अनूठे हैं उर्गम घाटी के फ्यूंला नारायण

उत्तराखंड के चमोली जनपद में जोशीमठ विकासखंड की उर्गम घाटी का भर्की गांव। यहां से चार किमी की पैदल दूरी पर पश्चिम भाग में भगवान श्रीविष्णु का ऐसा मंदिर है, जहां उनके शृंगार का अधिकार सिर्फ महिलाओं को है। समुद्रतल से 10 हजार फीट की ऊंचाई पर पंचम केदार भगवान कल्पेश्वर और भगवान ध्यान बदरी के पावन क्षेत्र में स्थित इस मंदिर में भगवान विष्णु की ख्याति भगवान फ्यूंला नारायण के रूप में है। मंदिर के आसपास उगने वाले विशेष फूल फ्यूंला की वजह से भगवान को फ्यूंला नारायण नाम मिला है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं। दक्षिण शैली में बने इस मंदिर में भगवान विष्णु के अलावा मां लक्ष्मी और जय-विजय नामक द्वारपालों की मूर्तियां भी हैं। मंदिर के कपाट हर साल कर्क संक्रांति (श्रावण संक्रांति) के दिन 15 से 17 जुलाई के बीच धूमधाम से खोले जाते हैं और नंदा अष्टमी (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी) पर 30 अगस्त से 25 सितंबर के मध्य बंद कर दिए जाते हैं। इसी दिन अगले वर्ष के लिए पुजारी का चयन भी किया जाता है। कपाट बंद होने के बाद शेष नौ महीने भगवान फ्यूंला नारायण की पूजा भर्की गांव में होती है।
सिर्फ महिला पुजारी करती हैं श्रीहरि का शृंगार
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फ्यूंला नारायण मंदिर में पुरुष के साथ महिला पुजारी का भी विधान है, लेकिन भगवान नारायण के शृंगार का अधिकार केवल महिलाओं को है। सात वर्ष से 12 वर्ष तक की कन्या या 50 वर्ष से अधिक आयु की महिला इस मंदिर की पुजारी हो सकती है। जिस महिला को शृंगार की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, वह कपाट बंद होने तक गाय व उसके बछड़े के साथ मंदिर में ही रहती है। इस महिला को फ्यूंल्यांण कहा जाता है। भगवान को हर दिन तीनों पहर भोग लगाने की जिम्मेदारी भी इसी की महिला की होती है। इसके अलावा पुरुष पुजारी भी कपाट बंद होने तक मंदिर को नहीं छोड़ते। महिला व पुरुष पुजारी एक ही परिवार से होते हैं। अन्य ग्रामीण भी यात्राकाल में मंदिर के आसपास स्थित छानियों में अपने मवेशियों को रखते हैं, ताकि पूजा के लिए दूध-मक्खन की कमी न हो। खास बात यह कि मंदिर के पुजारी ब्राह्मण नहीं, बल्कि ठाकुर जाति के लोग होते हैं। भगवान को हर दिन तीनों पहर सत्तू, पिंजरी, घी, मक्खन, दूध व बाड़ी का भोग लगाया जाता है, जिसे गाडा कहते हैं। प्रातः भगवान को नित्य स्नान के बाद चंदन का तिलक कर बालभोग और राजभोग लगाया जाता है, जबकि संध्याकाल में भगवान को दूध का भोग लगता है। आरती के बाद भगवान नारायण योग निद्रा में चले जाते हैं।
चैतन्य और वैराग्य का प्रतीक घंटी-चिमटा
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कर्क संक्रांति के मौके पर मंदिर के कपाट खोलने के लिए भर्की स्थित पंचनाम देवता मंदिर से पुजारी और भूम्याळ देवता की अगुआई में भेंटा, भर्की, पिलखी, गवाणा व अरोशी सहित उर्गम घाटी के सभी 12 गांवों के लोग फ्यूंला नारायण धाम के लिए प्रस्थान करते हैं। ये सभी फ्यूंला नारायण मंदिर के हक-हकूकधारी हैं। इससे पहले भूम्याळ देवता के पश्वा मंदिर के पुजारी को घंटी व चिमटा प्रदान करते हैं, जो कि ध्यान, चिंतन और चेतन के प्रतीक हैं। इसका भाव यह है कि कपाट खुलने के दिन से कपाट बंद होने तक पुजारी को चेतन रहना पड़ेगा और वैराग्य का पालन करना होगा। इसी के साथ नारायण की यात्रा आगे बढ़ेगी।
कपाट बंद होने तक जलती रहती है अखंड धूनी
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फ्यूंला नारायण मंदिर में भगवान नारायण में अलावा माता लक्ष्मी, क्षेत्रपाल घंटाकर्ण देवता, भूम्याळ जाख देवता, नंदा-सुनंदा, वन देवी, वरुण देवता व पितरों की पूजा का विधान है। मंदिर के कपाट बंद होने तक अखंड धूनी जलती रहती है। प्रत्येक दिन भगवान को बाड़ी व सत्तू का भोग लगाया जाता है।
सबसे पहले अप्सरा उर्वशी ने किया था भगवान का शृंगार
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यहां महिला पुजारी के होने का संदर्भ स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी से जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि एक बार उर्वशी पुष्प चुनने के लिए उर्गम घाटी में पहुंचीं तो उन्होंने यहां भगवान विष्णु को विचरण करते हुए देखा। इस पर उर्वशी ने रंग-विरंगे फूलों की माला भगवान को भेंट की। साथ ही फूलों से उनका शृंगार करने लगीं। तब से फ्यूंला नारायण मंदिर में महिलाएं ही भगवान का शृंगार करती आ रही हैं। यह भी मान्यता है कि घाटी में ऋषि दुर्वासा ने भी कई सालों तक तपस्या की थी।
उर्गम घाटी से होकर जाता था बदरीनाथ का रास्ता
जनश्रुति है कि प्राचीनकाल में जब बदरी-केदार की पूजा एक साथ होती थी, तब एक शंकु मार्ग से तीर्थयात्री बदरीशपुरी पहुंचते थे। यह शंकु मार्ग फ्यूंला नारायण मंदिर से पंचम केदार कल्पेश्वर धाम और नीलकंठ होते हुए बदरीनाथ धाम पहुंचता था। उस दौर में बदरीनाथ धाम जाने वाले यात्री यहां भगवान फ्यूंला नारायण के दर्शन कर ही आगे बढ़ते थे। स्वयं बदरीनाथ धाम के रावल यहां पहुंचकर भगवान नारायण की पूजा करते थे। उसी कालखंड से यहां हर वर्ष श्रावण संक्रांति पर ठाकुर परिवारों द्वारा भगवान विष्णु की पूजा की जाती रही है।
( दिनेश कुकरेती, वरिष्ठ पत्रकार)