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हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है

आज 'मिर्ज़ा ग़ालिब'  का  227वां जन्मदिन है

आज ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’  का  227वां जन्मदिन है। उन्हें उर्दू-फ़ारसी का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है। इस महान शायर का जन्म 27 दिसंबर 1796 में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था. जब गालिब 5 वर्ष के थे  तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। जिसके बाद उनका पालन पोषण पिता की मृत्यु के बाद उनके चाचा ने ही किया था, पर शीघ्र ही इनकी भी मृत्यु हो गई थी और ये अपनी ननिहाल में आ गए। गालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान ‘ग़ालिब’ था. जब वह 13 वर्ष के थे, इनका विवाह कर दिया गया था।

गालिब ऐसे शायर थे जो खड़े-खड़े ग़ज़लें बनाते थे और ऐसे पढ़ते थे कि महफिलों में भूचाल आ जाता था। मिर्ज़ा ग़ालिब करोड़ों दिलों के पसंदीदा शायर हैं। उनकी कई ग़ज़ल और शेर लोगों को याद हैं, जिसमें ‘ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए/इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है’ जैसे कई शेर शामिल है।

यूं बनी वो मकबूल ग़ज़ल

यह उस वक़्त की बात है जब बहादुर शाह ज़फर भारत के शासक थे. ज़ौक उनके दरबार में शाही कवि थे। तब तक मिर्ज़ा ग़ालिब के चर्चे दिल्ली की हर गली में थे। बादशाह सलामत उन्हें सुनना पसंद करते थे लेकिन ज़ौक को शाही कवि होने के नाते अलग रुतबा हासिल था। कहा जाता है कि इसी वजह से ज़ौक और ग़ालिब में 36 का आंकड़ा था।

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मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ मशहूर शेर

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

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सिसकियाँ लेता है वजूद मेरा गालिब,
नोंच नोंच कर खा गई तेरी याद मुझे।

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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।

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ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री,

हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।

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उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब,

हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।।

बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह,

जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है।

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ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना,
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना।

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कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम-कश को,

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।

 

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है।

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले॥

की वफ़ा हमसे, तो गैर उसको जफ़ा कहते है
होती आई है, कि अच्छो को बुरा कहते है

बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।

उम्रभर देखा किये, मरने की राह
मर गये पर, देखिये, दिखलाएँ क्या।

दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।

इनकार जैसी लज़्ज़त इक़रार में कहाँ

बढ़ता है इश्क़ ग़ालिब उस के नहीं नहीं से

किस्मत बुरी सही तबियत बुरी नहीं

है शुक्र की जगह कि शिकायत नहीं मुझे

सादिक़ हूँ अपने क़ौल में ग़ालिब, ख़ुदा गवाह

कहता हूँ सच कि झूठ की आदत नहीं मुझे

बैठ रहता ले के चश्म ए पुर नम उस के रूबरू

क्यों कहा तू ने कि कह दिल का ग़म उस के रूबरू

बात करने में निकलता है दम उस के रुबरू

कह सके सारी हक़ीक़त कब हम उस के रूबरू

नाले दिल खोल के दो चार करूँ या न करूँ

ये भी ऐ चरखे ए सितमगार ! करूँ या न करूँ

मुझ को ये वहम कि इनकार न हो जाये कहीं

उन को ये फ़िक्र कि इक़रार करूँ या न करूँ

लुत्फ जब हो कि करूँ ग़ैर को भी मैं बदनाम

कहिये क्या हुक्म है सरकार करूँ या न करूँ

 

 

घर में था क्या कि तेरा ग़म उसे ग़ारत करता,
वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है।।

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लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं,
अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज।।

मिर्ज़ा ग़ालिब कुछ ग़ज़लें

आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक

कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

दाम हर मौज में है हलका-ए-सदकामे-नहंग

देखें क्या गुज़रे है कतरे पे गुहर होने तक

आशिकी सबर तलब और तमन्ना बेताब

दिल का क्या रंग करूं ख़ूने-जिगर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन

ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक

परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम

मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक

यक-नज़र बेश नहीं फुरसते-हसती गाफ़िल

गरमी-ए-बज़म है इक रकसे-शरर होने तक

ग़मे-हसती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मरग इलाज

शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

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बस कि दुशवार है हर काम का आसां होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इनसां होना

गिरीया चाहे है खराबी मिरे काशाने की

दरो-दीवार से टपके है बयाबां होना

वाए दीवानगी-ए-शौक कि हरदम मुझको

आप जाना उधर और आप ही हैरां होना

जलवा अज़-बसकि तकाज़ा-ए-निगह करता है

जौहरे-आईना भी चाहे है मिज़गां होना

इशरते-कतलगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ

ईदे-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरीयां होना

ले गए ख़ाक में हम, दाग़े-तमन्ना-ए-निशात

तू हो और आप बसद रंग गुलिसतां होना

इशरते-पारा-ए-दिल, ज़ख़्म-तमन्ना खाना

लज़्ज़ते-रेशे-जिगर, ग़रके-नमकदां होना

की मिरे कतल के बाद, उसने जफ़ा से तौबा

हाय, उस जूद पशेमां का पशेमां होना

हैफ़, उस चार गिरह कपड़े की किस्मत ‘ग़ालिब’

जिसकी किस्मत में हो, आशिक का गिरेबां होना

 

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