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जुबिन गर्ग नहीं साहब दा जुबिन गर्ग कहिए

पूर्वोत्तर से बहते महानद में जितना पानी पृथ्वी के हृदय पर हिलोरे ले रहा है, उससे कई गुना जल मैंने जुबिन गर्ग की मौत पर असम वासियों की आँखों में देखा है। बरसात के मौसम में उफनते महानद ने पूर्वोत्तर में अपनी जो विनाश लीला लिखी है यहाँ के लोगों ने उसे विधि का विधान मानते हुए हर बार सहर्ष स्वीकार किया और उठ खड़े हुए हर बार अपनी उन्नति का नया अध्याय लिखने के लिए किन्तु दा जुबिन का इस तरह जाना वह सह नहीं पा रहे हैं। उन्हें विस्वास ही नहीं हो रहा है कि जुबिन अब उनके बीच नहीं हैं। वो डूबे हुए हैं अब भी जुबिन के संगीतमय शब्दों में, जिसमें कुछ बच्चों का बचपन कुछ जवान धड़कनों का प्यार व कुछ उम्र के आखिरी पड़ाव पर बैठे लोगों का समय के साथ विरह छुपा हुआ है।

दा जुबिन का जाना हमें यह बता गया कि आप क्या हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आपने लोगों के हृदय को किस तरह छुआ है यह निर्भर करता है आपके होने पर। जुबिन गर्ग के लिए उमड़ा यह सागर बिल्कुल उसी तरह था जिस तरह पूनम की रात्री में पूर्ण चन्द्रमा के लिए उछल पड़ने वाला सागर अपने तट बंधों को तोड़कर आकाश को छू लेना चाहता है।

खबरों की दुनिया, खबरों से ज्यादा बड़ी होती है और इससे भी बड़ा होता है हमारा प्रेम जो हमने महसूस किया और देखा भी। जुबिन दा की अंतिम यात्रा में सम्मलित उनके प्रेमियों ने बताया कि किसी के कह देने भर से या कुछ लोग एक कमरे में बैठकर किसी को सदी का महानायक घोषित तो कर सकते हैं, किन्तु लोगों के हृदय में उसके लिए प्रेम की उत्पत्ति नहीं कर सकते। प्रेम स्वयंभू की तरह है जो स्वतः ही किसी के लिए उपजता है और देखते ही देखते एक विशाल बरगद के वृक्ष की तरह फैल जाता है, कुछ ऐसा ही प्रेम किया है असम वासियों ने अपने इस महान संगीतकार से। संगीत जिसके बिना दुनिया आदि काल से ही अधूरी है, कहा जाता है कि ध्वनियाँ शिव के डमरू से उत्पन्न हुई हैं, यही शिव जब नटराज बनते हैं तो ध्वनियाँ मुखरित हो उठती हैं और जब यही ध्वनियाँ दा जुबिन की मधुर आवाज़ में हम तक पहुँचती हैं तो एक ऐसा संगीत बन जाती हैं जो हमारे हृदय पर अपना अधिकार कर लेती हैं। आज इन ध्वनियों के लिए बिलखते हुए अनेकों-अनेक लोगों ने इन ध्वनियों को मौन होकर भी सार्थकता प्रदान की है।

जब सम्पूर्ण असम वियोग के महानद में डुबा हुआ, अपने कलाकार के संयोग के दिनों को याद कर अपनी आँखों से निर्झर प्रेम का झरना बहा रहा था, उस समय हिन्दी सिनेमा इतना खामोश क्यों था? मैं अब भी यही सोच रहा हूँ, यह बात मुझे आज भी व्यथित कर रही है, कि हिन्दी सिनेमा पट्टी से किसी भी कलाकार ने कुछ (कुछ सोशल मीडिया पोस्टों को छोड़ दें तो) क्यों नहीं कहा और ना ही जुबिन दा से बने दा जुबिन की अन्तिम यात्रा में सम्मिलित होने की जहमत उठाई। क्या यह एक महान कलाकर उनकी दुनिया का नहीं था? अगर हाँ तो अब हमें भी एक जुट होकर उन्हें इस बात का आभास कराना होगा कि जुबिन गर्ग, जुबिन गर्ग नहीं दा जुबिन गर्ग था।

लेखक: सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान, असम
9997111311

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