उत्तराखंडपुस्तक समीक्षासाहित्य

नाउम्मीदियों के दौर में उम्मीद जगाती ‘उम्मीद की हथेलियां’

डॉ. बलवेंद्र सिंह के काव्य संग्रह 'उम्मीद की हथेलियां' को पिछले माह भाषा विभाग, पंजाब की ओर से सर्वश्रेष्ठ कृति का पुरस्कार मिला है, इसके लिए उन्हें बहुत बधाई और शुभकामनाएं

   गुंजाइश, भरोसा, भनक, खूबसूरत लोग, ठहराव, लौट आना, गफलत, कंडे थापती औरत, तय तो था, भागे हुए छोकरे, इस्मार्ट होता शहर, पुल, प्रतीक्षा, वोट भर नहीं किसान, इन दिनों रुलाई…..भाई बलवेंद्र सिंह की कविताओं के यह शीर्षक उनकी सोच और संवेदनशील मन को स्पष्टतः दर्शा देते हैं। जालंधर (पंजाब) के डीएवी पीजी कॉलेज में हिंदी विभाग में अध्यापनरत बलवेंद्र की कविताएं महज कागज पर छपे शब्द नहीं, बल्कि सिस्टम को आइना दिखाने और उनके प्रतिरोध की तीखी अभिव्यक्ति हैं। देश के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवि यश मालवीय ने काव्य संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियां’ की भूमिका लिखी है, जो किताब और उसके सृजनकर्ता डॉ. बलवेंद्र सिंह के बारे में बहुत कुछ कहती है। ऐसे में किताब पर मेरा कुछ लिखना या कहना, बहुत मायने नहीं रखता है। स्वभाव से शायर हूं, तो कुछ कहे बिना रह भी नहीं सकता।

  बहरहाल, हालांकि मैं कविताएं कम पढ़ता हूं, लेकिन जब बलवेंद्र का कविता संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियां’ मुझे मिला और मैंने उसके पन्ने पलटने शुरू किए, तो  ‘भरोसा’ कविता पर मेरी नजर ठहर गई। इस कविता में बलवेंद्र ने इतनी आसानी से कविता को लेकर लोगों के भोलेपन को दर्शाया है, जिसे शब्दों में बयान करना मुमकिन नहीं है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए:

   ‘उन्हें उम्मीद है उन कविताओं से

जो हर हफ्ते-महीने, छठे-छमाहे

छपती हैं पत्रिकाओं के पिछले पन्नों पर

अजब विश्वास है उनका कि

अनहुओं को होना सिखाएंगी ये कविताएं

इनमें से जिभकटों की बात बोलेगी

जब गांव के पास पहुंचेगी मोटर-रोड

विकास की बलि चढ़े खेतों का

उचित मुआवजा दिलाएंगी कविताएं

ये तिल-तिल खटती ज़िंदगी में से

आत्मा के सूदखोरों को करेंगी निकाल बाहर’

   इस कविता ने मुझे अजीब जद्दोजहद में डाल दिया। सच कहें तो समाज में गिरते मूल्यों, सियासतखोरों और सूदखोरों के बढ़ते दखल के बीच जब बुद्धिजीवी तक बेबस हो गए हैं, ऐसे में कोई कविता आमजन को इंसाफ दिला सकती है, इसकी कल्पना करना भी बेमानी लगता है। हालांकि कभी सत्ताधारियों में  कविताओं का इतना खौफ होता था कि वह कवियों को काल कोठरी तक में कैद कर देते थे, क्योंकि उन्हें डर लगता था कि लोग बगावत न कर दें। लेकिन बदलते दौर में यह सब बेमानी होकर रह गया है। ख़ुद सत्ताधारी ही भ्रष्टाचारियों को बचाने में लगे रहते हैं।

  इस सबके बावजूद कवि निराश नहीं है और एक अन्य कविता ‘शुरूआत’ में लोगों से:

‘टूटने न दो उम्मीद

न रीतने दो विश्वास

करो-करो शुरूआत सुभीते पल की

शुरूआत करो बेहतर कल की

हां करो शुरू आपस में किसी बात से

बस तनिक एहतियात से!’ का आह्वान करता है। इसी तरह ‘गुंज़ाइश’ शीर्षक से लिखी कविता:

‘प्रार्थना यही है सदा-सदा

इन्सान में बची रहे थोड़ी सी इन्सानियत

जैसे कहन से कभी चुके न उम्मीद और

भाषा में बनी रहे तमीज़ के लिए गुंज़ाइश’ में भी कवि लोगों को उकसाता नहीं है और संयम से काम लेने की सीख देता है।

   भले ही लुधियाना जन्मभूमि और जालंधर कर्मभूमि रही हो, बावजूद इसके बलवेंद्र पहाड़ के हालात से बखूबी वाकिफ़ हैं, जो उनकी कविता ‘भागे हुए छोकरे’ में स्पष्ट दिखता है। इसी कविता की कुछ पंक्तियां देखिए:

‘फिलहाल धूल ही फांकनी थी

पहाड़ से भागे छोकरों को

जवानी के दिनों में बाप भी भागा था इसी तरह और

बहुत दिनों बाद उसके फौज में भर्ती होने की

चिट्ठी मिली थी घरवालों को

या ऐसे ही गांव छोड़ निकले कुछ बाप

देस में पा गए थे सरकारी नौकरियां।

अपना भेद बताने से

कितना कतराते हैं घर से भागे पहाड़ी छोकरे!

