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उत्तराखंड भाषा संस्थान के गड़बड़झाले की लड़ाई आरटीआई तक आई

- आरटीआई के जरिए चयन समिति से लेकर पुरस्कारों के मानकों तक पर उठाए सवाल

देहरादून: उत्तराखंड भाषा संस्थान की ओर से वितरित साहित्य गौरव पुरस्कारों में कथित गड़बड़झाले की लड़ाई अब आरटीआई तक पहुंच गई है। कुछ लोगों ने आफलाइन से आनलाइन तक आरटीआई के जरिए चयन समिति से लेकर पुरस्कारों के मानक तक पर सवाल उठाए हैं।
भाषा संस्थान की ओर से राजधानी में पिछले दिनों कथित रूप से रेवड़ियों की तरह बांटे गए साहित्य गौरव पुरस्कारों को लेकर साहित्यकारों का गुस्सा कम नहीं हो रहा है। वह चाहते हैं कि पुरस्कारों के लिए पारदर्शी व्यवस्था होनी चाहिए। जबकि हाल में घोषित कुछ पुरस्कारों में पक्षपात साफ नज़र आता है। एक पिता-पुत्र को जिस तरीके से पुरस्कार के लिए चयनित किया गया, वह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। सवाल यह भी है कि भाषा संस्थान ने पुरस्कार के लिए क्या मानक बनाए हैं। कितने आवेदन आने में पुरस्कार दिए जाएंगे। अगर किसी में दो या तीन आवेदन आए, तो क्या उन्हीं में से किसी एक को साहित्य गौरव पुरस्कार के लिए चयनित कर दिया जाएगा। क्या इससे साहित्य का उत्थान हो जाएगा? अथवा उस पुरस्कार विजेता का, जिसे बहुत कुछ सीखने और समझने की ज़रूरत है।
कुछ साहित्यकार तो खुलकर सोशल मीडिया पर अपनी बात रख रहे हैं। साहित्य के लिए समर्पित कथाकार कुसुम भट्ट तो साफ कहती हैं कि बात पुरस्कार की नहीं है। बात काम के मूल्यांकन की है। आप साहित्य गौरव पुरस्कार दे रहे हो, न कि छिटपुट पुरस्कार। आप किन लोगों से किसी की कृति का मूल्यांकन करना रहे हो? उनका ख़ुद का काम क्या है। युवा शायर बादल बाजपुरी भी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि चयन समिति में कितने सदस्य ऐसे थे, जो ग़ज़ल की विधा से परिचित थे। क्यों देवनागरी लिपि में कही ग़ज़ल संग्रह का मूल्यांकन हिंदी कविता संग्रह से नहीं किया जाता है? साहित्यकार असीम शुक्ल, आशा शैली, डॉ. रामविनय सिंह, रतन सिंह किरमोलिया, तारा पाठक, मंजू पांडे उदिता का भी साफ कहना है कि भाषा और संस्कृति का उत्थान तभी हो सकता है, जबकि चयन प्रक्रिया पूर्णतः निष्पक्ष एवं पारदर्शी हो।

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