे गए व्यञ्जन की महक, मिट्टी की खुशबू और माँ के हाथ का स्वाद आज भी स्मृतियों में ताज़ा है। यह पर्व केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि समृद्धि, संस्कार और सौहार्द का प्रतीक है।
लोककथाएँ घी त्यौहार से जुड़ी मान्यता है कि इस दिन देवभूमि में देवताओं को प्रसन्न करने हेतु घी धरती और शिखरों पर अर्पित किया जाता है, ताकि वर्षा समय पर हो और फसलें अच्छी हों।
यह पहाड़ी कहावतें लोककथन अपनी दादी ताऊ -ताई माँ एवं गाँव के बड़े बुज़र्गो से सुनने को मिलती थी।
“जै घी, तै भाग्य” यानी जितना घी, उतना सौभाग्य।
“घी बणि रै बास, तै देवता रै आस” जब घर में घी की सुगंध होती है तो मानो देवता वहीं वास करते हैं। “घी त्यार, खेत उबार” घी त्यौहार के बाद खेत जोतने-बोने का समय शुभ माना जाता है।
एक और लोककथा में कहा जाता है कि माँ पार्वती ने कैलाश पर घी अर्पित कर शिव से सुख-समृद्धि का वर पाया।
मुझे गर्व है कि मैं उत्तराखंड की उस भूमि में पली-बढ़ी हूँ, जहाँ हर घर में संस्कृति, सभ्यता और भाईचारे की खुशबू है। हमारे पर्व–हरेला, घुगुती त्यार, फूलदेई और घी संक्रांति–सुख, समृद्धि और हरियाली के प्रतीक हैं।
घी संक्रांति केवल घी खाने का पर्व नहीं, बल्कि यह कृतज्ञता, समृद्धि और सांस्कृतिक एकता का उत्सव है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है और हमारे पूर्वजों की यादों को ताज़ा करता है।
“जि राया जग रिया, सुख समृद्धि पाओ।
ओ दीर्घ आयु होल, सुख-शांति मिलाव।
धरती जैंसी धैरज, आकाश जैंसी छाँव,
माँ भगवती रक्षी, दुख-दरिद्र भगाओ।”
– कविता बिष्ट ‘नेह’ (युवा कवयित्री)