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बंदरों के सम्मेलन बन गए हैं कविता के मंच: बुद्धिनाथ मिश्र

- हिंदी के प्रोफेसर हैं हिंदी कविता के हत्यारे, कविता के नाम पर सोशल मीडिया पर परोसा जा रहा कचरा, मुक्त छंद कोई कविता नहीं, कौवों को बचाने के लिए की जा रही मयूरों की हत्या, पुरस्कारों के लिए आवेदन मांगने की प्रक्रिया भी गलत, साहित्यकारों को भिखमंगा देखना चाहती है सरकार

‘जाल फेंक रे मछेरे’ गीत से देश-विदेश में अपनी पहचान बनाने वाले सुप्रसिद्ध गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एमए करने और ‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत’ प्रबंध पर पीएचडी की उपाधि से सम्मानित बुद्धिनाथ मिश्र हिंदी कविता की दुर्दशा के लिए हिंदी मंचों को तो जिम्मेदार मानते ही हैं, वहीं हिंदी के प्रोफेसरों को वह हिंदी कविता का हत्यारा कहने से गुरेज नहीं करते। उनका कहना है कि हिंदी के प्रोफेसरों ने बच्चों को कविता का रस लेना नहीं सिखाया और उन्हें मुक्तिबोध और अज्ञेय की कविताएं पढ़ाने की कोशिश की, जिससे उनमें वितृष्णा पैदा हुई और वह हिंदी कविता से दूर होते चले गए। पिछले दिनों ‘shabdkrantilive.com’ ने देहरादून में बसंत इन्कलेव स्थित आवास पर गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र से उनकी साहित्यिक यात्रा, हिंदी कविता की वर्तमान स्थिति और भविष्य के अलावा पुरस्कारों की बंदरबांट को लेकर लंबी बातचीत की। इसी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।

सवाल: आपकी साहित्यिक यात्रा कब और कैसे शुरू हुई। पहली कविता कब लिखी।
जवाब: मेरी स्कूली शिक्षा गांव में हुई और उच्च शिक्षा बनारस में हुई। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में बीए में पढ़ाई के दौरान पैसे की जरूरत हुई तो कुछ कविताएं (गीत ही कविता हैं) और लेख लिखे, जो ‘आज’ अखबार में छपे और पारिश्रमिक भी मिला। इस बीच वर्ष 1965 में अंग्रेजी विषय से एमए किया। एमए करने के बाद सोचा कि अब क्या किया जाए। इसी बीच एक मंच पर गया, जहां बरसात पर लिखा एक गीत ‘नाच गुजरिया नाच कि आई कजरारी बरसात, सतरंगे सपनों में झूमी आज अंधरिया रात’ पढ़ा, तो उसे बहुत वाहवाही मिली। छह माह के भीतर ही मैं बनारस और आसपास के क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय हो गया। इसके बाद धर्मयुग में ‘जाल फेंक रे मछेरे’ गीत छपा, जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हुई। गीत के आकर्षण की जहां तक बात है तो 1971 में बीबीसी संवाददाता ओंकारनाथ श्रीवास्तव ढाका की रिपोर्टिंग के लिए आए थे, तो उन्होंने ‘मछेरे’ गीत की भी रिकार्डिंग की। यह तो रही साहित्यिक यात्रा। हां, कविता के कारण ही उन्हें नौकरी मिली। दैनिक अखबार ‘आज’ ने पहले साहित्य संपादक के पद पर बुलाया और इसके बाद समाचार संपादक भी रहा। तीन साल कलकत्ता में यूको बैंक में रहा और 14 साल हिंदुस्तान कापर में राजभाषा अधिकारी पद पर रहा। वर्ष 1997 में देहरादून में कवि सम्मेलन में आया, तो ओएनजीसी अधिकारियों ने नौकरी का आफर दिया, तो यहीं का होकर रह गया।
सवाल: कविता की समाज में क्या भूमिका है। क्या आप मानते हैं कि कविता समाज में सुधार ला सकती है।
जवाब: कविता परंपरा को संजोए हुए है। भाषा को संजोए हुए है। सबसे बड़ी बात वह हमारी संवेदनशीलता को संरक्षित करती है। संवेदनशीलता से ही हम मनुष्य हैं। जो समाज कविता से दूर होता जा रहा है, वह मनुष्यता से दूर होता जा रहा है। मनुष्य कहलाने लायक नहीं है। मशीन होकर रह गया है। परिवार परिवार नहीं रह गया है। इसका मूल कारण ही यह है कि परिवार कविता से दूर हो गया है। अब कविता में न रामचरित मानस है, न वाल्मीकि है, न व्यास है न सूर है और न तुलसी है। चेतना तो साहित्य देता है। हमारे देश का सौभाग्य यह है कि बरसों पहले जब पूरी दुनिया जंगल जैसी थी। लोग जंगल में रहते थे, तो वाल्मीकि ने रामायण के माध्यम से समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया कि तुम्हें ऐसे रहना है और पूरी दुनिया ने इसे अपनाया। जहां भी आदर्श की बात होती है तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का नाम लिया जाता है। वाल्मीकि रामायण इतिहास है, लेकिन तुलसीदास रचित रामचरितमानस साहित्य है, क्योंकि तुलसीदास के जीवनकाल के दौरान ऐसे राजा हुए थे, जो राजपाट हथियाने के लिए अपने ही भाई की हत्या कर दे रहे थे। इसी वजह से परिस्थितिवश तुलसीदास रचित रामचरितमानस में राजा राम का अलग चरित्र है, जो ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए जंगल में घूमता है और यही राम हमारा आदर्श है, जो पिता के कहने पर वन चला जाता है, जबकि उनका भाई भरत राज सिंहासन में बैठने की जगह उस पर खड़ाऊं रखकर 14 साल तक भाई राम का इंतजार करता है। समाज में यही आदर्श स्थापित करना साहित्य का लक्ष्य है, जो हमें मनुष्यता सिखाता है।

