उत्तराखंडपुस्तक समीक्षासाहित्य

बैलगाड़ी में टंगी ‘लालटेन’ की तरह होकर रह गया आज का साहित्य

-दून लाईब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद के साहित्य पर हुआ मंथन, जितेंद्र भारती, डॉ. विद्या सिंह, संजीव घिल्डियाल और राजेश पाल ने लिया हिस्सा

देहरादून:दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के तत्वावधान में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर रविवार को उनकी रचनाओं पर मंथन किया गया। कहा गया कि साहित्य को क्रांति के आगे जलने वाली मशाल की तरह होना चाहिए था और उसे समाज में परिवर्तन का काम करना चाहिए था, लेकिन यह अपने उद्देश्य से उलट बैलगाड़ी में लटकी लालटेन की तरह हो गया है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।


कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए सोशल एक्टिविस्ट संजीव घिल्डियाल ने कहा कि शुरुआत में प्रेमचंद एक धार्मिक रूढ़िवादी परिवार से जुड़े थे लेकिन उन्होंने अपने अध्ययन एवं चिंतन से स्वयं को प्रगतिशील तथा मानवतावादी मनाया। उन्होंने पूंजीवाद का विरोध किया तथा किसानों और मजदूरों की समस्याओं को प्रगतिशील दृष्टिकोण से रखा।

शिक्षाविद् डॉ. विद्या सिंह ने प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी का जिक्र करते हुए कहा कि हो सकता है कि प्रेमचंद की दृष्टि में ऐसी कोई घटना आई हो और यह कहानी लिखते समय उनके ज़ेहन में वह घटना रही हो। कई बार सत्य कल्पना से भी परे होता है। ऐसे विषयों पर लिखने से लेखक को बचना चाहिए। कहा कि जीवन पर्यंत अभाव में जीने वाले घीसू और माधव की न जाने कौन सी दमित अभिलाषा थी, जो कफ़न के पैसे हाथ में आते ही जागृत हो गई और वे दोनों ताड़ीखाने में घुस गए। पूस की रात में उन्होंने महाजनी प्रथा में, हल्कू के माध्यम से, गरीब किसानों के ऋणग्रस्त होने के चलते, उनके जीवन की अनेक समस्याओं का चित्रण किया है। प्रेमचंद के साहित्य में जो यथार्थ और समाज की पीड़ा आई है, वह दुर्लभ है और वह उन्हें एक महान साहित्यकार बनाती है।
कार्यक्रम में समग्रता के रूप में अपनी बात रखते हुए आलोचक डॉ. जितेंद्र भारती ने कहा कि प्रेमचंद कहा करते थे कि “साहित्य क्रांति के आगे जलने वाली मशाल है।” साहित्य समाज में रूपांतरण का काम करता है परंतु वह साहित्य को उतना नहीं बदल पाता जितना साहित्य से अपेक्षा की जाती है। प्रेमचंद से लेकर आज तक साहित्य ने यही साबित किया है कि वह क्रांति के आगे जलने वाली मशाल नहीं बल्कि बैलगाड़ी के पीछे लटकी हुई लालटेन है। समाज को बदलने के लिए राजनीति एक ठोस व कारगर टूल है। उन्होंने प्रेमचंद के साहित्य सहित अन्य लेखकों के उत्कृष्ट साहित्य के पुनर्पाठ की जरूरत बताई और इस दिशा में आगे बढ़ने की बात कही। शिक्षाविद् डॉ. सुशील उपाध्याय ने कहा कि कोई भी लेखक अपने कालखंड की परिस्थितियों के आधार पर लेखन करता है, जिसे दर्शाने में प्रेमचंद सफल रहे।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ. राजेश पाल ने कहा कि प्रेमचंद जिस समय लिखते थे, उसके समय के देश, काल एवं परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा तथा सामंतशाही के दौर में एक यथार्थवादी साहित्य लिखना एक चुनौती का कार्य था। वे कफन कहानी में दलित चेतना से चूक गए हों ,लेकिन अपने कथा साहित्य में वह सबसे पहले साहित्यकार थे, जिन्होंने दलित विषयों को प्रबलता से उठाया। उनकी कहानी ठाकुर का कुआं, सद्गति दलित विषयों पर यथार्थवादी कहानियां है। प्रेमचंद ने किसानों मजदूर स्त्रियों दलित तथा सांप्रदायिक के जिन विषयों को अपने साहित्य में उठाया वह आज भी किसी न किसी रूप में समाज में मौजूद हैं उनके पात्र आज भी समाज में मौजूद हैं,उनके रंग रूप और चोला बदले गए हैं लेकिन समस्याएं यथावत है। सवाल आज भी जिंदा है। इसलिए प्रेमचंद अपने समय में भी प्रासंगिक थे और आज भी प्रासंगिक हैं ।
उल्लेखनीय है कि मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के निकट लमही नामक ग्राम में हुआ था उनका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ तथा उस समय देश ब्रिटिश राजसत्ता तथा सामंतशाही के चंगुल में था। प्रेमचंद ने बहुत ही कम उम्र में साहित्य पढ़ना और लिखना शुरू कर दिया था, उससे पहले जो साहित्य लिखा जा रहा था वह कल्पना और तिलिस्मी साहित्य था जिसका उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन था। लेकिन प्रेमचंद ने साहित्य को यथार्थ और आदर्श उन्मुख बनाया तथा उसे सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक सरोकारों से जोड़ा । प्रेमचंद ने लगभग 18 उपन्यास 300 कहानी तथा कुछ कथेत्तर साहित्य भी लिखा है उनके उपन्यास और कहानियों में किसानों की समस्याएं, स्त्री अस्मिता की पीड़ाएं दलितों के प्रश्न तथा सांप्रदायिकता का प्रतिरोध खुलकर सामने आता है।
कार्यक्रम के आरम्भ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के कार्यक्रम समन्वयक चंद्रशेखर तिवारी ने उपस्थित लोगों का अभिनन्दन किया। कार्यक्रम में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के मानद निदेशक एन.रवि शंकर, हरिओम पाली, हर्षमणि भट्ट, डॉ.धीरेंद्र नाथ तिवारी, प्रेम साहिल, लक्ष्मी प्रसाद बडोनी, शादाब मशहदी, त्रिलोचन भट्ट, डॉली डबराल, रजनीश त्रिवेदी,सुधीर बिष्ट, समदर्शी बड़थ्वाल, सतीश धौलखण्डी,प्रवीन भट्ट और सुंदर सिंह बिष्ट सहित अनेक साहित्यकार, लेखक, रंगकर्मी, पत्रकार,पाठक और युवा छात्र उपस्थित थे।

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