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अब तो जीवन से विदा हो गया है साहित्य: पद्मश्री जगूड़ी 

- साक्षात्कार: पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी से बातचीत, साहित्य के मौजूदा दौर से आहत हैं पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी, पुरस्कार अब कृतित्व नहीं व्यक्ति आधारित हो गए हैं, अधिकारी से पहचान हो तो आसानी से मिल जाता है पुरस्कार

  पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी साहित्य के मौजूदा दौर को लेकर बहुत आहत हैं। उनका कहना है कि पुराने कवियों की नई किताबें आ नहीं रही। नए कवि यदि लिख भी रहे हैं, तो वह कहां छप रहे हैं। पता ही नहीं चलता। लगता है जैसे लेखक पैदा होने ही बंद हो गए हैं। अब कोई भी ऐसी पत्रिका नहीं है, जिसे पढ़ने का मन करे। अखबारों में साहित्य के लिए जगह नहीं रह गई। एक तरह से साहित्य जीवन से विदा हो गया है। पुरस्कारों को लेकर उनकी चिंता यह है कि अब अधिकांश पुरस्कार कृति आधारित नहीं, बल्कि व्यक्ति आधारित हो गए हैं। किसी की पहचान यदि सरकार में बैठे मंत्री से या संस्थान के किसी बड़े अधिकारी या पदाधिकारी से है, तो उसे पुरस्कार आसानी से मिल जा रहा है, भले ही उसे कविता का विधान न पता हो। नई कविता और छांदस रचनाओं को लेकर उठे विवाद को वह सही नहीं मानते। उनका कहना है कि छांदस रचना आपकी सीमाएं तय कर देती हैं, जबकि कविता आजादी का पैगाम देती है। उत्तराखंड के साहित्यकारों से साक्षात्कार की श्रृंखला में shabdkrantilive.com ने बद्रीपुर स्थित जगूड़ी जी के आवास पर उनकी साहित्यिक यात्रा से लेकर मौजूदा दौर के साहित्य समेत विभिन्न मुद्दों पर लंबी बातचीत की। इस बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।

सवाल: आपकी साहित्यिक यात्रा कब, कहां और कैसे शुरू हुई। परिवार का क्या सहयोग रहा?

जवाब: साहित्य में मेरे पिता का भी थोड़ा बहुत काम था, वह गढ़वाली में लिखते थे। वह राम के बहुत भक्त थे। रामचरितमानस हमारे घर में बहुत पढ़ी जाती थी। भाषा की जो थोड़ी बहुत तमीज मैंने सीखी, वह रामचरितमानस से सीख पाया। तुलसीदास ने रामचरितमानस में जो भाषा प्रयोग की है, उससे लगता है कि वह उनकी तपस्या का सार है। उन्होंने रामचरितमानस के लिए एक नई भाषा गढ़ी। राम के चरित्र के लिए और राम के जीवन में घटने वाली घटनाओं के लिए। हालांकि वाल्मीकि रामायण का माडल तुलसीदास के सामने था, लेकिन उनकी रामायण और तुलसीदास के रामचरितमानस में बहुत अंतर था। रामायण संस्कृतनिष्ठ थी, जबकि तुलसीदास की रामचरितमानस लोकभाषा पर आधारित थी, जिससे मुझे भाषा का ज्ञान हुआ। जहां तक मेरी साहित्यिक यात्रा का सवाल है तो मैंने पहले गढ़वाली भाषा में लिखा, लेकिन उसका एक सीमित दायरा था। मुझे लगा कि अगर बड़े समुदाय तक पहुंचना है, तो हिंदी में लिखना होगा। करीब 11-15 वर्ष की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था, लेकिन वह बचपना था। बीस साल का होने पर कुछ समझ आई और बहुत सारे लोगों के संपर्क में आया। मैं बनारस में विद्यार्थी रहा, तो वहां धूमिल और राजकमल चौधरी से मुलाकात हुई, तो उनसे प्रभावित हुआ। इसके बाद मैंने भी लिखना शुरू किया और कवि बन बैठा।

सवाल: पहली कविता आपने कब लिखी और पहली किताब कब प्रकाशित हुई। अब तक आपकी कितनी किताबें आई हैं?

जवाब: मेरी पहली किताब का नाम है ‘नाटक जारी है’ और वह 1970 के आसपास प्रकाशित हुई। यह लंबी कविता है। कई टुकड़ों में है, एक तरह से उसमें जीवन की नाट्याभिव्यक्ति है। उसमें मैंने रफ-टफ भाषा का प्रयोग किया है। मेरी 18 किताबें आई हैं, दो-तीन इंटरव्यू और एक-दो नाटक भी शामिल हैं। महाभारत का युद्ध भी 18 दिन चला था, मेरे भी 18 संग्रह आए हैं।

सवाल: आप किन लोगों से प्रभावित हुए। एक तो आपने रामचरितमानस का जिक्र किया। इसके अलावा और कौन लोग थे?

जवाब: एक बहुत बड़े कवि हुए हैं जयशंकर प्रसाद। मैं उनकी कविताओं से बहुत प्रभावित हुआ। खासकर कामायनी से। उनकी एक और किताब आंसू से भी मैं बहुत प्रभावित हुआ। प्रभावित हुआ, लेकिन अनुकरण नहीं किया। आंसू की जगह मैं क्या लिखूं, तो सोचा हंसी पर लिखता हूं। कुछ कविताएं मैंने हंसी पर भी लिखी। इस तरह सफर चलता रहा।

सवाल: अक्सर एक विवाद नई कविता और छांदस रचनाओं को लेकर होता है। क्या यह विवाद जायज है। कहा जाता है कि छांदस रचना आपको अनुशासन में चलना सिखाती है, आप इससे कहां तक सहमत हैं?