सवाल: आज की कविता और पुराने दौर के लेखन में क्या अंतर आया है।
जवाब: बहुत बड़ा अंतर आया है, लेकिन हमारे निर्माण काल में ऐसा नहीं था। आज कोई भी व्यक्ति जो धन संपन्न है, या अधिकारी है, वह जो कुछ भी लिख रहा है, वह उसे कविता कह रहा है और उसकी बात मानी भी जा रही है, जबकि पहले ऐसा नहीं था। कसौटी पर जो खरा उतरता था, वही कवि माना जाता था और वह कसौटी बड़ी कड़ी थी। संपादक पहले आपकी कविता को कसौटी पर कसता था और तब अपनी पत्रिका में छापता था और तब आपकी कविता कविता मानी जाती थी। लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर में कविता के नाम पर कचरा परोसा जा रहा है। हिंदी भाषी जगत की ही बात करें तो 80 करोड़ में से यदि 50 करोड़ इंटरनेट से संपन्न हैं, तो उनमें 49 करोड़ कवि हैं, लेकिन कसौटी पर कसें, तो 49 कवि मिलना भी मुश्किल है। ऐसे में हिंदी कविता के सामने बहुत बड़ा संकट है। मंचों की बात करें तो हजार में एक मंच होगा, जहां अच्छी कविता होगी। नहीं तो ज्यादातर मंचों पर चुटकुले सुनाए जा रहे हैं, फब्तियां कसी जा रही हैं, कहने को कवि सम्मेलन हैं, जबकि यह तो बंदरों के सम्मेलन हैं। इस दौर में हम आए होते, तो कविता नहीं लिख पाते। साहित्य की समझ ही नहीं उत्पन्न हो पाती।
सवाल: हिंदी कविता पर आए इस संकट के लिए जिम्मेदार कौन है।
जवाब: हिंदी कविता पर आए संकट के लिए निश्चित तौर पर हिंदी के प्रोफेसर जिम्मेदार हैं। हिंदी कविता कोई पहेली नहीं है, वह आनंद का विषय है। बंगाल की बात करें तो वहां के बच्चों ने हिंदी कविता पढ़ना ही छोड़ दिया है। वहां हिंदी कविता का वातावरण ही नहीं बनने दिया गया। यही नहीं हिंदी के प्रोफेसरों ने अपनी ही कविताएं पाठ्यक्रम में शामिल करा दी, इससे बड़ी बेहयाई की बात और क्या हो सकती है। एक और बात पिछले 60 साल में नई कविता के नाम पर हिंदी कविता का बहुत बड़ा नुक़सान किया गया। मुक्तिबोध माना वैचारिक कवि हैं, लेकिन इसका मतलब यह कहां हुआ कि आप वीरेंद्र मिश्र और डॉ. शंभूनाथ सिंह जैसे गीतकारों को दुत्कार दोगे। कौए को यदि आप मानते हो प्राणी है, पक्षी है तो मयूर को क्यों मार डालोगे। मयूर की हत्या क्यों करोगे कौए को बचाने के लिए। लेकिन हो यही रहा है। छंदमुक्त कविता को बचाने के लिए यह जो वास्तविक कविता है, जो परंपरा से आई कविता है, जो आज की बात कर रही है, उसे खत्म किया जा रहा है। उसे पाठ्यक्रम में नहीं देखेंगे, जो आवश्यक है। यही बात जनगीत को लेकर है। जनगीत जनजागरण का तो काम करते हैं, लेकिन उन्हें साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
सवाल: देशभर में सरकारों की ओर से साहित्यकारों को पुरस्कार दिए जाते हैं, जिनके लिए आवेदन मांगा जाता है। इस प्रक्रिया से आप कितने सहमत हैं।
जवाब: पुरस्कारों के लिए आवेदन मांगने की प्रक्रिया बिल्कुल ग़लत है। कवि को सम्मानित आप किस हैसियत से कर रहे हैं। सम्मान में आप उसे देते क्या हो 50 हजार रुपए। एक मंत्री की चाय-पानी पर एक लाख रुपए का खर्चा हो जाता है और आप साहित्यकार या कवि को दे रहे हो पचास हजार रुपए। ज्ञानपीठ में 11 लाख का पुरस्कार दिया जाता है। क्या 11 लाख से किसी साहित्यकार का परिवार पल जाएगा। क्या यही है उसके साहित्य का प्रतिफल। मैंने एक बार ओएनजीसी में प्रस्ताव दिया था, लेकिन वह लागू नहीं हो पाया। सरकार साहित्यकारों का सम्मान करना चाहती है तो उसे 51 लाख, 41 लाख या 21 लाख का पुरस्कार दे और पैसा साहित्यकार को न देकर उसके नाम से बैंक में जमा किया जाए और उस राशि का ब्याज प्रति माह साहित्यकार के परिवार को दिया जाए, जिससे उसका परिवार सम्मानित जीवन जी सके, लेकिन आपकी मंशा वह नहीं है। आप साहित्यकार को भिखमंगा देखना चाहते हैं।
सवाल: साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन आज गुटबंदी ज्यादा हो गई है। चैनल नेहा सिंह राठौर और दूसरी कवयित्री में डिबेट करा रहे हैं। कविता का भविष्य आपको क्या लगता है।
जवाब: जिस कविता की बात हम कर रहे हैं। उनमें इनका कहीं दूर-दूर तक पता नहीं है। यह राजनीतिक पटाखे हैं, खत्म हो जाएंगे। हम आकाशवाणी से आए कवि हैं, उस समय किसी में हिम्मत नहीं थी कि अगर उसके पास कविता नहीं है, तो वह वहां चला जाए, दूरदर्शन ने भी 80-85 तक इस दौर को निभाया। लेकिन प्राइवेट चैनल को तो कविता से कोई मतलब ही नहीं। सरकार ने भी अब अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है। अब आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी उन्हीं कवियों को बुलाया जाता है, जो उन्हें प्रायोजक दिला सकें। मुझे नहीं लगता कि अब इन माध्यमों से कोई बड़ा कवि सामने आ पाएगा।

