काश बच्चों को सिखाए कोई बच्चा होना
मील का पत्थर साबित होगा पूनम प्रकाश का ग़ज़ल संग्रह

मेरी पसंदीदा शाइरा पूनम प्रकाश जी का यह नायाब ग़ज़ल संग्रह कुछ रोज़ पहले भेंट स्वरूप मिला।दिल की अनंत गहराइयों से बहुत बहुत शुक्रिया मुझे यह ख़ूबसूरत संग्रह भेंट करने के लिए।
ग़ज़लों की दुनिया में पूनम प्रकाश जी ने एक ऐसा मुक़ाम हासिल कर लिया है जहाँ तक बहुत कम ही लोग पहुँच पाते हैं ।
मैं पूनम जी को फ़ेसबुक पर अक्सर पढ़ती रही हूँ ! आपके अशआर बहुत मौलिक, दिल की गहराइयों से निकले हुए और दिल तक पहुँचने की सलाहियत रखने वाले होते हैं । मैंने जब भी उनके अशआर पढ़े या सुने हैं तो मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि उनका लेखन अपने अंदर सामान्य से कुछ हटकर एक गहराई लिए हुए होता है। उनकी ग़ज़लों में एक कशिश होती है, जो पाठकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है।
ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ रंगों पर कहे गए सभी अशआर इस बात की तसदीक़ करते हैं कि कहने वाले ने इनमें ज़िंदगी को बहुत क़रीब से , बहुत शिद्दत से महसूस कर के अपने जज़्बात की तर्जुमानी की है ।
आपकी शाइरी में सागर की गहराई भी है और फ़लक की वुसअतें भी ।आम बोलचाल के शब्दों द्वारा मानवीय संवेदनाओ की काव्यात्मक अभिव्यक्ति सरल नहीं होती ।विशेष तौर पर ग़ज़ल विधा में यह और भी कठिन होता है क्योंकि यहाँ सीमित शब्दों में ही अरूज़ की बंदिशों में बँध कर अपनी बात कहनी होती है और पूनम प्रकाश जी ने को यह हुनर हासिल है । सादा ज़ुबान में , सहजता के साथ , बहुत सलीक़े से करिश्माई असर रखने वाले अशआर कहने में माहिर हैं आप ।अरूज़ पर खरी उतरती बेहद ख़ूबसूरत 110 ग़ज़लों का ‘बोधि प्रकाशन ‘द्वारा प्रकाशित यह आलातरीन मजमुआ “सहराओं में पानी लाओ’ पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है ! अनेकों कोट किए जाने वाले अशआर हैं इस संग्रह में !
ज़्यादा कुछ न कहते हुए मैं बानगी के तौर पर कुछ अशआर प्रस्तुत कर रही हूँ जिन्हें पढ़ कर आप भी पूनम प्रकाश जी की शाइरी के मुरीद हुए बिना नहीं रह सकेंगे :-
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गुज़रती ख़ूब थी जब दो थे हम तनहाई और बस मैं
बढ़ा दी भीड़ नाहक़ घर में मैंने आइना रख कर
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मर्ज़-ए-रफ़्तार ने दुनिया के चमन ख़ाक किये
काश बच्चों को सिखाए कोई बच्चा होना
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कफ़स गुज़री है वो मुझपे कि मैं कागज़ के ऊपर भी
परिंदा जब बनाती हूँ तो मुझसे पर नहीं बनते
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क्या वाइज़ और क्या दीवाने, रूठ गए
जो भी आए थे समझाने, रूठ गए
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आँख धोती है शब में सिरहाना
दिन गुज़रता है फिर सुखाने में
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पहले ही दिल में टूटने का ख़ौफ़ बेहिसाब
फिर चूड़ियों से आस कि खन-खन-खनन भी हो
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पूछा जब वाइज़ से सफ़रे-ज़िंदगानी का मिज़ाज
मुस्कुरा कर उसने बस जूते में कंकर रख दिया
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तुम्हारी शाम को फ़ुरसत न जाने कब होगी
यहाँ तो चाय की बेहद उदास प्याली है
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हमें पाजेब ने बतला दिया था
कि ख़ुद बांधेंगे हम ज़ंजीर अपनी
हमारा ग़म तुम्हारा ग़म भी होता
तो काफ़ी थी यही जागीर अपनी
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फिर न दुनिया को पशोपेश में डाला जाए
मेरे साँचे में कोई और न ढाला जाए
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किसी को गिरते हुए एक बार देखा था
फिर आई उम्र तलक थाम-थाम की आवाज़
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हो न कोई ज़रूरी इतना भी
ख़ुद सरापा फ़िज़ूल हो जाएं
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पैहम सफ़र में बढ़ रहा था ज़िंदगी पे बोझ
सो ख़ुद को छोड़ आई मैं पिछले पड़ाव में
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न टूट जाए तआल्लुक़ कहीं इसी डर से
तमाम उम्र अदाकारियों का काम किया
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मुझको आवाज़ उठाने का मिला ये हासिल
सारी दुनिया रही ख़ामोश मेरी बारी में
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तेरे भी अब यानी करतब भूल गए
बल्ब जला कर सूरज को सब भूल गए
दो घण्टे से बैठे हैं हम बाहर और
पाँच मिनट को कह कर , साहब भूल गए
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सबका अपना अपना होना काम आया
क्या होता है यार किसी के होने से
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मुझे रफ़्तार से शिकवा नहीं पर
मेरे तलवों में कंकर बैठते हैं
ऐसे ही सीधे दिल तक पहुँचने वाले अनेकों अशआर हैं संग्रह में जिन्हें कोट किया जा सकता है परंतु संग्रह पढ़ने के लिए कुछ प्यास बाक़ी रहे , इसलिए और अशआर शेयर करने से अपने को रोक लिया ।
पूनम प्रकाश जी की यह किताब निःसंदेह ग़जल प्रेमियों के लिए एक नायाब तोहफ़ा है। इस शानदार संग्रह के प्रकाशन पर मैं प्रिय पूनम जी को अनेकानेक शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ।यह पुस्तक अवश्य ग़ज़ल की दुनिया में मील का पत्थर साबित होगी।ऐसा मेरा विश्वास है और यही मेरी दिली दुआ भी !
– मधु मधुमन
पटियाला