जवाब: यह विवाद जायज तो नहीं, लेकिन नाजायज भी नहीं है। छांदस रचना आपको विषय की सीमाओं में बांध देती है, यह उसका दोष है, जबकि कविता आपको बंधनमुक्त करने की प्रेरणा देती है। कविता आजादी का पैगाम देती है। नया काम यह है कि आप शिल्प को भी तोड़ें, उसकी बंदिश को भी तोड़ें। शिल्प की बंदिश जब आप तोड़ेंगे, तो आप निश्चित ही नया काम करेंगे, वहीं खुद को खतरे में भी डालेंगे।

सवाल: ऐसा नहीं है कि आजकल किताबें नहीं छप रही हैं। प्रकाशक खूब किताबें छाप रहे हैं। जैसा कि आपने कहा स्तरीय कृति नहीं आ रही है। तो क्या आपको नहीं लगता कि प्रकाशकों ने इसे धंधा बना लिया है?

जवाब: आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। प्रकाशकों ने इसे धंधा बना लिया है। लेकिन सवाल यह भी है कि कभी-कभी इस धंधे में ऐसा भी तो हो कि अच्छी किताब आ जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। हमारे जमाने में जो कवि या लेखक होता था उसे पढ़ने का नशा होता था। वह बताते थे कि फलां किताब बहुत अच्छी है, तो मैं उसे खरीकर लाता था और पढ़ता था और उन्हें बताता था कि मुझे उस किताब में ऐसा लगा। एक बहस होती थी। आज आपको कितने लोग मिलते हैं जो कहते हैं उन्होंने यह किताब पढ़ी। आज ऐसा विमर्श होता ही नहीं है। इसलिए नया साहित्य नहीं आ रहा। आज ऐसी कोई पत्रिका ही नहीं है। पहले धर्मयुग में छपने का मतलब होता था साहित्यकार हो जाना। साप्ताहिक हिंदुस्तान में छप गए आप। फिर संपादक पर भी डिपेंड करता है। धर्मवीर भारती ने तो पता नहीं कितनों को लेखक बना दिया। दिनमान पत्रिका, जिसके संपादक थे अज्ञेय। अब कोई पत्रकार निकाल सकता है ऐसी पत्रिका। क्या आज नया काम करने की जरूरत नहीं है। पहले तो रविन्द्र कालिया जैसे संपादक हमें चिट्ठियां लिखते थे। धर्मवीर भारती के पत्र मेरे पास हैं। वह पोस्टकार्ड भेजते थे और उसमें एक आइडिया होता था कि ऐसा करना है। अब वह चीज खत्म हो गई है, तो नए लेखक कहां से पैदा होंगे। पत्रिकाएं हैं नहीं। साप्ताहिक अखबार हैं, उनमें बिजनेस की खबरें मिलेंगी। साहित्य नहीं मिलेगा। साहित्य तो विदा हो गया लाइफ से।

सवाल: आजकल आप क्या कर रहे हैं। कोई नहीं किताब पर काम कर रहे हैं क्या?

जवाब: नहीं, आजकल मैं पढ़ रहा हूं। जो किताबें पुस्तक मेलों में खरीदी थी, उन्हें पढ़ रहा हूं। लिखने से अच्छा है कुछ पढ़ा जाए। पढ़ने से ताजगी आती है। लेकिन पढ़ने से लिखने की थीम नहीं आती। लिखने की थीम ज़िंदगी जीने से आती है। पढ़ने से आपको शब्दों के इस्तेमाल करने का तरीका आ सकता है। ये शब्द कैसे आया और कहां से आया, लेकिन थीम नहीं बनती।

सवाल: हर जगह पुरस्कारों को लेकर राजनीति रही है। उत्तराखंड में भी साहित्य गौरव पुरस्कारों को लेकर विवाद हुआ। किस तरह की प्रक्रिया पुरस्कारों को लेकर होनी चाहिए, जिससे विवाद न उठे?

जवाब: पुरस्कार कृति विशेष को दिया जाता है। व्यक्ति विशेष को नहीं दिया जाता है। पुरस्कार व्यक्ति विशेष की कृति विशेष को दिए जाते हैं। आप ऐसी कोई किताब बता दीजिए कि इस किताब को पुरस्कार मिला। पुरस्कार व्यक्तिनिष्ठ हो गए हैं। पुरस्कार व्यक्ति आधारित नहीं कृतित्व आधारित होने चाहिए। साहित्य अकादमी और व्यास सम्मान हैं, जो किताब पर दिए जाते हैं। मैं तो रामचरितमानस का आज भी मुरीद हूं। क्या किताब है। आजकल कोई किताब ऐसी आ ही नहीं रही, जिसे पढ़ने का मन करे। नए लोगों ने पढ़ना बंद कर दिया है। पुराने लेखकों की भी नई किताब नहीं आ रही। ऐसे में अच्छा साहित्य आएगा कैसे। अब तो भगवान ही मालिक है।

सवाल: नए कवियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

जवाब: नए कवि इतना पढ़ें कि पुराने हो जाएं। पुरानों को पहचानें। उनके करिश्मे को अपने में पैदा करें। उनका अनुकरण न करें। उनसे अलग रचने की कोशिश करें, तब कुछ बात बनेगी।

साक्षात्कारकर्ता: लक्ष्मी प्रसाद बडोनी

दर्द गढ़वाली, देहरादून

09455485094

 

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