
- ♦मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा शहर से ताल्लुक रखने वाली शाइरा अंजुमन मंसूरी ‘आरज़ू ‘ का शे’री मजमुआ ‘ और तुम ‘ हाल ही में प्रकाशित हुआ है।यह ग़ज़ल संग्रह हर लिहाज से खूबसूरत है।
टाइटल ग़ज़ल के अशआर से अपनी बात शुरू करती हूँ
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इक ज़रा सी दिल की हसरत तुमसे उल्फ़त और तुम
बस है इतनी सी ज़रूरत थोड़ी राहत और तुम
मुनहसिर तुम पर है मेरे दिल की हर इक ‘आरज़ू’
एक मन्नत एक जन्नत एक फ़रहत और तुम *
किताब के नाम से ही ज़ाहिर होता है कि इस संग्रह में इश्क़ महब्बत की ख़ुशबू से लबरेज़ ग़ज़लें होंगी । ‘मधुशाला प्रकाशन’ से प्रकाशित इस संग्रह में 100 ग़ज़लें हैं जो इश्क़ हक़ीक़ी भी हैं और मजाज़ी भी ! नाम के अनुरूप ही कवर पेज भी गुलाबी रंग में है जो कि इश्क़ का रंग है
अंजुमन मंसूरी ‘आरज़ू ‘ जी बेहद हस्सास शाइरा हैं ! उनके अशआर पढ़ कर यह महसूस किया जा सकता है कि वो जो भी कहती हैं , उसे कितनी शिद्दत से महसूस किया होगा उन्होंने ! अरूज़ पर पूरी तरह खरी उतरती हुई आमफ़हम ज़ुबान में , सलासत , नफ़ासत, तग़ज़्ज़ुल और रवानी को बरक़रार रखते हुए कही गईं ये ग़ज़लें पाठकों को उनके एहसास के साथ जोड़ने की सलाहियत रखती हैं और यही एक शाइर के कहन की कामयाबी है । इन ग़ज़लों में महब्बत के हर रंग को महसूस किया जा सकता है । कहीं अना है तो कहीं समर्पण का भाव है , कहीं आस है तो कहीं यास । कहीं मायूसी आती है तो उम्मीद झट से उसे झटक देती है और हौसलों की बात करती हुई नज़र आती है । अंजुमन जी ने अपनी शाइरी मे मुहावरों, प्रतीकों का बहुत ख़ूबसूरती से प्रयोग किया है और आपके अशआर में इतिहास के प्रसंगों का भी गाहे-बगाहे ज़िक्र आता है ! अधिकांश ग़ज़लों के मकते में अपने तख़ल्लुस का इस्तेमाल बख़ूबी किया है आरज़ू जी ने , इसके लिए उन्हें विशेष बधाई !
बानगी के लिए कुछ अशआर देखिए –
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तुम्हारे बिन भी तुम में खो रही है
महब्बत भी इबादत हो रही है
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हर एक शे’र में उसकी जगह ख़ुदा पढ़िए
मेरी ग़ज़ल में हमेशा वो बस किनाया है
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हर्फ़ आँखों से चूम कर उसने
इक सहीफ़े की रू-नुमाई की
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बस एक रंग से तस्वीर बन सकी न कोई
है इंकिसार तो मुझमें अना भी ख़ूब रही
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इक शजर ने जब बिछाए रास्तों पर बर्ग-ओ-गुल
याद आई फिर हमें वो गुल-फ़िशानी आपकी
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लाख नायाब हो मगर फिर भी
बिन तेरे ज़ीस्त राएगानी है
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‘आरज़ू’ जिसकी थी वो मिल न सका
हम ज़माने के गुहर क्या करते
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ना-मुकम्मल शय किसे अच्छी लगी हमने मगर
इक अधूरी ‘आरज़ू’ को उम्र भर रहने दिया
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हस्ती में उसकी ख़ुद को मिटाने चली हूँ मैं
यानी कि अपने आप को पाने चली हूँ मैं
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क्यों इसे आब दिया सोच के दरिया टूटा
जब समंदर के किनारे कोई तिश्ना टूटा
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ऐ सुधा तेरे इश्क़ में चंदर
क्यों गुनाहों का देवता न हुआ
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यूँ अमृता तो थी साहिर में गुम, मगर इमरोज़!
मना के बाद मनाना कोई मज़ाक़ नहीं
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वो न आएँगे ये मालूम हमें है फिर भी
‘आरज़ू ‘ टूटी न उम्मीद से रिश्ता टूटा
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‘आरज़ू ‘ की हक़ीर ग़ज़लों से
कैसे तारीफ़ हो ख़ुदाई की
ऐसे ही अनेकों नायाब अशआर हैं इस संग्रह में ।किताब पठनीय हैं और संग्रहणीय भी ।मुझे पूरी उम्मीद है कि अंजुमन आरज़ू जी के पहले दोनों संग्रह ‘ रौशनी के हमसफ़र ‘ और ‘ अनवर से गुफ़्तगू’ की तरह यह संग्रह भी अदब की दुनिया में अपनी पहचान क़ायम करेगा । अंजुमन आरज़ू जी को इस नायाब संग्रह के लिए दिली मुबारकबाद और ढेरों दुआएँ !
समीक्षकः मधु मधुमन