गढ़वाली और कुमाऊंनी को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने का सुनहरा मौका
जनगणना परिपत्र के भाषा वाले कालम में अनिवार्य रूप से अपनी मातृभाषा (गढ़वाली, कुमौनी व जौनसारी) दर्ज कराएं

देहरादून: अपनी भाषा-बोली (मातृभाषा) को सम्मान दिलाने का ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता, जैसा वर्ष 2026 में शुरू होने वाली जनगणना के बहाने मिलने जा रहा है। इस दौरान जनगणना कर्मी आपके घर पहुंचकर एक परिपत्र (फार्म) में आपसे से जुड़ी समस्त जानकारियां दर्ज करेंगे। मसलन, आपका नाम, पता, शिक्षा, भाषा-बोली, जाति, धर्म, रोजगार, स्वरोजगार, वार्षिक आय, परिवार का विवरण, कमाऊ और बेरोजगार सदस्य, मकान-जमीन की स्थिति वगैरह वगैरह। मेरी आपसे गुजारिश है कि इस दौरान परिपत्र के भाषा-बोली वाले कालम में अपनी मातृभाषा यानी गढ़वाली, कुमौनी (कुमाऊंनी) व जौनसारी अनिवार्य रूप से दर्ज करें। आपकी यह छोटी सी पहल बड़े निर्णय का आधार बनेगी यानी गढ़वाली-कुमौनी को संवैधानिक मान्यता मिलने की राह आसान होगी। आपको अपनी संस्कृति एवं परंपराओं से प्यार है तो इस पहल को अभियान बनाकर अंजाम तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
अब एक सरसरी नजर जनगणना के प्रस्तावित कार्यक्रम पर भी डाल लेते हैं। जनगणना का पहला चरण अप्रैल 2026 में शुरू होगा। यह जनगणना पहली बार पूरी तरह डिजिटल प्रारूप में हो रही है, जिसके अंतिम आंकड़े एक माह के भीतर उपलब्ध होंगे। कार्यक्रम के अनुसार वर्ष 2026 में अप्रैल से जून के बीच किसी भी 45 दिन की अवधि में मकान सूचीकरण और मकानों की गणना की जाएगी। यह जनगणना का पहला चरण होगा। इसके बाद वर्ष 2027 में नौ से 28 फरवरी के बीच घर-घर जाकर जनगणना के विस्तृत आंकड़े जुटाए जाएंगे। फरवरी में उत्तराखंड के कई स्थानों पर बर्फ जमी रहती है, इसलिए 150 के आसपास गांवों और तीन नगरों में जनगणना का विस्तृत चरण वर्ष 2026 में 11 से 30 सितंबर के बीच पूरा किया जाएगा।
पहले चरण में मकानों का ब्योरा दर्ज करते हुए मुखिया का नाम और भवनों की स्थिति दर्ज की जाएगी। मसलन मकान कच्चा है या पक्का और वहां सुविधाओं की स्थिति क्या है। इसके अलावा मुख्य जनगणना में मुखिया के साथ ही परिवार के सभी सदस्यों की व्यक्तिगत जानकारी, उनकी शैक्षिक योग्यता, रोजगार-स्वरोजगार आदि का विवरण दर्ज होगा। इसके अलावा जातिगत जनगणना भी मुख्य गणना के साथ ही होगी। दरअसल, इस बार जातिगत जनगणना का भी निर्णय लिया गया है। जिससे उत्तराखंड समेत देश में समाज की विविधता की व्यापक तस्वीर उभरकर सामने आएगी। पिछड़ा वर्ग की स्पष्ट यह गणना मुख्य गणना के साथ कुछ अतिरिक्त सवाल जोड़कर की जाएगी। यह ऐसा निर्णय है, जो देश की वास्तविक तस्वीर को सामने लाएगा।
इसलिए जरूरी है जनगणना
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जनगणना के आंकड़ों का उपयोग सरकारों द्वारा प्रशासन, योजना और कानून के साथ-साथ कई कार्यक्रमों के प्रबंधन और मूल्यांकन के लिए किया जाता है। निर्वाचन क्षेत्रों (संसदीय, विधानसभा, पंचायत और स्थानीय निकाय) का परिसीमन व आरक्षण भी जनगणना के आंकड़ों से तय होता है। जनगणना पिछले दशक में देश की प्रगति का मूल्यांकन करने, सरकार की योजनाओं की निगरानी करने और भविष्य की योजनाएं बनाने का महत्वपूर्ण आधार है। जनगणना के आंकड़े व्यवसाय और क्षेत्र के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
1881 में हुई थी पहली गणना
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देश की पहली समकालिक दशकीय (हर दस साल में) जनगणना वर्ष 1881 में डब्ल्यूसी प्लोडेन की अध्यक्षता में की गई थी, जो तब भारत के जनगणना आयुक्त थे। तब से बिना अवरोध के हर दस साल में जनगणना आयोजित की जाती रही है। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना वर्ष 1951 में हुई थी और तब से हर दशक के पहले वर्ष में यह होती रही है। यह जनगणना गृह मंत्रालय के अधीन रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त कार्यालय के माध्यम से कराई जाती है।
पहली बार आई रुकावट
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स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार, इस महत्वपूर्ण परंपरा में रुकावट आई। कोरोनाकाल के चलते वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना स्थगित कर दी गई थी, जो अब लंबे इंतज़ार के बाद हो रही है।
उत्तराखंड में जनगणना की तस्वीर
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वर्ष1971 की जनगणना में उत्तराखंड की आबादी 44 लाख 92 हजार 744 थी, जो वर्ष 1981 की जनगणना में 27.44 प्रतिशत बढ़कर 57 लाख 25 हजार 972 हो गई।वर्ष 1991 की गणना में वृद्धि का प्रतिशत 23.13 रहा और आबादी 70 लाख 50 हजार 634 पहुंच गई। वर्ष 2001 की गणना में आबादी 84 लाख 89 हजार 349 और वर्ष 2011 की गणना में एक करोड़ आठ लाख छह हजार 292 हो गई। इन दो दशक में वृद्धि का प्रतिशत क्रमशः 20.40 और 18.81 रहा।
23 लाख गढ़वाली और 20 लाख कुमौनी
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वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में गढ़वाली बोलने वालों की संख्या 23 लाख 22 हजार 406 और कुमाऊंनी बोलने वालों की संख्या 20 लाख 11 हजार 286 है।
पहचान, इतिहास और संस्कृति की जीवंत प्रतीक
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गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी महज संवाद का जरिया न होकर हमारी पहचान, इतिहास और संस्कृति की जीवंत प्रतीक हैं। समय रहते इनका संरक्षण नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ियां केवल किताबों में अपने पूर्वजों की भाषा पढ़ेंगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी समाज की वास्तविक प्रगति उसकी मूल पहचान को बचाकर ही संभव है।
हाथ जोड़कर विनम्र अपील
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जनगणना परिपत्र के भाषा वाले कालम में अनिवार्य रूप से अपनी मातृभाषा (गढ़वाली, कुमौनी व जौनसारी) दर्ज कराएं। यह जानकारी आपकी व्यक्तिगत पहचान और सांस्कृतिक विविधता को दर्शाती है।जनगणना के दौरान आपकी मातृभाषा के बारे में जानकारी एकत्र की जाती, जिसका उपयोग सामाजिक और आर्थिक नीतियां बनाने में किया जाता है।

(लेखक: दिनेश कुकरेती, वरिष्ठ पत्रकार, देहरादून)