साहित्य

आत्माओं के महारास और ‘ प्रेम – वेदना ‘ के कवि डॉ. रामप्रसाद दाधीच ‘ प्रसाद’

प्रसंग : डॉ. दाधीच स्मृति विशेष कार्यक्रम : पुरस्कार वितरण समारोह

प्रेम रस की नदी में अकेली नाव के अकेले यात्री के रूप में जो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अपनी नाव को खेते रहे उस यात्री का नाम है : डॉ. रामप्रसाद दाधीच ‘प्रसाद’। इनका सम्पूर्ण रचनाकर्म प्रेम की खोज, प्रेमराग का काल्पनिक गान, प्रेम के अभाव का दंश और गरीबी की मार का दर्दभरा काव्यमय निरूपण है।
प्रेम के साथ पीड़ा का गहरा संबंध रहा है । मीरा, जायसी, घनानंद और महादेवी इसके साक्ष्य हैं। डॉ. रामप्रसाद दाधीच को भी इन प्रेमपीड़ा गायकों जी पंक्ति में शामिल किया जा सकता है। डॉ. दाधीच का कहना है कि बचपन से वे प्रेम के प्यासे रहे। उनकी प्रेम की प्यास कभी शांत नहीं हुई। इसके परिणामस्वरूप इनकी सम्पूर्ण काव्य-यात्रा प्रेम की तलाश के नाम ही रही।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इनका प्रेम दैहिक प्रेम न हो कर आत्मिक प्रेम है, जिसे इश्क़ हक़ीक़ी कहा जाता है। जहाँ वासना नहीं, बल्कि उपासना है। जहाँ प्रेम एक प्रार्थना है। आत्माओं का महारास है। अपनी लगभग 70 वर्षों की काव्य-साधना में कवि रामप्रसाद जी ने अपनी प्रेमिका की स्मृति को जिया है। प्रेम रस पिया है। अपना सर्वस्व प्रेमिका के नाम किया है। प्रश्न यह उठता है कि आख़िर वह प्रेमिका है कौन! यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहा है। पाठक उसे कभी जान नही पाया। कविताओं से गुज़रने पर यह पता चलता है कि वह कभी देह है तो कभी विदेह है। कभी आत्मा है तो कभी परमात्मा है। कभी उनकी कविता है तो कभी उनके प्रेमगीत हैं।
अन्ततः प्रसाद जी का पाठक इस नतीजे पर पहुंचता है कि इनका प्रेम और इनकी प्रेयसी लौकिक न होकर अलौकिक है अथवा यह सब कुछ सर्वथा काल्पनिक है। कवि की कल्पना मात्र है। लेकिन यह बात तो तय है कि प्रेमीहृदय प्रसाद जी का प्रेम अमर है।
इनके प्रेम का विस्तार धरती से लेकर गगन तक , प्रकृति से लेकर पशु-पक्षी तक और मनुष्य से लेकर परमतत्त्व तक है फैला है। डॉ. रामप्रसाद दाधीच ने एक अर्थ में अपने कविताकर्म के ज़रिए वैदिक ऋचाओं की परंपरा को पुनर्जीवित किया है। प्रेम-वेद को रचा है। प्रसाद जी की कविताओं में बिल्कुल वैसा ही वैश्विक भाव, वैसा ही मनुष्य-प्रेम, वैसा ही प्रकृति-अनुराग, वैसी ही साधना और वैसा ही भावयोग मिलता है।
डॉ. दाधीच के प्रेम- दर्शन का मर्म’ आत्मा के महारास में गुंजित अनहद नाद’ में निहित है। इनके रचनाकर्म की खूबी यह है कि इन्होंने प्रेमध्यात्म की भूमि और भूमिका को आज के देशकाल के अनुसार अपेक्षित विस्तार दिया है, जहाँ त्रिकाल ध्वनित होता है। कवि डॉ. रामप्रसाद जी के प्राण एक साथ व्याकुल और परितृप्त नज़र आते हैं। एक बात और डॉ. दाधीच की कविताओं का मिज़ाज जयदेव, विद्यापति, मीरा, घनानंद और महादेवी से मेल खाकर भी उनसे सर्वथा भिन्न है। कई बार मुझे इनकी कविताओं में अज्ञेय, नरेश मेहता, कुंवरनारायण और धर्मवीर भारती की झलक नज़र आती है। नक़ल नहीं, केवल उनकी छाया। कवि प्रसाद अपना ‘इंप्रिंट’ खुद रचते हैं। निजी और मौलिक।
कविता को जीने वाले कवि डॉ. रामप्रसाद जी के प्राण कविता में बसते हैं । ठीक – ‘गिरा अर्थ जलवीचि सम’। वह अपनी आख़री साँस तक कविता के साथ रहना चाहते थे और रहे भी। उन्हें जब भी देखा कविता के साथ देखा। एक पल के लिए भी उससे दूरी नहीं रखी। आज के क्रूर और कविताविरोधी काल में ऐसा काव्यप्रेमी मिलना कठिन है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. पद्मजा शर्मा ने डॉ. रामप्रसाद दाधीच ‘प्रसाद’ के व्यक्तिव और कृतित्व पर केंद्रित अपनी पुस्तक का शीर्षक ‘अपने समय से बेहद नाराज एक प्रेम कवि’ रखा है। मुझे यह शीर्षक प्रसाद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के सर्वथा अनुकूल लगा। इसका मतलब यह है कि यह प्रेमी कवि समय और समाज की विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ और क्रूरताओं से भी भलीभाँति वाकिफ़ था। राम प्रसाद दाधीच के कविता संग्रह’मेरा कवि समय’ में इस प्रकार की कविताओं को पढ़ा जा सकता है।
यह सच है कि वे और किसी से नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी रचनात्मकता और प्रेम भावना से प्रतिबद्ध रहे। न कोई लोभ और न लालच। न दिखावा और न बड़बोलापन। न गुटबंदी और न किसी की गुलामी। केवल और केवल ‘शब्द साधना’। प्रसाद जी अपनी एक कविता में कहते हैं’मैं प्रगति शील होना तो दूर की बात है, गतिशील भी नहीं रहा। केवल प्रेम से बंधा रहा।’ इसी के चलते यह कवि साहित्य की दुनिया में उपेक्षित और अलक्षित रह गया। लेकिन जैसे ‘उत्तररामचरित’ के रचयिता महाकवि भवभूति ने कहा है’काल निरवधि है और पृथ्वी विपुल। होगा कोई समानधर्मा जो अलक्षित कवि के रचनाकर्म को लक्षित करेगा।’ यही बात डॉ. प्रसाद जी पर भी लागू होती है। इनकी भी ‘कुहकनी’ से लेकर ‘मेरा कवि समय’ तक रचित लगभग 75 कृतियों का मूल्यांकन कभी न कभी कोई न कोई करेगा। इनके महत्त्व को उजागर करेगा।
अंत में, मैं अपने गुरुवर कवि, गीतकार, लोकसाहित्य विज्ञ, नाटककार, अनुवादक और संपादक डॉ. रामप्रसाद दाधीच ‘प्रसाद’ की स्मृति को विनम्र भाव से नमन करता हूँ ।

डॉ.रमाकांत शर्मा
9414410367

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