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मशहूर शायर महेंद्र सिंह अश्क नहीं रहे, शनिवार शाम ली अंतिम सांस

नजीबाबाद: देश के प्रतिष्ठित शायरों में शुमार महेंद्र सिंह अश्क का शनिवार शाम निधन हो गया। वह 80 साल के थे। लगभग 60 साल छोटे-बड़े मंचों को अपनी शायरी से सजाने वाले अश्क जी कुछ समय से बीमारी से जूझ रहे थे। शनिवार सुबह ही अमन की पोस्ट से पता चला कि उनके फेफड़े 30 प्रतिशत ही काम कर रहे थे और शाम आते-आते अश्क जी के इस फ़ानी दुनिया से विदा होने की सूचना आ गई। अश्क जी का अंतिम संस्कार एक दिसंबर को हरिद्वार में होगा। अश्क जी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा देश-विदेश की यात्राओं में गुजरा था। पाकिस्तान, ईरान, दुबई, डेनमार्क और लंदन सहित अनेक देशों में मुशायरे की सफलता के अश्क जी बायस थे।
महेन्द्र अश्क जी का जन्म वास्तव में तो 1945 में सकट (जनवरी) में हुआ था परन्तु स्कूल में मास्टर साहब ने प्रवेश के दौरान 24 जुलाई 1945 दर्ज़ कर दी थी। अश्क जी ने लगभग 9 या 10 साल की उम्र से अपने पिताजी और मामाओं के प्रभाव में आकर शायरी शुरू कर दी थी। जब बारह साल के हुए तो दादा जी चल बसे। दादा जी गांव के जमींदार काजी खानदान से होने के बावजूद बेहद शरीफ़ इंसान थे। अपने मित्रों या परिवारिकों में किसी को निराश नहीं किया। जिसने जो मांगा देते चले गए। इसीलिए घर परिवार के लोग उन्हें सूफी जी कहते थे।
अश्क जी के पुत्र और साहित्यकार अमन कुमार त्यागी के अनुसार पिता जी और उनकी उनसे छोटी दो बहनें तथा सबसे छोटे भाई अनाथ हो गए। मां विधवा हो गई। खानदानियों ने जमीनें कब्जानी शुरू कर दी, एक बार तो चोरी भी करा दी थी। यही सारे कारण रहे कि मां ने अपने बच्चों को साथ लेकर मायके रहना उचित समझा। पिता जी के दो मामा थे। लल्लू सिंह और धर्मवीर सिंह। दोनों ने अपनी बहन को सर आंखों पर रखा। जमीनें उनके पास भी बहुत थीं। उन दिनों त्यागी परिवारों की आर्थिक स्थिति उनकी जमीनों पर ही निर्भर करती थी।
होनी को कौन टाल सकता है? मोहर सिंह को अंग्रेज सरकार ने दारोगा बना दिया था। उससे पहले उनके पिता जी और दादा जी मुगल काल से ही काज़ी मतलब गांव के सरपंच रहे। मोहर सिंह के बाद काज़ी हिम्मत सिंह ने भी काजियत ही संभाली। मगर ठाकर सिंह इन सबसे दूर रहे और सूफ़ी जी कहलाने लगे। यही ठाकर सिंह मेरे पिता जी के पिता थे और मेरे दादा।
ननिहाल ढबारसी, हसनपुर, जे पी नगर (अमरोहा) में मामाओं के लड़प्यार में पले। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई जबकि स्कूलिंग सिंहपुर में हुई जो सम्भल के पास है। आगे की पढ़ाई माछरा कॉलेज और मेरठ कॉलेज मेरठ में हुई। जहां खेल और शायरी के लिए अनुकूल माहौल मिला। अंग्रेज़ी से एम ए तो किया मगर शायरी के कारण पढ़ाई में अधिक मन नहीं लगा। सो बीएड में प्रवेश के बावजूद पढ़ाई छोड़ दी। इसी दौरान 1955 में दुष्यन्त को कुमार के राजपुर नवादा के बराबर में गांव रघुनाथपुर (बिलखोड़ा) में वेदकांति त्यागी के साथ विवाह हो गया। मेरे नाना जी फतेहचंद त्यागी जी भी बड़े विद्वान थे और आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता थे। यहां भी जमीनों की भरमार थी। और शायरी का माहौल भी।
पिता जी को हर जगह शायरी का ही माहौल मिला।
विवाहोपरांत परिवार सहित अपने पैतृक गांव किवाड़ चले आए। यहां आकर खेती शुरू कराई, कुछ नौकर रखे और स्वयं गांव के जूनियर हाई स्कूल में मास्टरी शुरू कर दी, बाद में यह स्कूल सरकार के हाथ में चला गया तो उमरी पब्लिक स्कूल में नौमान साहब के साथ पढ़ाने लगे।
जब गांव में आए तो आपको निकटवर्ती कस्बे सहसपुर में एक बेहतरीन शायर श्रीजी से मुलाकात हुई और उन्हीं को आपने विधिवत उस्ताद घोषित किया। इधर अगर महेंद्र अश्क श्रीजी को पाकर निहाल हो रहे थे तो उधर श्रीजी भी निहाल हो गए थे। हद तो यह हो गई कि श्रीजी ने तमाम शायरों की मिन्नतों के बावजूद उन्हें शागिर्द नहीं बनाया। श्रीजी का कहना था – “बस महेंदर के सिवा कोई नहीं, मेरे लिए एक ही शागिर्द काफ़ी है।” इधर, अश्क साहब का भी यही हाल था। पांच किलोमीटर जाना और पांच किलोमीटर आना लगभग दिनचर्या सा बन गया था। ऐसा लगता है कि ये उस्ताद और शागिर्द ऊपर वाले ने ही बनाकर भेजे थे। अश्क जी के निधन से अदबी जगत में एक ख़ला पैदा हो गया है, जिसे भरना आसान नहीं होगा।
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अश्क जी की शायरी का वीडियो (हेलो शायरी से साभार)

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