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शकील बदायूंनी भी थे साग़र साहब के दीवाने 

शकील बदायूंनी ने साग़र साहब की शायरी का ख़ूब फ़ायदा उठाया अपने फ़िल्मी गानों में, साग़र साहब को मुंबई ले जाने के लिए जांनिसार अख्तर साहब को लेकर आए थे इंदौर 

सुबह के समय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का होस्टल में एक लड़का बालकनी में खड़ा है और हास्टल के नीचे फैले हुए बगीचे को देख रहा है। तभी उसे एक हाकर आकर होस्टल की तरफ आता हुआ दिखाई देता है। दरअसल लड़का उसी के इंतज़ार में खड़ा है। उसे देखते ही वो उससे ऊंची आवाज़ में पूछता है —

लड़का– आज आई है क्या साग़र साहब की ग़ज़ल?
हाकर– हां..छपी है मियां!
लड़का (ख़ुश होकर)– तो जल्दी ले आ मेरे भाई।
हाकर — आ रहा हूं।

हाकर अखबार का बंडल लिए होस्टल की सीढ़ियों से ऊपर आता है और लड़का दौड़कर उसके पास जाकर उसके हाथ से अख़बार “मस्त कलंदर” छपट लेता है और उसे खोलते हुए हाकर से कहता है —

लड़का – देखो! मुझे रोज ये अख़बार चाहिए.. मगर जिस दिन साग़र साहब का कलाम इसमें न छपे तो अख़बार मत डालना। मैं तुम्हें पूरे महीने के पैसे बराबर दे दूंगा।

हाकर उस लड़के की बात पर सहमति से सर हिलाता है और अख़बार बांटने आगे बढ़ जाता है। और वो लड़का वहीं खड़े-खड़े तेज़ी से अख़बार के पन्ने पलटता है। तभी उसे एक पन्ने पर साग़र साहब की ग़ज़ल दिखाई पड़ती है और वो मुस्कुरा कर उस ग़ज़ल को पढ़ने लगता है।

ये लड़का और कोई नहीं बल्कि मुस्तक़बिल का शकील बदायूंनी था जिन्होंने बाद में फिल्मी गीतकार बनने के बाद साग़र चिश्ती उज्जैनी सा. की कई ग़ज़लों और ना’त के शे’रों से फ़ायदा उठाया था।
शकील बदायूंनी कालेज टाइम से ही साग़र सा. के इतने बड़े फैन थे, ये बात साग़र साहब को उज्जैन के सुल्तान एहमद सिद्दीक़ी सा. ने बताई थी। वे भी उस वक़्त अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और शकील बदायूंनी के रूम मैट थे। लेकिन उज्जैन के होने के बावजूद तब वे साग़र साहब को नहीं जानते थे क्योंकि उनकी शाइरी में दिलचस्पी नहीं थी। एक दिन जब शकील बदायूंनी ने सुल्तान सा. से पूछा कि यार! क्या तुम साग़र साहब को जानते हो? तो सुल्तान सा. ने इंकार कर दिया लेकिन जब वे छुट्टियों में अपने घर उज्जैन आए तो सबसे पहले साग़र साहब का पता मालूम कर उनसे मिलने गए और शकील बदायूंनी की उनके प्रति जो दीवानगी थी, उसे बयान किया।
इस बात का एहसास शकील बदायूंनी को भी था कि फ़िल्मों में उनकी कामयाबी में साग़र चिश्ती उज्जैनी सा. का बड़ा योगदान है। फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म का मशहूर गीत–
जब रात है ऐसी मतवाली तो सुब्ह का आलम क्या होगा।
ये गीत साग़र चिश्ती सा. के एक शे’र से उठाया गया। उनका मतला था–

सूरत-ए- इश्क़ बअंदाज़े-दिगर क्या होगी,
रात जब इतनी हसीं है तो सहर क्या होगी?

शकील बदायूंनी साग़र साहब के इतने बड़े फैन थे कि एक बार वे जांनिसार अख्तर सा. को लेकर साग़र साहब से मिलने इंदौर आए। जांनिसार सा. साग़र साहब के उस्ताद भाई भी थे और वो भी उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे।
साग़र सा. ने रवि शबाब सा. को बताया था कि वे दोनों उन्हें मुंबई ले जाना चाहते थे। लेकिन मेरे घर वालों ने मुझे जाने की इजाज़त नहीं दी। साग़र साहब से शकील बदायूंनी ने कहा कि वो आपके मिसरे या शे’र अपने फ़िल्मी गानों में इस्तेमाल करना चाहते हैं। तो सूफ़ी तबीयत के साग़र साहब ने उनसे कहा कि तुम्हें मेरा जो भी कलाम इस्तेमाल करना हो, वो कर सकते हो.. मैं तुम्हें इसकी इजाज़त देता हूं।

उस ज़माने की एक मशहूर फ़िल्म ” सन ऑफ इंडिया” में भी उनका एक शे’र उनकी बग़ैर इजाज़त के लिया गया लेकिन उन्होंने कोई आपत्ति नहीं ली। शे’र था —

इरादे बांधता हूं, सोचता हूं, तोड़ देता हूं,
कहीं ऐसा न हो जाए, कहीं ऐसा न हो जाए।

(✍️ अखिल राज
पत्रकार-लेखक-शायर)

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