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बुद्धिनाथ मिश्र का जीवन परिचय
जन्म: मई,1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्म ।
शिक्षा: गाँव के मिडिल स्कूल और रेवतीपुर(गाज़ीपुर) की संस्कृत पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा,वाराणसी के डीएवी कालेज और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के आर्ट्स कालेज में उच्च शिक्षा। एम.ए.(अंग्रेज़ी),एम.ए.(हिन्दी),‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत’ प्रबंध पर पी.एच.डी. की उपाधि।
1966 से हिन्दी और मातृभाषा मैथिली के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निबंध,कहानी,गीत,रिपोर्ताज़ आदि का नियमित प्रकाशन। ‘प्रभात वार्ता’ दैनिक में ‘साप्ताहिक कोना’, ‘सद्भावना दर्पण’ में ‘पुरैन पात’ और ‘सृजनगाथाडॉटकॉम’ पर ‘जाग मछन्दर गोरख आया’ स्तम्भ लेखन।
देश के शीर्षस्थ नवगीतकार और राजभाषा विशेषज्ञ।मधुर स्वर,खनकते शब्द,सुरीले बिम्बात्मक गीत,ऋजु व्यक्तित्व। राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय काव्यमंचों के अग्रगण्य गीत-कवि।
1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के सभी केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता,संगीत रूपकों का प्रसारण। बीबीसी,रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ,भेंटवार्ता प्रसारित।दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक ‘क्यों और कैसे?’ का पटकथा लेखन। वीनस कम्पनी से ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे’ कैसेट,मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट ‘अनन्या’। डीवीडी ‘राग लाया हूँ’ निर्माणाधीन।
सम्पादन: ‘जाल फेंक रे मछेरे’ ‘शिखरिणी’ ‘जाड़े में पहाड़’ गीत संग्रह,‘नोहर के नाहर’ ‘स्वयंप्रभ’ ‘स्वान्तः सुखाय’ ‘नवगीत दशक’ ‘विश्व हिन्दी दर्पण’ तथा सात मूर्धन्य कवियों के काव्य संकलनों का सम्पादन।
प्रकाशन: ‘अक्षत’ पत्रिका और ‘खबर इंडिया’ ई-पत्रिका में कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पुस्तक(सं. डॉ. अवनीश चौहान) प्रकाशित।
सम्मान: अन्तरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान, दुष्यन्त कुमार अलंकरण,परिवार सम्मान, निराला,दिनकर और बच्चन सम्मान।‘कविरत्न’ और ‘साहित्य सारस्वत’ उपाधि।
यात्रा: रूस,अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि अनेक देशों की साहित्यिक यात्रा। न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व। सार्क देशों में बेहद लोकप्रिय कवि।
अनुभव: ‘आज’ दैनिक में साहित्य और समाचार सम्पादन,यूको बैंक,हिन्दुस्तान कॉपर लि. और ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कार्पोरेशन(ओएनजीसी) मुख्यालय में राजभाषा प्रभारी पद पर सेवा। सम्प्रति ‘स्वयंप्रभा’ और ‘अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन’ के अध्यक्ष।
सम्पर्क: देवधा हाउस, 5/2 वसंत विहार एन्क्लेव,देहरादून-248006

प्रस्तुति : लक्ष्मी प्रसाद बडोनी
दर्द गढ़वाली
मोबाइल: 09455485094

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