ख़ुद ही से बचते हुए कितने अलग से पहचाने जाते हैं वे

इतनी-सी बात भी नहीं जानते निरभाग छोकड़े।’ पंजाब में जन्म होने के बावजूद भी बलवेंद्र पहाड़ के हालात से वाकिफ हैं।

इसी तरह, कोरोना के समय की कविता को पढ़कर मन विचलित हो उठा:

‘विश्वास की सांसें

उखड़ रही हैं जब

भोली-भाली मनुष्यता

कसमसा रही वेंटीलेटर पर

शहर-नगर गांव सब

सैनेटाईज़र में नहा रहे

कहीं कोई है, जो

पूरी मांस-मज्जा से

जुटा है तीमारदारी में।

जीवन-संगिनी के साथ जिए

हर भले-बुरे पल का

स्वयं-साक्षी, अभी भी

भरपूर जीने को है आतुर…

तभी तो,

आक्सीजन व बेड के अभाव में

तड़पती पत्नी के मुंह पर

रखकर अपना मुंह, वह

फेफड़ों से खींची प्राणवायु को

फूंकना चाहता है उसमें भरपूर….’

 

हालांकि ख़ुद कवि भी समाज को समझ नहीं पा रहा और किंकर्तव्यविमूढ़ की हालत में है, जो ‘ठहराव’ कविता में परिलक्षित होता है। इस कविता में कवि कहता है:

‘मैं सोचता हूं और चलता हूं

मैं चलता हूं और सोचता हूं’

कि

सोचते-सोचते चलने

और

चलते-चलते सोचने के बीच

कहां ठहर गई कविता…’

इसी किताब में संकलित तीन पंक्तियों की कविता

‘पुकारते रहो उसे

पुकारती चलेगी

पुकारती हुई पुकार’ बहुत कुछ सोचने-समझने को प्रेरित करती है।

  बलवेंद्र जितनी अच्छी कविता लिखते हैं, उतना ही ग़ज़ल पर भी उनका दख़ल है। उरूज़ और मानकों की दृष्टि से भी उनकी ग़ज़लें ख़री उतरती हैं। देवनागरी लिपि में कही गई उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर और मतले, जो मुझे पसंद आए, आपके सामने रख रहा हूं।

 

इक आखर की प्रेम कहानी सबको दे।

चोंच में दाना, आंख का पानी सबको दे।।

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वक़्त के मारे पीर हरी हो जाने पर।

मरहम बन जो लगती बानी सबको दे।।

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कुछ तो समझो मौसमों की ख़ुशख़याली का सबब।

बस, बरसते बादलों में भीगना काफ़ी नहीं।।

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हर मौसम में हर पल रंग बदल लेते।

लोकतंत्र के गिरगिट सारे पागल-से।।

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उनको तो है शाही पदवी को पाना।

तुम ठहरे प्यारे सचियारे पागल-से।।

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क्या ज़रूरी है कि हम नफ़रत ही बोएं।

इस सियासत की ज़मीं पे हटके चल तो।।

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आंखों में है खारा सागर, सीने में तूफान कई।

होंठों पर देखा जब हमने ताले यार हज़ार मिले।।

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फेसबुकिया ज़िंदगी में शायरी मसरूफ़ है।

उसको क्या मालूम कब-क्योंकर बजीं रणभेरियां।।

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राम जाने किस जगह, किसने कहा औ’ क्या कहा।

ईद रोई दर्द में भरकर है दिवाली बेमज़ा।।

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सुना है शहर में ललुए बहुत हैं।

कि उनके चाटते तलुए बहुत हैं।।

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सच तो है इतना यहां सरकार तो है आपकी।

बीच अपनों के कहो कैसे बढ़ा है फ़ासला।।

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चहचहाना अब रहा न डाल पर।

सब परिंदे जा चुके हड़ताल पर।।

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बहरहाल, बलवेंद्र का काव्य संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियां’ का यह दूसरा संस्करण है, जो उन्होंने मुझे भेजा है। क्या सोचकर उन्होंने मुझे यह दूसरा संस्करण भेजा, यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन किताब पढ़ने के बाद उनकी कविताओं और ग़ज़लों पर विचार साझा करने से मैं ख़ुद को रोक नहीं पाया। यह किताब की समीक्षा नहीं है, मेरे विचारभर हैं, जो मैं आप मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। बलवेंद्र जी को उनके सृजन के लिए बहुत बधाई। मेरे विचार जानने के बाद यदि आपका भी मन बलवेंद्र जी को पढ़ने का हो, तो इस मोबाइल नंबर 9417743100 पर उनसे संपर्क कर सकते हैं।

दर्द गढ़वाली, देहरादून

09455485094

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